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सिस्टम में क्यों खत्म हो रही सुधार की इच्छा और क्षमता?

सार

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने खालिस्तान के खलनायक अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी नहीं होने पर पंजाब सरकार को कड़ी फटकार लगाई है. न्यायालय का कहना है कि क्या यह इंटेलिजेंस फेल्युअर नहीं है? अमृतपाल को भगोड़ा घोषित कर दिया गया है, इतनी सारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों को चकमा देते हुए अपराधी कैसे फरार हो सकता है? यह बात किसी को भी समझ नहीं आ रही है. जम्मू कश्मीर में एक ठग सुरक्षा घेरे में सेंसिटिव स्थानों पर घूमता पाया जाता है वहां का सिस्टम और सुरक्षा एजेंसियां उस ठग की असलियत समझ नहीं पाती हैं..!

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विस्तार

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अमृतपाल सिंह पंजाब में ही कहीं भेष बदलकर छिपा हुआ हो? जब सिस्टम खुले रूप से इस तरह का चकमा खा जाता है तो फिर छुपने के मामले में तो वैसे भी सिस्टम को कैसे पता चलेगा? मध्यप्रदेश में हायर सेकेंडरी की परीक्षाओं के पेपर लीक होने के मामले लगातार उजागर हो रहे हैं. सिस्टम की ओर से कहा जा रहा है कि पेपर लीक परीक्षा प्रारंभ होने के बाद हुए हैं इसलिए इसका परीक्षाओं पर कोई असर नहीं होगा. 

परीक्षाओं और भर्तियों के लिए होने वाली परीक्षाओं में पेपर लीक देश के सभी राज्यों में एक सक्सेसफुल व्यवसाय के रूप में स्थापित हो गया है. कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां पेपर लीक की घटनाएं नहीं हो रही हों. जहां नहीं हो रही हैं या लीक होने की खबरें सामने नहीं आ रही है वहां भी यह मानना नासमझी होगी कि सब कुछ ठीक-ठाक हो रहा है.

प्रत्येक सिस्टम में सुधार की अंतर्निहित व्यवस्था होती है. किसी भी सिस्टम में सुधार की यह व्यवस्था अगर समाप्त हो जाती है तो सिस्टम को मरने से कोई भी नहीं बचा सकता है. सरकारों के गवर्नेंस सिस्टम में सुधार की इच्छा और क्षमता समाप्त सी हो गई लगती है. गवर्नेंस में सब चीजें लिखित होती हैं. इसलिए सिस्टम कैसे काम करेगा यह जानकार लोग अंदाज लगा सकते हैं. आजकल कुछ ऐसा हो रहा है कि गवर्नेंस में एक्सपेक्टेड लाइन पर कम ही चीजें होती दिखाई पड़ती हैं. अधिकांश चीजें अनएक्सपेक्टेड लाइन पर ही हो रही हैं.

पेपर लीक के मामले क्यों नहीं रोके जा पा रहे हैं? अभी हाल ही में राजस्थान में भर्ती परीक्षा के पेपर लीक हुए थे. मध्यप्रदेश में तो पेपर लीक होने के मामले समय-समय पर आते ही रहते हैं. सिस्टम क्या इनसे अनभिज्ञ रहता है? यह कैसे माना जा सकता है कि पेपर लीक मामलों में सिस्टम के लोग शामिल नहीं होते? मध्यप्रदेश के पेपर लीक मामले में तो कई केंद्र अध्यक्षों के खिलाफ कार्रवाई हुई है. गिरफ्तारियां भी हुई हैं. क्या ऐसी व्यवस्था नहीं की जा सकती कि पेपर लीक की संभावनाएं ही ना बचें. 

सामान्य आदमी तो ऐसा मानता है कि बिना सिस्टम के इंवॉल्वमेंट के सिस्टम को ब्रेक करना किसी के भी बूते की बात नहीं होती. जब भी सिस्टम ब्रेक होता है तब यह माना जाता है कि निश्चित रूप से इसमें अंदर की व्यवस्था के सूत्र कहीं ना कहीं से शामिल हैं. यह कोई एक राज्य का मामला नहीं है, लगभग सभी राज्यों में एक जैसी घटनाएं सामने आ रही हैं.

सिस्टम में जवाबदेही का भाव कम ही बचा है. केवल जिम्मेदारी को टरकाते रहना और अपनी सर्विस को सुरक्षित रखना एकमात्र मोटो बचा है. सीमावर्ती राज्यों में जहां विदेशी साजिशों का भी सामना करना पड़ता है वहां तो सिस्टम को और अधिक सतर्क रहने की जरूरत होती है.जम्मू-कश्मीर में ठग को जिस तरह की सुरक्षा और सुविधा दी गई है उससे वहां के सिस्टम में कमजोरियों को महसूस किया जा सकता है. आए दिन वहां विदेशों से देश विरोधी तत्व घुसते पाए जाते हैं. ऐसे में बहुत ठोंक बजा कर ही किसी को सुरक्षा के दायरे में रखा जाना चाहिए.

खालिस्तान के समर्थक अमृतपाल सिंह को ऐसी स्थितियां निर्मित करने का मौका ही क्यों दिया गया? जब उसके द्वारा थाने पर हमला कर अपने साथी को छुड़ाया गया था उसके बाद से उस पर कार्यवाही में इतना विलंब क्यों किया गया? पंजाब में इसके पीछे सियासत होने की भी चर्चाएं हैं. सियासत में वित्तीय समर्थन और सहयोग लेते समय यह नहीं देखा जाता कि देने वाले का इसके पीछे उद्देश्य क्या है? एक बार जब किसी से वित्तीय सहयोग ले लिया जाता है तो फिर उसके नैतिक और अनैतिक कामों में समर्थन करना मजबूरी बन जाता है. अमृतपाल सिंह के मामले में जन धारणा पर अगर यकीन किया जाए तो ऐसा ही हुआ है.

सिस्टम चलाने वाले जन-धन से सत्ता की सियासत करने में व्यस्त हैं. व्यस्तता में कोई कमी नहीं है. जिम्मेदारों से कोई आम आदमी मिलना चाहे तो बहुत मुश्किल से ही मिलना हो सकता है. सिस्टम में छोटे से अधिकारी-कर्मचारी से भी मुलाकात चुनौती से कम नहीं होती. मस्त सिस्टम अपना समय व्यतीत कर रहा है. सिस्टम के नियंत्रक जब सुधार में अपने को अक्षम और असहाय महसूस करते हैं तो फिर विकल्पों पर बात शुरू कर देते हैं. उनका भी उद्देश्य यही होता है कि तरह तरह के विकल्प सामने लाकर किसी तरह से ज्यादा से ज्यादा समय सत्ता सुख में व्यतीत किया जा सके. चुनाव के समय बेरोजगारों को भत्ता और महिलाओं को नकद राशि देने की योजनाएं इसी उद्देश्य से लागू की जाती हैं.

इंसानी शरीर भी यदि अंतर्निहित सिस्टम से नए सेल्स जनरेट करने में अक्षम हो जाता है तो फिर शरीर का नष्ट होना सुनिश्चित हो जाता है. ऐसी ही स्थिति सरकारी सिस्टम की भी है. सरकारी सिस्टम अन्तर्निहित सुधार की प्रक्रिया के अंतर्गत स्वाभाविक रूप से सुधार की क्षमता अगर निर्मित नहीं करता तो विकल्प से सिस्टम को बहुत लंबे समय तक बेहतर बनाए रखना संभव नहीं हो सकता. दलीय व्यवस्था में किसी एक दल को या किसी एक व्यक्ति को दोष देने से काम नहीं चलेगा लेकिन व्यवस्था में सुधार की आज चरम जरूरत है.