रावण के मन और तन का विकार बाहर आ गया....!
रावण की त्रैलोक्य विजय -63
रमेश तिवारी
रावण एकांत में था। वातावरण भी निःशब्द । चारों ओर विश्राम करती सशस्त्र सेना। उसकी अपनी शक्ति और मस्तिष्क में कुत्सित भावना। दुर्दांत विचार। फिर प्रकृति जन्य बासंतिक वातावरण,कामांध को उत्तेजित कर रही चंद्रोज्जवला, चंद्रछटा। रावण के शक्तिशाली हाथों में स्वर्णगात और पुष्प की तरह सुगंध बिखेर रही रम्भा। रावण की श्वास गति बढ़ने लगी। धौंकनी की तरह। वह आंय, वायं, सायं, बकने लगा। वासना ने उसकी वास्तविकता को प्रकट कर दिया। त्रैलोक्य विजय पर निकला रावण काम के समक्ष पराजित हो गया। जैसे कोई निद्रामग्न व्यक्ति बर्रोटी में दबकर बर्राने लगता है। बड़बडा़ते हुए अनाप सनाप बोलने लगता है। बिल्कुल यही दशा उस लंकाधीश की थी। जिसकी एक गर्जना से बादल तक सहम जाते थे। तलवार उठाते ही शवों के अंबार लग जाते हो। उसके कृष्णवर्णी सौन्दर्य के समक्ष अनगिनत गौरांगनाओं ने आत्म समर्पण भी किया हो। वह महान पराक्रमी योद्घा, अपनी कुत्सित काम वासना को पूरी करने के लिये एक अबला के सामने गिड़गिडा़ रहा था।
वरारोहे..! तुम कहां जा रही हो। किसकी इच्छा पूरी करने स्वयं ही निकल पडी़ हो। हे कामिनी आज किसका भाग्योदय करोगी..? । यद्यपि लाज से गडी़ जा रही रंभा अपने आप में सिकुडी़ जा रही थी। परन्तु काम से पीड़ित रावण का बड़बडा़ना किसी भी प्रकार से कम नहीं हो रहा था। अरे...! कमल और उत्पल की सुगंध धारण करने वाले तुम्हारे इस मुखारबिंद का रस तो अमृत का भी अमृत है। परस्पर सटे हुए सुवर्णमय कलशों के सदृश सुन्दर पीन उरोज किसके वक्षस्थलों को अपना स्पर्श देंगे। सोने की लडि़यों से विभूषित और सुवर्णमय चक्र के समान विपुल विस्तार से युक्त तुम्हारे पीन जघन स्थल पर ,जो मूर्तिमान स्वर्ग सा जान पड़ता है ,आज कौन आरोहण करेगा..?
रावण की त्रैलोक्य विजय -63
फिर अपनी श्रेष्ठता की धाक जमाने की दृष्टि से बोला.. इन्द्र, उपेन्द्र तथा अश्विनी कुमार ही क्यों न हों, इस समय मुझसे बढ़ कर कौन है..? और... तुम हो कि मुझको ही छोड़कर जा रही हो। फिर रावण ने उसी शिला को दिखाया, जिस पर वह बैठा था। और बोला -स्थूल नितम्ब वाली सुन्दरी। इस सुन्दर शिला पर विश्राम करो। इस त्रिभुवन का जो स्वामी है,मुझसे भिन्न नहीं है।... मैं ही संपूर्ण लोकों का अधिपति हूँ। नहीं.. नहीं..! इससे भी बढ़कर हूँ। 'तीनों लोकों के स्वामी का भी स्वामी तथा विधाता यह दशमुख (मुंह तो एक ही था) रावण आज इस प्रकार विनीत भाव से हाथ जोड़कर तुमसे याचना करता है। कामांध व्यक्ति, जिसके मस्तिष्क पर वासना का भूत चढ़ जाये। स्त्री संसर्ग सुगठित देह और सुगंधित सौन्दर्य का अभ्यस्त हो ,उससे बडा़ अभिनेता कोई दूसरा हो नहीं सकता। इस समय रावण भी एक संपूर्ण अभिनेता के रूप में रंभा को सहमत करने की प्रत्येक चेष्टा कर रहा था। पर स्त्रियों को स्वयं से सहकार करने में सिद्ध हस्त रावण की इन बातों को सुन कर रंभा तो थर थर कांपने लगी।
फिर बोली...! प्रभु आप मेरे गुरूजन हैं। मुझ पर प्रसन्न होइये। आप को ऐसी बात मुझसे नहीं करना चाहिए। आप पिता तुल्य हैं। रंभा ने रावण की आत्मा पर प्रहार किया। उसके गुणों को जागृत करने की चाल चली। रावण के पितृत्व को प्रबल करना चाहा। बोली... यदि दूसरा कोई पुरुष, मेरा तिरस्कार करने पर उतारू हो तो उससे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए। सत्य कहूं तो -मैं तो आपकी पुत्रवधु हूं ।अब तक रंभा भूमि पर खडी़ हो चुकी थी। उसके नेत्र भूमि पर गडे़ हुए थे। रावण के भय से कांप भी रही थी। परन्तु अपनी स्त्रीत्व की रक्षा करने के लिए उसके पास शब्द बल के अलावा और कुछ था भी तो नहीं।
रावण बोला --अगर यह सिद्ध हो जाए कि तुम मेरे पुत्र की बहू हो तभी तुम मेरी पुत्र वधु हो सकती हो। अन्यथा नहीं। स्थिति यह थी कि रावण किसी भी प्रकार से रंभा के मादक मदन का मर्दन करना चाहता था। रंभा भी अपने स्त्रीत्व की सुरक्षा में तर्क पर तर्क दिये जा रही थी। स्त्री की सुगंध,सुगठित सौन्दर्य का साक्षात और एक श्रृंगारित अपसरा के सामीप्य ने रावण की तो मती ही फेर दी थी। मित्रो, आज इस कथा को, यहीं पर विराम देते हैं। आगे देखते हैं कि क्या रावण के भाग्य में एक कुकर्म और भी लिखा है..?