मुक्ति के लिये दो घड़ी भी पर्याप्त, जानिए राजा खटवांग की दो घड़ी मे मुक्ति का रहस्य.. दिनेश मालवीय

स्टोरी हाइलाइट्स
मुक्ति के लिये दो घड़ी भी पर्याप्त हैं,जानिये राजा खटवांग की दो घड़ी मे मुक्ति का रहस्यगणितज्ञजी ने क्या कमाल किया..राजा खटवांग की दो घड़ी मे मुक्ति का रहस्य
मुक्ति के लिये दो घड़ी भी पर्याप्त, जानिए राजा खटवांग की दो घड़ी मे मुक्ति का रहस्य.. दिनेश मालवीय
मुक्ति के लिये दो घड़ी भी पर्याप्त हैं,
जानिए राजा खटवांग की दो घड़ी मे मुक्ति का रहस्य,
गणितज्ञजी ने क्या कमाल किया.. जानिए
आज हम अध्यात्म के एक बहुत गूढ़ विषय पर दो कथाओं के माध्यम से चर्चा करेंगे। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि- " कोटि कोटि मुनि जतन कराहीं, अंत राम कह आवत नाहीं " अर्थात ऋषि मुनियों तक के मुख पर करोड़ो जतन करने पर भी अंत समय मे राम का नाम नहीं आता। यानी वे ईश्वर का चिन्तन नहीं कर पाते। इसका तात्पर्य यह है कि यदि अंत समय मे ईश्वर का ध्यान आ जाये तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
किसी के लिये जन्म - जन्म तक साधना करने पर भी ऐसा सुअवसर नहीं आता, तो किसी को एक पल में ही मुक्ति मिल जाती है। अनेक साधक ऐसे होते हैं, जो बाहरी कर्मकाण्ड और अनुष्ठान भले ही न करें, लेकिन ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा और भक्ति रखते हैं। जीवन के अंतिम क्षणों मे उन्हें ईश्वर के ध्यान में कोई बाधा नहीं आती। इसके विपरीत अनेक लोग ऐसे होते हैं, जो बाहरी पूजा पाठ और अनुष्ठान तो ख़ूब करते हैं, लेकिन ईश्र मे उनकी निष्ठा पूर्ण नहीं होती। उन्हें अंत समय मे ईश्वर का ध्यान नहीं हो पाता। सच्ची भक्ति और निष्ठा के महत्व को निरूपित करने के लिये पुराणों मे सुंदर कथायें मिलती हैं।
एक गणितज्ञ थे, जो कभी राम का नाम नहीं लेते थे। परिवार और मित्रजन उनसे राम का नाम लेने के लिए कह कहकर हार गये, लेकिन गणितज्ञ महाशय पर कोई असर नहीं हुआ। उनके परिवार के लोग और मित्र बेचारे यह नहीं जानते थे कि गणितज्ञ जी भीतर से ईश्वर के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे। उनके जीवन का अंत समय आने पर वह अपने घर के पूजा कक्ष मे गये। उनके पीछे पीछे सभी लोग उत्सुकतावश पहुँच गये। गणिताचार्यजी ने एक बार राम बोलकर कहा कि एक गुणित करोड़। सबके देखते उनके मुखमण्डल पर एक अलौकिक तेज आ गया। उन्होंने बहुत शांत मुद्रा में ईश्वर के सामने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया। यानी उन्हें कुछ ही क्षणों में मुक्ति मिल गयी।
इसी विषय पर भागवतजी मे एक सुंदर कथा आती है। अभिमन्यु पुत्र राजा परीक्षित को ऋषि ऋंगी ने शाप दे दिया कि ठीक सातवें दिन तक्षक नाग के डसने से उनकी मृत्यु हो जाएगी। परीक्षित ने मृत्यु को निश्चित मानकर बहुत सारा दान किया और पुत्र जनमेजय को राज्य सौंप दिया। उनके मन में यह भाव रहा कि जीवन के बचे सात दिनों को किस तरह सार्थक किया जाये। उन्होंने इस विषय में अनेक ऋषि मुनियों से परामर्श किया। किसी ने उन्हें जप करने की, किसी ने प्राणायाम की तो किसी ने तप करने की सलाह दी। लेकिन ये सभी साधनाएं समय की माँग करती थीं,जबकि परीक्षित के पास सिर्फ सात दिन थे।
व्यास पुत्र शुकदेव उनके लिये भागवत सप्ताह करने के लिए सहमत हो गये। राजा परीक्षित ने शंका व्यक्त की कि एक सप्ताह के अल्प समय में उन्हें किस प्रकार मुक्ति मिलेगी। उनकी शंका का एक कथा के माध्यम से निवारण करते हुए शुकदेव जी ने उन्हें बताया कि सात दिन तो बहुत अधिक हैं, मुक्ति के लिये दो क्षण ही पर्याप्त हैं। परीक्षित के जिज्ञासा करने पर शुकदेवजी ने उन्हें अयोध्या नरेश राजा खट्वांग की कथा सुनाई। वह त्रेता युग में अयोध्या पर राज करते थे। एक बार राक्षसों ने इंद्रलोक पर आक्रमण कर देवताओं को वहाँ से निकाल दिया। देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं को अपना राज्य वापस पाने के लिये राजा खट्वांग की सहायता लेने का सुझाव दिया।
देवगण मृत्यु लोक मे आये और राजा खटवांग से सहायता का अनुरोध किया।
उनकी समस्या का समाधान देवर्षि नारद ने किया। उन्होंने परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनने की सलाह दी। राजा की सहायता से देवताओं ने अपना खोया राज्य फिर से प्राप्त कर लिया। जब राजा खटवांग ने लौटने के लिये विदा माँगी, तब इंद्र ने उनसे कुछ माँगने को कहा। राजा ने सोचा कि जिनकी मदद कर मैंने राज्य वापस दिलाया, उनसे कुछ क्या माँगना। देवराज ने कहा कि, हमें भूत और भविष्य की सभी जानकारी होती है, लिहाजा कुछ माँगिए। खटवांग ने अपने बुढ़ापे का विचार कर यह पूछा कि उनके जीवन का कितना समय शेष बचा है।
देवराज ने ध्यान लगाकर बताया कि आपके जीवन मे मात्र चार घड़ी शेष रह गयी हैं। यह सुनकर राजा ने कहा कि ऐसी स्थिति मे आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि आप मुझे इसी क्षण अयोध्या पहुँचा दें। मैं शेष बचे समय का उपयोग मोक्ष के लिये करना चाहता हूँ। देवताओं ने एक तेज़ गति वाले विमान से उन्हें दो घड़ी मे आयोध्या पहुँचा दिया। राजा जीवनभर प्रभुभक्ति मे रहा था। उसने अयोध्या पहुँचते ही पुत्र को राज्य सौंप कर सन्यास ले लिया। वह सरयू नदी के तट पर गया और ईश्वर के ध्यान मे मग्न हो गया। उसने योग द्वारा प्राण त्याग कर वैकुण्ठ की प्राप्ति की। इस तरह उसने दो घड़ी मे ही जीवन की परम अवस्था प्राप्त कर ली। इन दो कथाओं से यही सीख मिलती है कि यदि आप आंतरिक रूप से ईश्वर से पूरी निष्ठा से जुड़े हों, तो मुक्ति पाने कज लिये दो घड़ी ही पर्याप्त हैं।
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