अंग्रेजों के काले कानून ... भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 7


स्टोरी हाइलाइट्स

आज़ादी की गाथा .. अंग्रेजों के काले कानून ...

भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 7

British black law Part 7
विश्वयुद्ध के दौरान भारत शासन ने संकटकालीन शक्ति अधिगृहीत कर ली थी परंतु जब युद्ध समाप्त हो गया तब अंग्रेजों ने इसमें से कुछ शक्ति को इस आधार पर बनाये रखा कि क्रांतिकारी अब भी सक्रिय हैं। यह कार्य 'रोलेट-एक्ट' पारित कर, किया गया। रोलेट एक्ट को काला कानून भी कहा जाता था, इसकी वजह भर में असंतोष फैल गया। जब लोकतंत्र से लड़ा जाने वाला युद्ध जीत लिया गया तब भारत पर निरंकुश कानून लाद दिये गये और यह अंग्रेजों के प्रति स्वामी भक्ति दिखाने तथा सहायता करने का पुरस्कार था। शीघ्र ही महात्मा गांधी द्वारा किये गये आह्मान के फलस्वरूप पूरे देश में रोलेट-एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह शुरू हो गये।

महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका की जाति भेद वाली गोरी सरकार के विरुद्ध अपने देशवासियों में अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने के बाद एक प्रख्यात व्यक्ति के रूप में भारत लौटे थे (1915)। उन्होंने भारत में भी सत्याग्रह का सफलतापूर्वक प्रयोग किया था, परंतु उन्होंने उसका प्रयोग चम्पारण और खेड़ा में किसानों को संगठित कर तथा अहमदाबाद में औद्योगिक कर्मियों को संगठित करने के लिए स्थानीय स्तर पर किया था रोलेट

सत्याग्रह के साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य पर उभरकर सामने आ गये। इस मौके पर गांधीजी द्वारा अपनाया गया मार्ग जहाँ सरल श वहीं क्रांतिकारी भी था। उनका तर्क था कि भारत में अंग्रेज इसलिये हैं कि भारतवासी उनके साथ सहयोग करते हैं। इस सहयोग का आधार डर था। यदि एक बार भारतवासी सहयोग करना बन्द कर दें तो अंग्रेज सन की बुनियाद ही खत्म हो जाएगी परंतु ऐसा कुछ होने के लिए भारतीयों को अपने डर से उबरना होगा। एक तरीके से यह उस तरीके को लगातार अपनाये रहना था जिस तरीके से गरम-दल वालों ने स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की बात को जोर देने के लिए भारतवासियों को प्रेरित किया था।

बहरहाल एक महत्वपूर्ण दृष्टि से गांधी जी का तरीका अलग था। उनके लिए अहिंसा कोई रणनीति या तात्कालिक आवश्यकता नहीं थी। उनके लिये अहिंसा सिद्धान्त की बात थी। वे लक्ष्यों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के माध्यम की एकता में विश्वास करते थे। चूँकि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गलत माध्यम को उचित नहीं ठहराया जा सकता था, हिंसा गलत माध्यम थी। हिंसा से हिंसा का ही जन्म हो सकता था। इसके विपरीत सत्याग्रह में आत्मपीड़न शामिल था और इससे विरोधी की मानवीय भावनाओं को जगाने की कोशिश की जाती थी। विरोधी को उत्पीड़ित करने की कोशिश के बजाय सत्याग्रही उनके हृदय परिवर्तन की कोशिश करते थे।

गांधी जी का यह विश्वास था कि स्वराज्य का मतलब अंग्रेज शासकों की जगह भारतीय शासक बिठा देना मात्र न हो जाय। स्वराज्य वह है जिसमें गरीब और उत्पीड़ित लोगों के हित सुरक्षित रहे। उन्होंने अपने आपको समाज के शोषित, पीड़ित वर्गों के साथ भावनात्मक रूप से एक कर लिया था। इसी वजह से महिलाओं, हरिजनों और दरिद्र नारायण के प्रति उनकी चिंता प्रमुख थी। इस तरह वे लिंग-जाति या वर्ग किसी पर भी आधारित शोषण के सभी रूपों के खिलाफ थे। वह गंभीर रूप से धार्मिक व्यक्ति थे उन्होंने अछूतों को हरिजन और गरीबों को दरिद्र नारायण बताकर संबोधित किया था अपने आपको उनकी सेवाओं के प्रति समर्पित कर दिया।

सूत कातने को गांधी जी द्वारा महत्व दिये जाने में भी गरीबों के प्रति उनकी चिंता प्रतिबिम्बित होती थी। उनके लिए चरखा स्वतंत्रता का प्रतीक था, वह स्वदेशी का एक स्वरूप था, बहिष्कार के साथ मिलकर चरखा स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त करेगा, परन्तु गांधी जी द्वारा प्रतिपादित स्वदेशी उनके पहले के राष्ट्रवादियों द्वारा प्रस्तावित स्वदेशी से सिद्धान्त रूप में अलग था चरखे के द्वारा लाई गई आत्म-निर्भरता कुटीर उद्योगों की आत्मनिर्भरता होगी, न कि बड़े-बड़े उत्पादकों की आत्मनिर्भरता। 

इससे भारत के करोड़ों लोगों की गरीबी हटेगी और इससे साम्राज्यवाद को घातक धक्का पहुँचेगा। गांधी जी ने चरखा के अलावा भारतीय समाज के सुधार के लिए एक विस्तृत रचनात्मक कार्यक्रम प्रतिपादित किया स्पष्ट है कि उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं थी। यदि हम 1919 की ओर लौटे तो देखते हैं कि देश में महात्मा गांधी द्वारा रोलेट-एक्ट के खिलाफ किये गये आह्मन का उत्साह के साथ स्वागत किया गया। छुटपुट हिंसक घटनाओं को छोड़कर लोग आमतौर पर अहिंसक बने रहे, परंतु शासन की बात अलग थी। अमृतसर में जब जलियाँवाला बाग में हजारों नर-नारियाँ शांतिपूर्वक एकत्र थे तब जनरल डायर ने कत्लेआम मचा दिया।

पूरा देश सकते में आ गया। गांधीजी को यह विश्वास हो गया कि अंग्रेज राज्य शैतानी था, इसी मौके पर युद्ध के बाद शांति समझौता के रूप में तुर्की साम्राज्य को बांट दिया गया। इससे भारतीय मुसलमानों की भावनाओं को धक्का लगा क्योंकि उनमें से अधिकांश के लिए तुर्की के सुल्तान को खलीफा थे और अन्ततः जब मांटेग्यू द्वारा वायदा किये गये सुधार आए तो भारतीयों ने उन्हें अपर्याप्त, असंतोषजनक तथा निराशाजनक पाया यह सुधार 'मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड-सुधार' (1919) के रूप में जाने जाते हैं।

यह वह परिस्थितियाँ थीं जिनमें महात्मा गांधी ने अगस्त 1920 में अहिंसक असहयोग आंदोलन शुरू किया, उन्होंने खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देकर मुसलमानों के साथ एकजुटता बताई। लोगों से कहा गया कि वे अदालतों और विधान परिषदों का बहिष्कार करें, अपनी उपाधियों को, अवैतनिक नियुक्तियों और स्थानीय संस्थाओं में नामांकित पदों का त्याग करें। सरकारी शालाओं और सरकार से सहायता प्राप्त शालाओं में पढ़ रहे अपने बच्चों को न जाने दें और शराब तथा विदेशी कपड़ा बेचने वाली दुकानों के सामने प्रदर्शन करें। एक स्वतंत्र नीति की स्थापना की गई और लोगों से कहा गया कि वे उसमें योगदान दें। चरखा के माध्यम से स्वदेशी को बढ़ावा देने पर बहुत जोर दिया गया। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की आवश्यकता पर भी बहुत बल दिया गया। असहयोग के आह्वान के प्रति लोगों का प्रतिउत्तर अभूतपूर्व था, विभिन्न वर्गों के सैकड़ों-हजारों लोगों ने अपने आपको पुलिस के हवाले किया, इनमें महिलायें भी शामिल थीं जो कि स्वतंत्रता के आंदोलन की अहिंसक सैनिक बनने के लिए युग-युगीन अलगाव को छोड़कर पहली बार घर से बाहर आई थीं। इस स्थिति को देखकर सरकार को आश्चर्य हो गया। उसकी जेलों में कैदी रखने की जगह नहीं बची और उसके यह समझ में नहीं आया कि सत्याग्रहियों की इस अनवरत श्रृंखला का वे क्या करें। सन् 1921 के अंत में जाकर यह लोगों का उत्साह

कुछ कम होना शुरू हुआ। इसके साथ ही हिंसा की कुछ छुटपुट घटनायें भी हुई। फरवरी 1922 में महात्मा गांधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया। यह उन्होंने तब किया जबकि गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा पुलिस थाने को एक क्रुद्ध भीड़ ने आग लगा दी जिससे 22 आदमी (पुलिसकर्मी) जिन्दा जल गए थे। चूँकि आंदोलन को वापस लेना इतना आकस्मिक था कि कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेता भी आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने गांधी जी की इस बात के लिए आलोचना की कि इससे जनता के साथ धोखा हुआ है, परंतु गांधीजी आश्वस्त थे कि देश हिंसक आंदोलन के लिए तैयार नहीं था। उन्हें इस बात का बहुत दुःख था और वे महसूस कर रहे थे कि इस आंदोलन को संचालित कर उनकी ओर से एक भयानक गलती हुई है।

गांधी जी द्वारा की गई आत्म भर्त्सना के बावजूद असहयोग आंदोलन को कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त हुई थीं। पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन जनता का आंदोलन बना था। अब कांग्रेस सिर्फ मध्यवर्गीय लोगों तक की संस्था नहीं रही। दो वर्ष के त्याग और संघर्ष के बाद लोगों को भले ही स्वराज न मिला हो, पर वे उसकी उपलब्धि के निकट बढ़े थे।
असहयोग आन्दोलन को तत्काल वापस लिये जाने के बाद भविष्य कोई मुखद प्रतीत नहीं होता था। गांधीजी को कैद कर लिया गया था और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना के अंतर्गत विधान परिषदों के चुनाव लड़े जाने के मामले को लेकर कांग्रेस के भीतर मतभेद उत्पन्न हो गए। एक समूह ने, जो कि स्वराज्यवादी कहलाता था, इस तर्क पर चुनाव में हिस्सा लिया कि परिषदों को उन्हें भीतर से तोड़ने के उद्देश्य से परिषदों के भीतर असहयोग चलाया जा सके। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर गहरी काली छाया पड़ गई क्योंकि बहुतेरे स्थानो पर साम्प्रदायिक दंगे होना शुरू हो गए।

वर्ष 1927 के अंतिम चरण में जब भारत में संवैधानिक स्थिति की समीक्षा करने के लिए बिना किसी भारतीय सदस्य के 'साइमन कमीशन' की नियुक्ति की घोषणा की, तो एक बार फिर देश में राजनीतिक गतिविधियाँ बहुत तेज हो गई। अधिकांश भारतीय दलों ने इस आयोग का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। इसी वक्त हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों को दूर कर एक ऐसी योजना बनाने की कोशिश की गई जो कि दोनों समुदायों के लोगों को स्वीकार्य हो सके। कलकते में (1928) सर्वदलीय सम्मेलन में जब यह कोशिशें अंतिम रूप से असफल हो गई तो हिन्दू-मुस्लिम एकता को गहरा धक्का पहुँचा।

इसी बीच कांग्रेस के भीतर आमूल सुधारवादी शक्तियों मजबूत होने लगी। इन शक्तियों ने पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस के मूल सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करने पर दबाव डालना शुरू किया। लाहोर में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में (1929) कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें सफलता मिली। पूर्ण स्वराज्य प्रस्ताव के कारण 26 जनवरी को पूरे देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया।

अब परिस्थितियों सविनय अवज्ञा आन्दोलन के अनुकूल थीं। ये आंदोलन गांधीजी द्वारा की गई डांडी यात्रा से शुरू हुआ, यह यात्रा महात्मा गांधी द्वारा नमक बनाकर सरकार की नमक के एकाधिकार की नीति को उल्लंघन कर सम्पन्न हुई। यह बात देश भर में लाखों नर-नारियों के ना कर दिये नमक बनाने, विदेशी चीजों का बहिष्कार करने और सार्वजनिक हड़ताल आयोजित क ने के लिए संकेत थी। सरकार अचरज में थी, एक ओर तो उसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे दृढ़ निश्चयी युवकों द्वारा

की जाने वाली क्रांतिकारी स्थिति से निपटना था और दूसरी ओर सम्पूर्ण रूप से दृढ़ निश्चयी और बहुत बड़ी संख्या वाले गांधीवादी सत्याग्रहियों से निपटना था सरकार ने आतंक का राज्य फैला दिया किन्तु उसकी सत्ताअक्षत नहीं रह सकी। आखिरकार वायसराय इरविन को महात्मा गांधी के साथ समझौता वार्ता करने पर बाध्य होना पड़ा।

'गांधी-इरविन समझौता' (1931) से आंशिक रूप में सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया गया और भारत में संवैधानिक भविष्य पर चर्चा करने के लिए आयोजित 'गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए महात्मा गांधी लन्दन गए, वे जब सम्मेलन से लौटे तो उन्हें फिर से कारावास दे दिया गया उन्हें इस बात का पूरा यकीन हो गया था कि अंग्रेज लोग भारत पर अपना अधिकार जमाये रखने के उद्देश्य से भारतीय समाज के भीतर व्याप्त वर्ग मतभेदों का फायदा उठाने पर तुले हुए हैं। अन्ततः भारत शासन कानून (1935) पारित किया गया। कांग्रेस ने चुनाव में हिस्सा लिया और 6 प्रांतों में मंत्रिमण्डल गठित किये (1937)। दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने पर (1939-45) इन मंत्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिये जबकि अंग्रेजों ने बिना भारतीय जनमत से चर्चा किये हुए भारत को युद्ध में भागीदार बना दिया था।