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जीवन का सार, कभी नहीं बन पाया राजनीति का संसार

सार

राजनीति की माया समझ आ जाए तो जगत की माया के सत्य की खोज आगे बढ़ सकती है. चुनाव और चुनाव के बाद राजनीति की माया में जमीन-आसमान का अंतर आ जाता है. चुनाव ही एक अवसर है जब राजनीति जमीन पर आती है नहीं तो राजनीति आसमान पर ही निवास करती है.

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विस्तार

चुनाव अब राजनीति और निजी स्वार्थ की हेराफेरी तक सिमट गए हैं. हेराफेरी इसलिए क्योंकि खजाना तो जनता का ही है, कैसे भी लुटाया और लुभाया जाए, वास्तविक परिणाम तो जनता को ही भुगतना पड़ता है. चुनावी मुद्दे और बातें लोकतंत्र को सुसंस्कृत करने की बजाय स्वार्थी अपसंस्कृति को प्रोत्साहित कर रही हैं. समाज को विकृति की ओर धकेलने वाले सारे संस्कार राजनीति से ही पैदा हो रहे हैं.  

झूठ-फरेब, भ्रष्टाचार, निजी स्वार्थ की प्रवृत्ति, लोकहित और समाजहित के मुद्दों को पीछे धकेल रही है. हमारा लोकतंत्र परिष्कार की मांग कर रहा है. स्वार्थी मुद्दों से कुछ समय कुछ लोगों का राजनीतिक भला हो सकता है लेकिन इससे दीर्घकालीन लोकहित और समाज की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा.

चुनावी वायदे निजी लाभ की घोषणाओं और दावों से भरे हुए दिखाई पड़ते हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई बालकल्याण, वैयक्तिक सुरक्षा, महिला सुरक्षा, राज्य और राष्ट्र का कल्याण निजी स्वार्थ के शार्टकट में गुम हो जाते हैं. आज चुनाव मुफ्तखोरी की योजनाओं पर चला गया है. ‘माफ और हाफ’ राजनीतिक इंसाफ बन गया है. चुनावी चौसर पर झूठ की मशीन ऐसी चलाई और बताई जा रही है जैसे बटन दबते ही बिजली के पंखे चलने लगते हैं. सब कुछ मुफ्त की राजनीतिक अवधारणा कर्म प्रधानता को ही धोखे में रख रही है.

यह मानसिकता बढ़ते- बढ़ते अब इस स्तर पर पहुंच गई है कि चुनाव में स्थानीय मुद्दे और निजीहित सर्वाधिक निर्णायक साबित होने लगे हैं. हर मतदाता में राजनीतिक विकारों के कारण घर के पास स्ट्रीट लाइट न लगने, नाली दुरुस्त न होने पर अच्छे जनप्रतिनिधि को भी नकारने की प्रवृति दिखाई देने लगी है. अवैध गतिविधियों में लिप्त जनप्रतिनिधि भी अगर मतदाता के निजी स्वार्थ के लिए मुफीद है तो फिर उसके समर्थन का भी वही उपयुक्त अधिकारी है. ऐसी सोच लोकतंत्र को कमजोर कर रही है. समाज और मानवीय जीवन के विकास के बुनियादी विचार और सिद्धांत राजनीतिक विकारों के कारण बदलते जा रहे हैं.

चुनाव में जनादेश हथियाने के लिए झूठ को इस तरह जायज साबित किया जाता है जैसे जंग और प्यार में सब कुछ जायज है. लोकतंत्र के वर्तमान हालात राष्ट्र और राज्य की यूनिटी की बजाय बिखराव का कारण बनते जा रहे हैं. राज्य के लिए क्या जरूरी है इस पर चुनाव में विचार ही नहीं होता. मतदाता भी इस पर सोचे, राजनीति ऐसा अवसर ही निर्मित नहीं करती. गरिमापूर्ण जीवन के लिए बुनियादी सड़क-बिजली, पानी के मुद्दे तो कभी-कभार चर्चा में आ जाते हैं लेकिन शौचालय, अस्पताल, व्यक्क्तिक सुरक्षा, अपराध, राजनीतिक भ्रष्टाचार,परिवारवाद, तुष्टिकरण चुनाव के मुद्दे नहीं बन पाते हैं. 

चुनाव में एक दूसरे दल के खिलाफ ऐसे मुद्दों का उपयोग कर विभाजन को बढ़ाना आम बात है लेकिन मतदाता ऐसे मुद्दों से अलग-थलग केवल निजी स्वार्थ की पूर्ति और जाति-संप्रदाय तक ही मताधिकार के निर्णय को सीमित रखने लगा है. यह परिस्थितियां लोकतंत्र के लिए सेहतमंद नहीं कहीं जा सकती. घात-प्रतिघात की राजनीति के आघात से समाज के आचरण व्यवहार और स्वभाव में अगर कोई नकारात्मक परिवर्तन आता दिखाई पड़ रहा है तो उसके बदलने के लिए सियासत को बदलना सबसे पहली जरूरत है.

राजनीति की यही कोशिश होती है कि बुनियादी मुद्दे दरकिनार ही रहें. निजी स्वार्थ और सतही विषयों पर जनमत को प्रभावित कर आगे निकला जाए. यह किसी एक दल की बात नहीं है यह तो राजनीति की ही समस्या बन गई है क्योंकि यह राजनीति का शॉर्टकट है. इसलिए इसके सुधार के लिए राजनीति से कोई अपेक्षा करना तो बेमानी ही होगी. लोकतंत्र में परिष्कार जनता की ही जरूरत है और जनता को ही इसे करना पड़ेगा.

राष्ट्रहित, राज्यहित, लोकहित और समाजहित को निजी हितों से ऊपर रखकर मताधिकार के उपयोग से ही सही मायने में समाज और देश विकसित होगा. हमारी सरकारें जैसे सक्षम लोगों से सब्सिडी छोड़ने का आव्हान करती हैं वैसे ही राजनीति को निजीहित की योजनाओं पर चढ़कर लोकतंत्र में जीत की आदत को छोड़ने की जरूरत है.

जीवन के सार को राजनीति के संसार का आधार बनाने का समय आ गया है. एक दूसरे को भ्रष्ट और झूठ की मशीन बताकर चुनावी वातावरण को बदरंग करने से लोकतंत्र का रंग नहीं जम सकेगा. सियासत आज समाज में समाई हुई है. सियासत के तरीके समाज भी अपनाने लगा है. अच्छी आदत तो देर से अनुकरण होती है लेकिन सियासत की बुराई का अनुकरण पूरे समाज को बुराई की ओर धकेले, इस पर समय रहते सजग होने से ही लोकतंत्र का परिष्कार होगा.