ब्रह्माँड के रहस्य -45....यज्ञ विधि -3


स्टोरी हाइलाइट्स

ब्रह्माँड के रहस्य -45  यज्ञ विधि -3 mysteries-of-brahmand-45-yajna-method-3

रमेश तिवारी  पिंड (मनुष्य) जो देवता बनने जा रहा है, तो सबसे पहले उसके सभी संस्कार भी तो देवमयी होना चाहिए। देवताओं में मिलने की पात्रता प्राप्त करना ही यजमान की प्रथम वरीयता है। तो यज्ञ के यजमान को सबसे पहले मेध्य (पवित्र) बनाने के लिए कुछ विधियों से गुजरना पड़ता है। वैदिक ग्रंध निर्देश देते हैं कि सबसे प्रथम यजमान के शरीर की सभी मृत और अपवित्र चीजों यथा- नाखून, केश, लोम और श्मश्रु काटे जाने चाहिए। किंतु यह क्रिया भी देवोचित ही होगी। मनुष्य के कार्यों के उलट देवों की प्रक्रियायें यजमान को भी अपनानी होती है। पूरा भूतसर्ग पानी, वायु, सोम इन तीन भागों में बंटा हुआ है। शरीर में चेतना का संबंध इन्ही तीन पदार्थों से होता है। शरीर में जहां यह चेतना है वहां का भाग पवित्र होता है और नाखून, केश, लोम और श्मश्रु में चेतना नहीं होती| इसलिए यह अपवित्र होते हैं, यज्ञ पूर्वक इनको साफ किया जाता है। किंतु कैसे ? इनका भी विज्ञान है, क्योंकि इनमें प्राण नहीं है। इनके काटने से दर्द नहीं होता इसलिए सबसे पहले नाखून काटे जाते हैं। स्वर्ग वासी देवता, दाहिने हाथ के नाख़ून और उसमें भी पहले अंगुठे के नाखून को काटते हैं| यही प्रक्रिया मनुष्य को भी अपनानी होती है क्योंकि मनुष्य पहले बांये हाथ की कनिष्ठ ऊंगली का नाखून काटता है। इसी प्रकार सिर के बाल और लोम तथा श्मश्रु भी देवोचित प्रक्रिया से काटने होते हैं। ब्रह्माँड के रहस्य-45 नापित (नाई) पहले दाहिनी ओर से ही यजमान के बाल काटता है। क्योंकि देवताओं की विधि ऐसी ही थी और खास बात यह भी कि मनुष्य खुले में बाल उतरवाता है किंतु इसमें एकांत में बाल कटवाना होता है। इन बालों को पानी में डाला जाता है। बाल काटने की विधि कहती है कि छुरा और बालों के मध्य जल लगाकर हरी दूर्वा रखी जाती है। पानी इसलिये लगाते हैं क्योंकि छुरे के घर्षण से अग्निन पैदा होती है,और जल अग्निन को शांत करता है। कहते हैं कि, जल वज्र है "वज्रो हि वा आप:" बालों को काटने के पूर्व जब जल लगाया जाता है, तो मंत्र बोला जाता है| "प्रह देवी" आप, मेरे लिये शांति देने वाले बनें इसीलिए इसे शांति रापः भी कहा जाता है, इसी कारण आप जल को कहते हैं कि क्षौर कर्म के पश्चात यजमान को स्नान कराया जाता है, इसलिए तो यजमान को स्नान कराना भी एक पवित्र विज्ञान है। मनुष्य अमेध्य (अपवित्र) होता है, वह झूठ बोलता है, सौगंध भी खाता है (झुठी सौगंध से होने वाली आत्म क्षति पर हम आगे विस्तृत चर्चा करेंगे) और अब उसको देवता बनना है तो उसे पवित्र भी होना ही पडे़गा इसीलिए मनुष्य का द्ददय मलिन होता है, और जल पवित्र है,अतः अशुद्धि को दूर करना जरूरी है, किंतु यह स्नान भी सावधानी पूर्वक कराया जाता है। सरोवर, सरिता अथवा कूप के समीप सनान नहीं करना है, गोपनीय स्थान ही आरक्षित करे। एक घडे़ में जल भर कर एकांत में लोटे से जल कूड़ कर श्लोक बोला जाता है | "आपोऽस्मान मातरः शुन्धयन्तु,धृतेन नो घृत्पवः पुनन्तु" " हे मातरः! हे आपः " आप हमारे को शुद्ध कीजिये। हे घृत्पव! आप घृत (घी) से हमें पवित्र कीजिये। यहां घी क्यों कहा गया है- समझ लीजिये क्योंकि "पानी से ही सारी औषधियां आप्यायित (परिपूर्ण) हैं, और औषधियों से घृत बनता है। अतः पानी को घृत्पव कहा गया है इसलिए पानी को वेद में घृत शब्द से व्यवह्रत किया गया है, जैसा कि श्रुति कहती है| "कृष्णं नियानम हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पत्तन्ति", "त आववृत्रन्सदनादृतस्यादित घृतेन पृथ्वी व्युद्यते"|| ऋषियों द्वारा मृत्योपरांत आत्मा को सीधे सीधे परमात्मा तक पहुंचाने की विधि "यज्ञ" की सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रक्रियाओं को इस प्रकार से समझने का प्रयास करें की मानों आज से किसी भी "यान" को किसी मिशन पर भेजने में जितनी सावधानियां बरती जातीं हैं, ठीक उसी तरह इस प्रकार से वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को दूरदृष्टा ऋषियों ने लाखों वर्ष पूर्व ज्ञात कर लिया था| अभी तो हम और भी उन बारीक प्रक्रियाओं पर चर्चा करेंगे, जिनके माध्यम से पाठकगण यजमान को गर्भी (गर्भ) भी बनते देखेंगे।