आंदोलन लाजिमी है, पर विरोध का तरीका हिंसक नहीं होना चाहिए। महात्मा गांधी हमेशा यही कहते थे कि हिंसा से आंदोलन भटक जाता है।
मध्यप्रदेश के खुरई [सागर] में सेल्फी पाइंट तोड़फोड़ के बाद भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं में हुई सीधी भिडंत व लाठीचार्ज |इसी प्रकार रेलवे की परीक्षा में धांधली का आरोप लगाने के बाद पटना सहित बिहार के कई जिलों में छात्रों का उग्र प्रदर्शन , परिणामस्वरूप पटना में ट्रेन रोकने के बाद छात्रों पर लाठीचार्ज , उसके बाद आंदोलन का तीव्र होते हुए आरा, गया, नवादा, नालंदा, मोतिहारी समेत बिहार के कई जिलों में जा पहुंचना , ट्रेनों में आगजनी | यह सब युवाओं के तीव्र असंतोष की अभिव्यक्ति है | सवाल विरोध के इन तरीकों पर हो सकता है, पर मूल में युवाओं की उपेक्षा है |
देश में विरोध कोई आज की परंपरा नहीं है। आजादी ही हमें विरोध से हासिल हुई है। आजाद भारत में भी १९७५-७७ के आपातकाल के खिलाफ तमाम राज्यों में विरोध-प्रदर्शन हुए, क्योंकि लोग, जिनमें युवा बड़ी तादाद में शामिल थे | तत्कालीन सरकार के अलोकतांत्रिक रवैये से नाराज थे। १९९१ में जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया गया, तब भी देश भर के छात्रों ने विरोध किया। १९९० के दशक की शुरुआत में मंदिर-मस्जिद को लेकर भी पूरे देश में विरोध चलता रहा। सीएए-एनआरसी को लेकर भी लोग उबलते रहे। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमा पर तो किसानों का आंदोलन एक साल तक चला। मगर पहले प्रशासन विरोध-प्रदर्शनों से विचलित नहीं होता था। आंदोलकारियों को राष्ट्रद्रोही साबित करने की जल्दबाजी नहीं होती थी। इतने सख्त हाथों से आंदोलनों को दबाने की कोशिश नहीं की जाती थी।
बेशक, प्रशासन को आंदोलन से निपटने का अधिकार है, जिससे सार्वजनिक संपत्ति को कोई नुकसान न पहुंचे या आम जनता को असुविधा न हो, लेकिन पहले के वर्षों में आंदोलनकारियों को शांत करने के लिए लोकतांत्रिक तरीके अपनाए जाते थे। बातचीत का दरवाजा खुला रखा जाता था। लेकिन अब इसका अभाव दिखने लगा है।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि ऐसे विरोध सफल हुए हैं। अंग्रेजी हुकूमत का विरोध हमें आजादी की सौगात दे गया। आपातकाल के विरोध से सरकार बदली। मंडल आयोग का आंदोलन सुप्रीम कोर्ट तक गया और अंत में ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रावधान लागू हुआ। राम मंदिर भी अपने अंजाम तक पहुंचा। किसान आन्दोलन के बाद सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पडे़। सीएए और एनआरसी को भी विरोध के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कुलजमा, तात्पर्य यही है कि इस तरह के आंदोलन इसलिए सफल होते हैं, क्योंकि जिन मुद्दों पर ये किए जाते हैं, उनसे जनता के एक बड़े हिस्से का सरोकार जुड़ा होता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश की घटना देश के युवा मामलों का प्रतिबिम्ब है । करीब सवा लाख पदों के लिए सवा करोड़ अभ्यर्थियों ने आवेदन दिया था, यानी एक पद पर सौ गुना आवेदन आए थे, जबकि ज्यादातर भर्तियां ग्रुप डी स्तर की थीं। यह संकेत है कि देश में जबर्दस्त बेरोजगारी है। अलग-अलग राज्यों में बेरोजगारी दर ऊंची भी है। जाहिर है, छात्र नाराज हैं। उनको लग रहा होगा कि उन्होंने शिक्षा तो हासिल कर ली है, लेकिन अब नौकरी नहीं मिल पा रही।
आंदोलन लाजिमी है, पर विरोध का तरीका हिंसक नहीं होना चाहिए। महात्मा गांधी हमेशा यही कहते थे कि हिंसा से आंदोलन भटक जाता है। मगर कई बार हिंसा हो जाती है। इसकी बड़ी वजह यह है कि चूंकि इनमें बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं, तो सभी का स्वभाव एक सा नहीं होता। छात्रों का यह आंदोलन ज्यादा पुराना नहीं है, और वे इसलिए हिंसक हो उठे, क्योंकि उनको लगा होगा कि हिंसा से ही सरकार और मीडिया का ध्यान खींचा जा सकता है। दुर्भाग्य से, ऐसा हुआ भी| आंदोलनकारियों को अपनी मांग मनवाने का यह शॉर्टकट तरीका लगा होगा। जब-जब किसी आंदोलन में बड़ी संख्या में लोग हिस्सा लेते हैं, तो उसके बहकने का खतरा ज्यादा होता है।
सवाल है कि आंदोलन को हिंसक होने से रोकने के लिए सरकारों को क्या करना चाहिए? दिक्कत यह है कि जब भी विरोध-प्रदर्शन शुरू होते हैं, तब सरकारी अमला देर से पहल करता है। इसी कारण आंदोलनकारी अपना संयम खोने लगते हैं। सरकारों को यह इंतजार नहीं करना चाहिए कि आक्रामक होने के बाद ही आंदोलनकारियों से बात की जाये, क्योंकि बातचीत, विषय पर समुचित ध्यान ही समाधान का एकमात्र रास्ता है, इसलिए इसकी शुरुआत जितनी जल्दी होगी, विरोध-प्रदर्शन की आग उतनी जल्दी ठंडी हो जाएगी। एक बात और, कोई भी बड़ा जन-आंदोलन दमन से नहीं दबाया जा सकता। इतिहास भी ऐसे तरीकों को गलत साबित कर चुका है।