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सड़क पर उतरने वाले नेताओं का साथ क्यों नहीं देते कमलनाथ?

सार

हारने के बाद भी हार ना मानने और नहीं बदलने का जज्बा अगर देखना है तो मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ की राजनीतिक यात्रा को देखना पर्याप्त होगा. वैसे तो वे कांग्रेस में राष्ट्र के सबसे बड़े नेताओं में शुमार हैं. कांग्रेस महाधिवेशन में आर्थिक प्रस्ताव रखने की जिम्मेदारी भी कमलनाथ ने निभाई है. उनके संसदीय क्षेत्र में विकास के छिंदवाड़ा मॉडल को कांग्रेस ने अपनाने की वकालत की है.

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विस्तार

समाज में आज पूरा संघर्ष बड़े और छोटों के बीच बना हुआ है. मध्यप्रदेश कांग्रेस भी शायद इसी संघर्ष से जूझ रही है. कमलनाथ इतने बड़े नेता हैं कि राज्य कांग्रेस उनके लिए छोटा मंच दिखाई पड़ रहा है. कांग्रेस के संघर्षशील युवा नेता जब भी लोकतांत्रिक लड़ाई का शंखनाद करते हैं तब कमलनाथ उनके साथ दिखाई क्यों नहीं पड़ते, कांग्रेस में यह मिथक बना हुआ है. 

ताजा मामला जीतू पटवारी के विधानसभा से निलंबन से जुड़ा हुआ है. पटवारी जो भी कर रहे हैं वह पार्टी की सक्रियता को ही दिखाता है. वैसे भी पार्टी के सेनापति को अपने सहयोगियों के साथ खड़े हुए दिखना ही चाहिए. निलंबित जीतू पटवारी के समर्थन में कांग्रेस विधायक दल द्वारा विधानसभा में अध्यक्ष के विरुद्ध पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव में कमलनाथ के हस्ताक्षर नहीं होने को पार्टी के अंदर पनप रहे अविश्वास के रूप में देखा जा रहा है. जब कांग्रेस विधायक दल को अपने एक सक्रिय सदस्य को सदन में बचाने की जरूरत थी तब कमलनाथ विधानसभा ही नहीं पहुंचे और अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर तक नहीं किए.

नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह जब सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए थे तब भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने इसी तरह का आचरण किया था. अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान कमलनाथ विधानसभा नहीं पहुंचे थे. इसकी भी व्यापक रूप से आलोचना हुई थी. राजनीतिक विश्लेषक इस सारे घटनाक्रम को आश्चर्य के साथ देख रहे हैं. जो नेता और पार्टी अगले कुछ माह के अंदर विधानसभा चुनाव में जा रही है वह पार्टी एकजुट दिखने के बजाय बंटी और बिखरी हुई दिखाई पड़ रही है.

कमलनाथ अगर सत्ता पक्ष के साथ नेगोशिएट करते तो पटवारी का निलंबन समाप्त क्यों नहीं हो सकता था? ऐसा माना जा रहा है कि जीतू पटवारी को जैसे संघर्ष के लिए अकेला छोड़ दिया गया. इसके पहले भी जब कांग्रेस में पुनर्गठन किया गया था तब जीतू पटवारी को कार्यकारी अध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया गया था. जिस पर पटवारी ने कहा था कि उनकी नियुक्ति राष्ट्रीय स्तर से की गई है, राज्य का संगठन उसको समाप्त नहीं कर सकता. मीडिया प्रभारी के पद से तो उन्हें पहले ही हटा दिया गया था.

कांग्रेस के बारे में तो वैसे भी माना जाता है कि वह कोई संगठन को समर्पित पार्टी नहीं है. यह पार्टी तो नेताओं और गुटों के समूह के रूप में काम करती है. इसकी बुनियाद परिवारवाद और वंशवाद पर टिकी हुई है. जीतू पटवारी कांग्रेस के वंशवाद की परंपरा को शायद पूरा नहीं करते हैं. इसलिए संघर्ष और जुझारूपन में सबसे आगे होने के बाद भी पटवारी को हमेशा पार्टी में पीछे ही धकेला जाता है.

कमलनाथ प्रदेश में अपनी सरकार गँवा चुके हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भी इग्नोरेंस का ऐसा ही एटीट्यूड दिखाया गया था, जिसके कारण सिंधिया ने अपनी अलग राह पकड़ ली थी और सरकार चली गई थी. ऐसा माना जा रहा था कि सरकार गंवाने का झटका और राजनीतिक हार से सबक लिया जाएगा. भविष्य में पार्टी और कार्यकर्ताओं के साथ एकजुटता दिखाई जाएगी लेकिन जीतू पटवारी का पूरा एपिसोड ऐसा बता रहा है कि कहीं कोई सबक नहीं लिया गया है. पार्टी और नेता एकजुटता की तरफ से बेपरवाह हैं और पार्टी में सिंधिया राह अभी भी बनी हुई है. बगावत की चिंगारियां अभी बुझी नहीं हैं.

मध्यप्रदेश में चुनाव के पहले तीसरे दल की सक्रियता अवश्यंभावी है. आम आदमी पार्टी सक्रिय और जुझारू नेता की तलाश में है. कांग्रेस में जिस तरह का राजनीतिक एटीट्यूड सामने आ रहा है उससे यह आशंका बलवती हो रही है कि फिर कहीं सिंधिया जैसा एपिसोड मध्यप्रदेश को देखने को ना मिले. बीजेपी भी ऐसी ख़बरों को हवा देने का काम कर ही रही होगी.

कमलनाथ की स्थिति और पार्टी में उनका दबदबा इस लेवल का है कि मध्यप्रदेश का कोई भी नेता बराबरी के साथ आंख मिलाकर उनसे बात करने की स्थिति में नहीं दिखाई पड़ता. दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के बीच का दोस्ताना रहस्यपूर्ण ढंग से समय-समय पर विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है. दिग्विजय सिंह अकेले नेता है जो कमलनाथ से बराबरी से वन टू वन बातचीत कर सकते हैं.

 कार्यकर्ताओं में दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता है लेकिन निर्णय के सारे तार कमलनाथ के हाथ में केंद्रित हैं. उनकी कार्यशैली ऐसी दिखाई पड़ती है कि उनकी अवधारणा ही अंतिम है चाहे वह सच हो या गलत हो लेकिन उन्हें समझाना कठिन काम है. पार्टी कार्यकर्ता और नेता इसी परिस्थितियों से घुटन की स्थिति में है.

कमलनाथ को राजनीतिक पहचान की जरूरत नहीं होगी. उन्होंने जीवन में सारी उपलब्धियां हासिल कर ली हैं लेकिन राज्य के कांग्रेस और युवा कार्यकर्ता अपनी और पार्टी की पहचान के लिए संघर्ष करना चाहता है. वह संघर्ष में केवल कमलनाथ का साथ चाहता है. अगर यह साथ भी नहीं मिलेगा तो फिर पार्टी के भविष्य के प्रति आश्वस्ति कैसे हो सकेगी? 

कोई भी इतिहास रचने के लिए अंगारों पर चलना पड़ता है. राजनीति में तो संघर्ष ही पार्टी को मुकाम दिलाता है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस का मुकाबला ऐसी पार्टी और नेता से है जहाँ मेहनत की पराकाष्ठा, संघर्ष और एकजुटता सबसे बड़ी ताकत है. सफलता की कामना से कुछ नहीं होगा. आज जो सफल है उसने बड़ी मेहनत की होगी. यह कविता सफलताओं और संघर्ष पर कितनी सटीक है-

जो मुस्कुरा रहा है उसे दर्द ने पाला होगा..!
जो चल रहा है उसके पांव में छाला होगा..!!
बिना संघर्ष के इंसान चमक नहीं सकता..!
जो जलेगा उसी दिए में तो उजाला होगा..!!