प्रथम पूज्य श्रीगणेश और उनसे जुड़े प्रसंगों की श्रंखला-दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

प्रथम पूज्य श्रीगणेश और उनसे जुड़े प्रसंगों की श्रंखला -दिनेश मालवीय भारत में इसी माह दस दिन का श्रीगणेश उत्सव शुरू होने वाला है. “न्यूज पुराण” इन प्रथम पूज्य सर्वमान्य देवता के व्यक्तित्व और उनसे जुड़े विभिन्न प्रसंगों के विषय में एक श्रंखला का श्रीगणेश करने जा जा रहा है. इससे पहले परम रामभक्त हनुमानजी पर जो श्रंखला प्रकाशित की गयी थी, उसे पाठकों का बहुत उत्साहजनक प्रतिसाद मिला. इसीसे प्रोत्साहित होकर अब श्रीगणेश श्रंखला प्रारम्भ की जा रही है. आशा है, इससे हमारे देश-विदेश में रहने वाले पाठकों को इन महान देवता के विषय में उपयोगी ज्ञान प्राप्त होगा और उनमें उनके प्रति श्रद्धा भक्ति और बढ़ेगी. इस श्रंखला के लेखन में प्राचीन ग्रंथों और फुटकर रूप से उपलब्ध श्रीगणेश के सम्बन्ध में उपलब्ध सभी जानकारी का समावेश किया गया है. जय श्रीगणेश. पंचदेवों में शामिल प्रथम पूज्य श्री गणेश सनातन धर्म में पंचदेवों की पूजन का विधान किया है. इनमें प्रथम पूज्य श्रीगणेश का प्रमुख स्थान है. पंचदेवों में चार अन्य हैं श्रीविष्णु, श्रीशिव, देवी दुर्गा और सूर्यदेव. यहाँ तक कि अद्वैत वेदान्त के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता आदि शंकराचार्य ने भी देश में पंचदेव पूजन का प्रसार किया. श्रीगणेश सर्वरूप हैं. “गणेश” शब्द का अर्थ है- जो सभी जीव-जाति के स्वामी हों. वह विघ्नहर्ता हैं. किसी भी शुभ कार्य के निर्विध्न सम्पन्न होने के लिए सनातन धर्म परम्परा में श्रीगणेश की सबसे पहले पूजा करने का विधान है. इसके बिना कोई शुभ कार्य सम्पन्न ही नहीं होता. भारत के प्राचीन साहित्य में श्रीगणेश के आठ नामों का उल्लेख मिलता है- 1. गणेश 2. एकदंत 3. हेरम्ब 4. विघ्नविनाशक 5. लम्बोदर 6. शूर्पकर्ण 7. गजवक्त्र और 8. गुहाग्रज. अमरकोश में इनके अलावा उनके “विनायक” और “द्वेमातुर” नामों का भी उल्लेख है.ये सभी नाम उनके किसी न किसी गुण के परिचायक हैं.बाकी नामों के अर्थ तो अधिकतर लोगों को बहुत स्पष्ट हैं, लेकिन “हेरम्ब” और “गुहाग्रज” नाम अल्पज्ञात हैं. “हेरम्ब” का पहला अक्षर ‘हे’ दैन्य या अभाववाचक तथा ‘रम्ब’ शब्द दीन या भक्तों का पालन करने वाला है. इसी तरह, ‘गुहाग्रज’ का अर्थ है जो गुह-स्वामी कार्तिकेय से पहले जन्म लेकर शिव के भवन में आविर्भूत हुए और सभी देवताओं में अग्रपूज्य हैं. श्रीगणेश के अद्भुत स्वरूप को देखकर अनेक लोग इसके प्रतीकात्मक अर्थ न जानने के कारण बहुत से प्रश्न और जिज्ञासाएँ करते हैं. श्रीगणेश से जुडी हर बात में कोई गूढ़ तत्व और अर्थ निहित है. उनका शरीर बहुत मोटा है, उनका पेट बहुत बड़ा है, कान भी बड़े हैं और उनकी सूंड भी बहुत बड़ी है. उनकी इतनी बड़ी काया के लिए मूषक जैसा छोटा-सा वाहन है. ये सभी बातें लोगों की जिज्ञासा का कारण हैं. संतों ने समय-समय पर इन जिज्ञासाओं को शांत किया है. इन सबके पीछे गूढ़ अर्थ निहित हैं. वह सर्वमंगल करने वाले हैं. बड़े पेट का तत्वार्थ है कि उनमें बात को पचाने की बहुत क्षमता है. इससे यह सन्देश दिया गया है कि व्यक्ति को गहरे पेट का होना चाहिए. सबकी सुनना चाहिए लेकिन जो बात प्रकट करने की हो वही प्रकट करनी चाहिए. बाकी को पचा जाना चाहिए.जो व्यक्ति उनके इस गुण को आत्मसात कर लेता है, उसकी सफलता में कोई संदेह नहीं है. बड़े कान हैं, जिसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अपने आसपास क्या घट रहा है, उसके प्रति सजग रहना चाहिए, मुँह के ऊपर सूंड बनी है, यानी सुनना तो अधिक से अधिक चाहिए, लेकिन बोलने पर बहुत नियंत्रण रखना चाहिए. जहाँ तक मूषक की सवारी का सवाल है तो इसका तत्वार्थ यह यह है कि मूषक का स्वभाव वस्तु को कुतर डालता है. ऐसा ही कुतर्क करने वाले लोग होते हैं. कोई भी बात की जाए, वे उसे कुतर्क के द्वारा काटने की कोशिश करते हैं. श्रीगणेश मूषक, यानी कुतर्की स्वाभाव पर सवारी करते हैं, यानी उसे पूर्ण नियंत्रण में रखते हैं. बहुत कम लोग जानते हैं कि एक “गणेश गीता” भी है, जिसमें श्रीगणेश ने अपने भक्त वरेण्य को अपने स्वरूप का परिचय दिया है. इसमें वह कहते हैं कि श्रीशिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और मुझ गणेश में जो अभेद्बुद्धिरूप योग है,उसीको मैं सम्यक योग मानता हूँ. मैं ही महाविष्णु हूँ, मैं ही सदाशिव हूँ, मैं ही महाशक्ति हूँ और मैं ही सूर्य हूँ. श्रीगणेशोत्सव के अनेक रूप और रंग देश के विभिन्न प्रान्तों में देखने को मिलते हैं, जो वहाँ की स्थानीय देश, काल परिस्थिति के अनुसार होते हैं. ब्रिटिश गुलामी से देश को आजाद कराने की दृष्टि से जन-जागरूपता लाने और लोगों को अपने घर से बाहर आकर अपनी संस्कृति के विभिन्न स्वरूपों के दर्शन करवाने के लिया लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में श्रीगणेश का सार्वजनिक उत्सव प्रारम्भ किया. पहले घरों में ही उनकी छोटी-सी प्रतिमा प्रतिष्ठित कर उत्सव के बाद उसके विसर्जन की परम्परा थी. यह परम्परा भी अभी जारी है. लोग उनकी प्रतिमा घरों में उन्हें बहुत श्रद्दधा के साथ लाकर प्रतिष्ठित करते हैं. कोई डेढ़ दिन, कोई ढाई दिन, कोई सात दिन तो कोई दस दिन तक उनके इस विग्रह का सुबह-शाम पूजन अर्चन कर फिर उन्हें किसी जलाशय में विसर्जित कर देते हैं.  धीरे-धीरे तिलक द्वारा शुरू किया गया सार्जनिक गणेशोत्सव सम्पूर्ण भारत में लोकप्रिय होता चला गया. अब हर प्रान्त में यह बहुत धूम-धाम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. इस बार कोरोना प्रकोप के चलते श्रीगणेश उत्सव पहले जैसे भव्यता से मना पाना संभव नहीं होगा. लेकिन हमें पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ उनकी आराधना कर विश्व को इस कोरोना असुर से मुक्त करने की प्रार्थना करनी चाहिए. श्रीगणेश दुष्ट दलन और भक्तों का पालन करने वाले हैं. वह निश्चित ही इस दैत्य को भी समाप्त कर देंगे. जय श्रीगणेश.