पीडब्ल्यूडी द्वारा राजधानी में बनाए गए नब्बे डिग्री आरओबी ने मध्य प्रदेश की प्रशासनिक छवि को काफी नुकसान पहुंचाया है. इसने वैसा ही काम किया है, जैसा व्यापम के समय प्रदेश को बदनामी मिली थी..!!
इसे उद्घाटन से फिलहाल रोक दिया गया है. सुधार के बाद ही यह ओवर ब्रिज चालू हो सकेगा. जब प्रदेश की इतनी बदनामी हुई तो दोषियों के खिलाफ़ एक्शन भी होना ही था. आरओबी की डिजाइनऔर प्लानिंग में शामिल इंजीनियरों को निलंबित कर दिया गया है. कुछ रिटायर्ड इंजीनियरों के खिलाफ़ विभागीय जांच के आदेश दिए गए हैं. इस मामले में जिस तरह से केवल इंजीनियरों को ही जवाबदेह ठहराया गया है, उससे तो ऐसा लगता है, कि पूरा पीडब्ल्यूडी विभाग केवल इंजीनियरों द्वारा ही चलाया जाता है. फिर मंत्रालय का इतना बड़ा अमला कौन सा काम करता है.
किसी भी निर्माण की डिजाइन और प्लानिंग की स्वीकृति के साथ ही प्रशासकीय अनुमोदन शासन स्तर से दिया जाता है. किसी भी निर्माण कार्य की मॉनिटरिंग सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है. जब निर्माण में गड़बड़ी के लिए इंजीनियर ही जिम्मेदार हैं, तो फिर शेष पूरे विभाग की क्या जवाबदेही है. प्रशासनिक अक्षमता, गफ़लत और लापरवाही का इस आरओबी से बड़ा दूसरा स्मारक नहीं हो सकता. यह तो मीडिया में उछल गया है. डिजाइन और प्लानिंग की गफलत के कारण ना मालूम कितने निर्माण कार्य अपनी पूरी उपयोगिता साबित नहीं कर पाते. जो लक्ष्य लेकर योजनाएं बनती हैं, खासकर निर्माण विभागों में वह कभी भी पूरी नहीं होतीं.
जितने भी सिंचाई प्रोजेक्टपूर्ण किए गए हैं, उनकी सिंचाई क्षमता प्रोजेक्टेड क्षमता से कम ही होती है. टेल एंड तक कभी भी सिंचाई सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती. चाहे पावर हाउस का मामला हो या कोई दूसरे निर्माण हों. सभी मामलों में कमोवेश ऐसा ही होता है. यह तो सिस्टम का लगभग स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) बन गया है, कि कोई भी निर्माण कार्य ऐस्टीमेटेड लागत और निर्धारित समय में पूरा नहीं होता. परियोजनाओं की लागत बढ़ जाती है.
भोपाल मेट्रो का मामला हमारे सामने है. निर्धारित समय में प्रोजेक्ट अधर में लटका हुआ है और इसकी लागत बेतहाशा बढ़ रही है. यह प्रवृत्ति सिस्टम की एसओपी बन गई है, जब भी कोई निर्माण की दुर्घटना और अक्षमता उजागर होती है, तो तात्कालिक रूप से कुछ जिम्मेदार या गैर जिम्मेदार लोगों को निलंबित कर दंडित करने का प्रचार किया जाता है. निलंबन तो कोई सजा होती नहीं है. धीरे-धीरे जैसे मीडिया से ऐसे मामले ओझल हो जाते हैं, फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है.
शासन में कार्य संचालन के लिए विभिन्न स्तर पर अधिकार और कर्तव्य निर्धारित हैं. बेहतर रिजल्ट के लिए मॉनिटरिंग सबसे ज्यादा जरूरी है और और यही सबसे ज्यादा निग्लेक्टेड या मैनिपुलेटेड है. ऐसे मामलों में मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी वाले स्तर के अधिकारियों को खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए.
शासन में ट्रेनिंग एक सतत प्रक्रिया होती थी, जो अब लगभग समाप्त सी हो गई है. परफॉर्मेंस को पुरस्कृत करने की प्रवृत्ति भी बेहतर परफॉर्मेंस की प्रेरणा देती है, लेकिन हालत तो ऐसे हो गए हैं, कि सरकारों में सालों तक पदोन्नतियां नहीं मिलतीं. जो कर्मचारी का मौलिक अधिकार है. पदोन्नति में आरक्षण की राजनीति और परफॉर्मेंस के आंकलन में कोई तालमेल ही नहीं होता.
कोई ऐसा साल नहीं जाता जब कोई डैम क्षतिग्रस्त नहीं होता. अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं, कि हाईवे पर जाम के लिए लोगों के घर से निकलने को ही दोषी ठहरा दिया जाता है. ऐसी असामान्य घटनाएं और प्रवृतियां सिस्टम में देखने को मिल रही हैं, जो व्यवस्था में गिरावट का संकेत करती हैं. मंत्री के ख़िलाफ़ शिक़ायत पर संपत्ति की जांच के आदेश विभागाध्यक्ष द्वारा जारी करना किस तरह के शासन की शैली कही जाएगी.
आरओबी पब्लिक के सामने है, इसलिए नब्बे डिग्री की प्रशासनिक और तकनीकी अक्षमता उजागर हो गई है. अगर इसको छुपाने की कोई भी संभावना होती तो फिर यह पब्लिक के सामने आता ही नहीं. ऐसी ना मालूम कितनी अक्षमताएं और लापरवाही हैं, जो सिस्टम की फाइलों में कैद रहती हैं. इनको करने वाले पूरी शानो शौकत के साथ अपना कार्यकाल बिताकर विदा हो जाते हैं. फाइलों में अगर तलाशा जाएगा, तो नब्बे डिग्री नहीं 190 डिग्री तक की लापरवाही और अक्षमता मिल सकती है.
हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आदिवासियों के साथ मुख्यमंत्री निवास पहुंचते हैं, अभ्यारण में रहने वाले आदिवासियों के घरों को उजाड़ने से नाराज़ होकर मुख्यमंत्री को घटनाक्रम बताते हैं. तत्काल सीहोर डीएफओ का ट्रांसफर कर दिया जाता है. डीएफओ भी एक आदिवासी हैं.
समाचारों में ट्रांसफर्ड डीएफओ कहते हैं, कि सिवनी सेंचुरी देवास जिले में आती है. अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई देवास वन मंडल की है. सीहोर वन मंडल का इससे कोई ताल्लुक नहीं है. इसे कौन सी डिग्री का प्रशासन कहा जाएगा. जो जिम्मेदार नहीं है उसे हटा दिया गया और जो जिम्मेदार है उसे बचा लिया है. सीहोर जिले में जो अभ्यारण प्रस्तावित है, जिसको फिलहाल स्थगित कर दिया गया है, वह प्रक्रिया 2019 में प्रारंभ हुई थी.
कमलनाथ की सरकार के बाद शिवराज सिंह चौहान स्वयं मुख्यमंत्री रहे. अगर यह अभ्यारण आदिवासियों के हितों के इतना खिलाफ़ था तो उसको उसी दौर में क्यों नहीं नामंजूर कर दिया गया. अभी भी इसे नामंजूर नहीं किया गया है, केवल स्थगित किया गया है.
आदिवासियों के घर उजाड़ने का मामला लगभग हर साल सामने आता है. बारिश में उजाड़ना तो अमानवीयता की पराकाष्ठा है. जब अभ्यारण्य या वनों से कब्जा हटाने के प्लान को डिजाइन किया जाता है, तो क्या नियम कानून और मानवीयता को ध्यान में नहीं रखा जाता. अगर अभ्यारण्य बनाया जाएगा तो फिर उसमें रहने वाले आदिवासियों को हटाना ही पड़ेगा. इसलिए योजना बनाते समय आदिवासियों के पुनर्वसाहट के लिए उन्हें विश्वास में लेकर कार्यक्रम क्यों नहीं बनाए जाते. कुपोषण का अभिशाप अभी भी व्याप्त है. अरबों रुपए खर्च कर भी कुपोषण मुक्त समाज हम नहीं बना पा रहे हैं. यह सब नब्बे डिग्री जैसे ही लापरवाही और अक्षमता का नमूना है.
सुशासन और प्रशासनिक सुधार नीचे से नहीं ऊपर से शुरू होता है. मॉनिटरिंग मनीटरिंग क्यों बन गया, इस पर नजर नीचे से नहीं ऊपर से डालनी पड़ेगी.
गलतियां स्वाभाविक हैं, लेकिन उनकी पुनरावृत्ति अपराध है. अगर यह स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर बन जाए और ऐसी किसी दुर्घटना के समय ही इस पर नजर जाए तो यह ब्यूरोक्रेटिक कार्यशैली का दोष है. इस दोष का निवारण ज्योतिषी नहीं ब्यूरोक्रेसी ही कर सकती है.