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आरोप लगाते लेकिन वोटर लिस्ट शुद्धिकरण से कतराते

सार

राजनीतिक आरोपों की असरहीनता लगातार बढ़ती जा रही है. चुनाव दर चुनाव इतने असत्य और असंगत आरोप लगाए गए कि कई बार सही आरोप भी उसी में गुम हो जाते हैं. बिहार में चुनाव के पहले मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण में भी ऐसे ही आरोप लगाए जा रहे हैं. चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जाते हैं..!!

janmat

विस्तार

    संवैधानिक संस्थाएं किसी भी दल के लिए काम नहीं करती हैं. जो ढंग और ढर्रा इन संस्थाओं का कांग्रेस की सरकारों की समय था, उसमें वर्तमान में कुछ सुधार ही दिखाई पड़ता है. चाहे इनमें नियुक्तियों के नजरिए से देखा जाए या उनकी फंक्शनिंग. विभिन्न राज्यों में विपक्षी दल भी चुनाव जीतते हैं, फिर भी जहां हारते हैं, उसके लिए चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को कटघरे में खड़ा करते हैं. 

    बिहार में जो मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण हो रहा है, वह कोई नई प्रक्रिया नहीं है इसके पहले भी कई बार विशेष पुनरीक्षण हो चुका है. यह बात जरूर है, कि विशेष पुनरीक्षण के लिए थोड़ा अधिक समय की जरूरत होती है, लेकिन चुनाव आयोग ने सीमित समय में इसको पूरा करने का बीड़ा उठाया है. आधार कार्ड को पहचान पत्र के रूप में मान्य नहीं किया गया.

    पहचान के लिए जिन 11 दस्तावेजों को मान्य किया गया है, उनमें काफी समस्या का समाधान हो जाएगा. यह चुनाव आयोग का दायित्व है, कि कोई भी पात्र मतदाता मताधिकार से वंचित न हो सके. इसके साथ ही मतदाता सूची में एक भी घुसपैठी या फर्जी मतदाता शामिल ना हो सके.

    मतदाता सूची में अशुद्धि पूरी चुनाव प्रक्रिया को अशुद्ध बना देती है. इस प्रक्रिया का यह कहकर विरोध किया जा रहा है, कि इसकी शुरुआत बिहार से ही क्यों की जा रही है. इसके लिए विपक्षी दल विशेष कर कांग्रेस और राहुल गांधी जिम्मेदार कहे जा सकते हैं.

    महाराष्ट्र में चुनाव में अपनी हार के लिए राहुल गांधी ने मतदाता सूची में फर्जी मतदाता बढ़ाने का आरोप इलेक्शन कमीशन पर लगाया. इसके लिए अखबार में लेख लिखे गए. बिना हस्ताक्षर का पत्र भी लिखा गया. जब इलेक्शन कमीशन नें आरोपों की पुष्टि और प्रमाण के लिए उन्हें आयोग में बुलाया, तो फिर नहीं गए. कोई आरोप लगाए और फिर प्रमाण देने के लिए नहीं जाए, तो यह तो अपराध की श्रेणी में आता है. राहुल गांधी की यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है, जहां वह संवैधानिक संस्थाओं पर यहां तक कि न्यायालय पर भी सवाल खड़े कर देते हैं.

    जब इलेक्शन कमीशन ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र की मतदाता सूची में कोई गड़बड़ी नहीं है. पूरी पारदर्शिता के साथ सूची बनाई गई है, तो फिर उस पर विश्वास करने की बजाय अपने झूठे आरोपों को ही दोहराया जा रहा है. एक बात को बार-बार कहने से वह सच नहीं हो जाती. इसीलिए चुनाव आयोग भी सख्त रुख दिखा रहा है.

    कांग्रेस सहित विपक्षी दलों का प्रतिनिधिमंडल बिहार में हो रहे विशेष पुनरीक्षण के विरोध में चुनाव आयोग से मुलाकात की. आयोग ने साफ कर दिया कि पूरी प्रक्रिया संविधान के अंतर्गत पारदर्शी ढंग से हो रही है. किसी को भी मताधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा, जहां तक कम समय का सवाल है तो यह आयोग की जिम्मेदारी है और आयोग समय सीमा में अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा. इसके लिए राजनीतिक दलों को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मतदाता सूची पुनरीक्षण की प्रक्रिया राजनीतिक दलों के साथ और उनके सक्रिय सहयोग से पूरी होती है. चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के बूथ लेवल एजेंट को भी इस प्रक्रिया में शामिल करता है.

    सबसे बड़ा सवाल कि पुनरीक्षण पर यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी को लाभ पहुंचाने के लिए महागठबंधन के समर्थक वोटरों के नाम सूची से हटा दिए जाएंगे. यही बात कोई कैसे कह सकता है कि कौन किसका समर्थक है. दूसरी बात जो आरोप लगा रहे हैं उन दलों की ही जिम्मेदारी है, कि हर मतदाता को वांछित दस्तावेजों के साथ मतदाता सूची में पंजीबद्ध कराएं. कोई वैधानिक दस्तावेज और शामिल करने से अगर मतदाताओं को सुविधा हो सकती है, तो उस पर आयोग भी विचार कर सकता है. लेकिन प्रथम दृष्टि में ही प्रक्रिया को संदेहास्पद और चुनाव आयोग को अविश्वसनीय साबित करने की राजनीतिक साजिश लोकतंत्र को ही नुकसान पहुंचा रही है.

    जो राजनीतिक दल मतदाता सूची के पुनरीक्षण पर इतना हल्ला मचा रहे हैं, वह अगर मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में योगदान देते तो लोकतंत्र ज्यादा मजबूत होता. लगभग 60% लोग ही आमतौर पर मतदान में हिस्सा लेते हैं. राजनीतिक दल लोकतंत्र की मजबूती पर चिंतित नहीं होते बल्कि वोट बैंक की मजबूती पर चिंतित होते हैं. जो हल्ला मचाया जा रहा है, वह भी वोट बैंक के नजरिए से ही हो रहा है. 

    चुनाव की प्रक्रिया और व्यवस्थाएं अगर हार्डवेयर हैं, तो मतदाता उसका सॉफ्टवेयर है. जब तक सॉफ्टवेयर का समर्थन नहीं होगा, तब तक हार्डवेयर के सहयोग से चुनाव नहीं जीता जा सकता. मतदाता का सॉफ्टवेयर अनुकूल पॉलीटिकल सॉफ्टवेयर को कैच कर लेता है. उसे सच और झूठ समझ आ जाता है. 

    जब पॉलिटिकल एम्पायर कंगाल हो जाता है, तो फिर सवालों और आरोपों की राजनीति ही सहारा बचती है. तभी अंपायर पर सवाल खड़े किए जाते हैं. ऐसा हर दल के साथ होता है, लेकिन जिन दलों में नेतृत्व परिपक्व  होता है, वहां दोबारा जनविश्वास पाने की कोशिश की जाती है.

    झूठे आरोपों की राजनीति दीर्घकालीन नुकसान पहुंचाती है. विशेष पुनरीक्षण से जिनको तकलीफ है, उनको राहुल गांधी से सवाल करना चाहिए. अगर वह मतदाता सूची पर इतने सवाल न खड़े करते तो शायद विशेष पुनरीक्षण थोड़े समय बाद होता. जब आरोप लगाते हैं तो फिर सच्चाई से सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए.