तमिल भूमि के संत -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

तमिल भूमि के संत -दिनेश मालवीय तमिलनाडु दक्षिण भारत का एक ऐसा प्रांत है जहाँ सबसे ज्यादा भक्ति साहित्य रचा गया. अधिकतर भाषाओं में भक्ति साहित्य की रचना लगभग बारहवीं शताब्दी में शुरू हुयी, लेकिन तमिल भाषा में इस तरह का साहित्य सृजन छठवीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था. मध्यकाल में भक्ति का प्रवाह पूरे भारत में यहीं से गया. यह नायन्मारों और आलवारों ने भक्ति, प्रेम और समरसता का ऐसा वातावरण निर्मित किया कि पूरा भारत उसके प्रवाह में आ गया. आलवारों की इस महान विरासत को रामनुज पूरे देश में लेकर गये. इस परम्परा में ही काशी के प्रसिद्ध स्वामी रामानंद हुए जिनके सुयोग्य शिष्यों ने उत्तर भारत के गाँव-गाँव में भक्तिरस की गंगा प्रवाहित कर दी. इसीलिए यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी कि ‘भगती द्राविणी ऊपजी लाये रामानंद. नायन्मार संत- यह तमिलनाडु में एक ऐसी सुंदर संत परम्परा है, जिसे नायन्मार कहा जाता है. इस प्रदेश के धार्मिक जीवन में इन संतों का बहुत महत्त्व है. ‘पेरिय पुराण’ में इसके 63 संतों का विवरण मिलता है. ये शिवभक्त संत मानवों के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को नहीं मानते थे. इसमें सभी जाति-समाजों के लोग शामिल थे. सभी ने तमिल समाज में समरसता और एकता को बहुत मजबूत किया. नायन्मार संत भक्त तिरुमूलर- छठवीं शताब्दी में हुए इस संत ने शिव की अनन्य उपासना की और तमिल भाषा में  ‘शैवागम शास्त्र’ की रचना की. यह ‘तिरुमूलमंत्रम’ के नाम से प्रसिद्ध है. शिवभक्त तिरुमूलर तमिल प्रदेश के आदिगुरू माने जाते हैं. उनका यह ग्रंथ बड़ी संख्या में संतों के लिए मार्गदर्शक बना. इन्होंने एक विशेष घटना के कारण अपने जीवन का बड़ा भाग एक ग्वाले के रूप में बिताया. कारिक्काल अम्मैयार- इनका असली नाम पुनीतवती था, लेकिन भक्त लोग इनको आदर से कारिक्काल अम्मैयार कहते थे. यह एक परम शिवभक्त महिला थीं और तमिल समाज में इनको बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त है. उन्हें तमिलनाडु में पहली महिला संत होने का गौरव भी प्राप्त है. कारिक्काल अम्मैयार भक्त कणणपर- इन्होंने किसी विद्यालय में औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की. वह जंगल में पशु चराते थे और जंगली फल-फूल अर्पित कर शिव की आराधना करते थे. कहते हैं कि इन्होंने अपनी दोनों आँखें शिव को अर्पित कर दी थीं. शिव के प्रति अपनी अपार भक्ति के कारण ही वह बहुत प्रसिद्ध हो गये. अन्य संत भी उनकी वंदना करते थे. संत नन्दनार- संत नन्दनार संबवत: ऐसे पहले संत थे जो जातिगत भेदभाव के विरुद्ध खड़े हुए. उनके बारे में प्रामाणिक जानकारी ‘पेरिय पुराण’ मन मिलती है. संत नन्दनार की चिदंबरम् के नटराज (भगवान् शिव) में अनन्य भक्ति थी. चिदंबरम् को दक्षिण का कशी कहा जाता है. नन्दनार का मानना था कि भक्ति में जाति का कोई स्थान नहीं है. उनके विषय में अनेक चमत्कारी बातें प्रचलित हैं, जिनमें शिव का उन्हें साक्षात दर्शन देना शामिल है. कहते हैं कि प्रभु स्मरण करते-करते शिव की प्रतिमा के साथ वह एकरूप हो गये. आज भी उनकी स्मृति में चिदंबरम् शहर के प्रवेश द्वार पर ही नन्द्नार का एक मंदिर है. चिदंबरम् मंदिर परिसर में उनकी समाधि बनी हुयी है. उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन के कारण ही चिदंबरम् मंदिर में प्रवेश को लेकर जातिगत भेदभाव समाप्त हुआ.महान कवि सुब्रमण्यम भारती ने उनके बारे में कहा है कि ‘इस धरती पर कोई ब्राह्मण नन्द्नार जैसा नहीं है’. महात्मा गांधी ने भी उनकी बहुत प्रशंसा की है. संत नन्दनार भक्त तिरुज्ञान सम्बन्धर- यह तमिलनाडु के श्रेष्ठ संतों में गिने जाते हैं. इन्होंने सोलह वर्ष की आयु तक सभी शैवतीर्थों कि तीन बार यात्रा कर ली थी.  उनके भक्ति पदों का संग्रह ‘तिरुप्पतिकम’ नाम से प्रसिद्ध है. इसमें कई हज़ार पद हैं, जो राग-रागनियों में बद्ध हैं. उनके भजनों के सात ग्रंथ हैं , जिनकी सराहना स्वयं आदि शंकराचार्य ने की थी.  उनका कहना था कि शिवभक्ति से किसी भी जाति या वर्ण का व्यक्ति देवतुल्य बन जाता है. भक्त अप्पर- एक किसान परिवार में जन्में इस संत की शिवभक्ति देखकर पल्लव राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने जैन धर्म छोड़कर शिवभक्ति को अपना लिया. जब यह संत बहुत छोटे थे, तभी अप्पर के नाम से प्रसिद्ध हो गये. उन्होंने कन्याकुमारी से कैलाश तक पैदल यात्रा की थी. यात्रा के दौरान उन्होंने शिवभक्ति और सामाजिक समरसता का प्रसार किया. भक्त पत्त्तकिरियार- यह एक परम शिवभक्त थे और सम्पूर्ण मानवजाति में समानता के पक्षधर थे. उनके अनुसार हर मनुष्य को ईश्वर की भक्ति का अधिकार है और उन्हें किसी भी प्रकार का जातिगत भेदभाव स्वीकार नहीं था. आलवार संत- तमिलनाडु के बारह वैष्णव भक्तों की मालिका को ‘आलावार’नाम से जाना जाता है. इन संतों ने अपने समय की सामाजिक विसंगतियों, धार्मिक पाखण्ड, कर्मकांडों और अन्य बुराइयों को दूर करने में उल्लेखनीय कार्य किये. इन्होंने लोकभाषा में इस तरह के संदेशों के प्रसार के लिए साहित्य सृजन किया. ‘अलवार’ शब्द का अर्थ है मगन होना. यानी ऐसे संत को आलवार कहा जाता है जो भक्ति के सागर में डूबा हो. इन बारह संतों में भक्त पोयगे आलवार, भक्त भूत्तालवार, भक्त तिरुमालिसई. भक्त नम्माल्वार, भक्त मधुरकवि आलवार, भक्त कुलशेखररालवार, भक्त पेरियालवार, भक्तिन आंडाल, भक्त तोंडिरदिपोड़ी आलवार, भक्त तिरुप्पाण और भक्त तिरुमंगे आलवार शामिल थे. आलवार संत भक्त ओवैयार- यह तमिल भाषा की प्रसिद्ध कवयित्री थीं. इन्होंने धर्म की सनातन मान्यता को ही स्वीकार किया. उनका मानना था कि मनुष्य का जन्म मिलना आसान नहीं. विचारशक्ति और वाक्शक्ति दोनों मनुष्य की विशेषताएँ हैं. मुक्ति पाना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है. इन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ प्राप्त करने के लिए लोटों को प्रेरित किया. संत तिरुवल्लवर- यह बचपन से ही माता-पिता से  बिछड़ गये थे और एक जुलाहे ने उनका पालन-पोषण किया. अपनी आजीविका के लिए वह कपड़े बुनते थे और भक्तिभाव में लीन रहते हैं.  इन्होंने भक्तिपरक कविताओं की रचना की जो ‘कुरल’कही जाती हैं. उनके द्वारा रचित ग्रंथ का नाम ‘तिरुकुरल’है. यह भारतीय साहित्य का श्रेठ ग्रंथ है.  इस संत ने मानव की भलाई कासंदेश दिया और हर तरह के भेदभाव का विरोध किया. उन्होंने कहा कि किसीको भी कभी हानि नहीं पहुँचाना चाहिए. गृहस्थ को अपने सभी कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करना चाहिए संत तिरुवल्लवर संत कम्बन- ग्यारहवीं शताब्दी में हुए यह बहुत बड़े विद्वान् संत-कवि थे. इन्होंने रामभक्ति काव्यों की रचना की और श्रीराम के आदर्श चरित्र को सर्वोपरि माना. उन्होंने लोकभाषा में ‘रामावतारम’ नाम से रामायण लिखी जिसे आजकल ‘कम्ब रामायण’ के रूप में जाना जाता है. इस काव्य और कथ्य दोनों कि दृष्टि से बहुत अद्भुत रचना है, जिसमें कुल 10 हजार 418 पद हैं. यह विश्व साहित्य की उत्कृष्ट काव्यरचना है. इसकी गेयता भी इसकी सबसे बड़ी विशेषताओं में शामिल है. संत कम्बन संत त्यागराज- यह दक्षिण भारत की संगीत परम्परा (कर्नाटक संगीत) के महान संत-संगीतज्ञ थे. बचपन में ही इनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था. वह तिरुवारुर आ गये. इनके गुरु ने इन्हें “राममंत्रम’ का स्मरण करने को कहा और इन्हों इसे 96 करोड़ बार स्मरण किया. इसके बाद वह पूरी तरह राम की सेवा में समर्पित हो गये. उन्होंने अद्भुत आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं. उनकी प्रसिद्ध रचना ‘प्रह्लाद भक्त विजय’ है. राजा ने एक बार उनसे अपनी स्तुति गाने को कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. इस पर उन्हें जेल में डाल दिया गया. वहाँ भी उन्होंने राम की ही स्तुति की. त्यागराज के जन्मदिन पर तिरुवैय्यार गाँव में हजओं संगीतकार आए हैं और कावेरी में स्नान कर गीले वस्त्र से ही बैठ कर ‘पंचरत्न गीइत’ का सामूहिक गायन करते हैं. संत त्यागराज संत रामलिंग स्वामिगल- इनका तमिलनाडु के समाजसुधारक संतों में प्रतिष्ठित स्थान है. वह चिदंबरम् में नटराज की उपासना करते थे. उन्होंने लगभग छह हजार भक्ति पदों की रचना की और इनका संकलन ‘तिरुअरुत्प’ के नाम से प्रकाशित है. उन्होंने समाज सुधार के लिए ‘समरस शुद्ध से सन्मार्ग संगम’, सत्य धर्म सलाह’ और सत्य ज्ञान सभा’ नाम से तीन संस्थाओं की रचना की. संत रामलिंग स्वामिगल महर्षि रमण- यह विश्वप्रसिद्ध महायोगी करुणा के सागर थे. इनके भीतर मनुष्य, पशु, पक्षी, जड़-चेतन का भेदभाव समाप्त हो गया था. उन्हें हर जीव से प्रेम था. वह जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर सभी के साथ समान रूप से व्यवहार करते थे. सभी को दीक्षा भी देते थे. उन्होंने आदि शंकराचार्य रचित ‘विवेक चूड़ामणि’ का तमिल में अनुवाद किया. उन्होंने ‘चालीस कविताएँ’नाम से कविताएँ लिखीं. महर्षि रमण ग़रीबों, वृद्धों और रुग्ण लोगों की सेवा करते थे. अरुणाचल में तपस्या और साधना रत रहते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में लोगों को अपना धर्म बदलने से रोका और धर्म का असली रूपुनके सामने रखकर बताया कि किसी भी धर्म का निष्ठा से पालन कर मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सकता है. उनकी दीन-दुखी लोगों में जो आस्था और एकनिष्ठता थी उसके अंग्रेज पादरी तक कायल हुए बिना नहीं रहे. महर्षि रमण