भोपाल: जंगल की अपनी खास भाषा होती है। हर सुबह पक्षियों का कलरव, वृक्षों की सरसराहट, घास और पत्तों के बीच से अपना रास्ता बनाकर जा रहे वन्यजीवों की आहट, हवाओं का रह-रह कर आरोह और अवरोह भरा निनाद, फिर गर्मी भरी दोपहरी का कभी-कभी पसर जाने वाला सन्नाटा और शीतकाल में उसी सन्नाटे को चीरती हुई कुनकुनी धूप में ऊंघते-विचरते जीवों की चहलकदमी, इसके बाद झींगुरों के वृंदगान से शाम के होने का संकेत और फिर वो रात, जो किसी दहाड़ से गुंजायमान होती है।
पन्ना टाइगर रिजर्व के विशाल वन के मन की धड़कनों को फिलहाल गौर से सुनिए। उसमें पन्ना का हीरा खो जाने का दर्द आप साफ़ महसूस कर सकेंगे। ये हीरा वो टी-02 बाघिन है, जो 14 साल की अवधि तक इस टाइगर रिजर्व की शान बनी रही और बीती 28 मई को हमेशा के लिए शांत हो गई। टी-02 के लिए 'पन्ना का पारस पत्थर' वाला संबोधन कतई गलत नहीं होगा। क्योंकि उसके इस जगह पर आने के बाद बाघों की संख्या के लिहाज से न्यूनतम वाली स्थिति में आ चुके इस टाइगर रिजर्व को इस वन्य प्राणी के कुनबे में उत्साहजनक वृद्धि वाला वरदान मिल गया। लंबे समय से इस क्षेत्र में सेवाएं दे रहा वन विभाग का अमला उस दिन को कभी नहीं भूल सकता, जब आसमान में भारतीय वायुसेना के विमान की गड़गड़ाहट ने अपने साथ लाई जा रही टी- 02 के आगमन की मानो मुनादी कर दी थी। तब आसमान के रास्ते से केवल यह बाघिन ही नहीं, बल्कि उन दुआओं का असर भी उतरा था, जो इस चिंता से प्रेरित थीं कि इस क्षेत्र में बाघ की प्रजाति विलुप्त हो रही है।
यह दर्दनाक तथ्य वर्ष 2008 में हर वन्य प्रेमी को सालने लगा था और साल 2009 में टी-02 की आमद से निराशा के उस माहौल में आशा का संचार होने लगा था। भले ही इस बाघिन को लाने की योजना को 'बाघ पुनर्स्थापन' नाम दिया गया, लेकिन कालांतर में स्पष्ट हो गया कि टी-02 ने इस क्षेत्र को बाघ पुनरागमन के अनुपम उपहार दे दिए। सभी ने इस बाघिन को भरपूर सत्कार दिया और उसे सुखद जोड़ी वाला प्यार दिया टी-03 बाघ ने। सात लिटर में 21 बाघों को जन्म देकर टी-02 ने पन्ना की दम तोड़ती उम्मीदों को जीवनदान दे दिया। उसकी चार पीढ़ियों से इस टाइगर रिजर्व में 85 बाघों की उपस्थिति दर्ज की गई।
टी-02 ने इस इलाके के बहुत बड़े भाग को अपनी टेरिटरी बनाया और इस भौगोलिक सीमा से बहुत अधिक आगे जाकर वन विभाग के स्टाफ सहित सैलानियों के दिल में भी उसने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज की। पहली बार पन्ना आने वाले सैलानी भी 'टी-02 कहां है? कब देखने मिलेगी?' कुछ इस व्यग्रता के साथ पूछते थे, मानों कि इस बाघिन से उनकी बहुत पुरानी पहचान हो। वन विभाग के अमले के लिए यूं भी एक-एक वन्यजीव उनकी अपनी संतानों की तरह अजीज होता है, उस पर टी-02 में तो सभी की जान बसती थी। वैसे य यहां केवल 'थी' कहना गलत होगा। क्योंकि टी-02 सभी के दिलों में थी, है और रहेगी भी। उसकी दहाड़ शांत हो गई है, लेकिन उसकी मूक स्मृति उसके चाहने वालों के मन में हमेशा हलचल मचाती रहेगी।
टी-02 को परमेश्वर ने भी दीर्घायु का आशीर्वाद दिया। वह 19 साल तक जीवित रही, जो किसी फ्री रेंजिंग बाघ के लिए अधिकतम जीवनकाल माना जाता है। इस बड़े जीवनकाल को उसने अनगिनत छोटी-बड़ी यादगारों से अमर बना दिया। जंगल की अपनी ख़ास भाषा होती है और हम उस भाषा का तिलिस्म न भेद पाने की नाकामी के बावजूद जंगल के सुर में सुर मिलाकर यही कहना चाहते हैं कि 'पन्ना का हीरा कहाँ खो गया?'