अंग्रेजों की फूट डालो की निति ... भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 6


स्टोरी हाइलाइट्स

जब लोगों की भावनाओं में बहुत उत्तेजना थी तब गरम दलवादियों की गतिविधियों को कब्जे में करना नरम दल वासियों के लिए शायद संभव नहीं था बंगाल

अंग्रेजों की फूट डालो की निति .....

भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 6

  Policy of divide the British-Part6
जब लोगों की भावनाओं में बहुत उत्तेजना थी तब गरम दलवादियों की गतिविधियों को कब्जे में करना नरम दल वासियों के लिए शायद संभव नहीं था बंगाल के विभाजन के कुछ माह के बाद बनारस कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस ने 3 प्रस्ताव स्वीकार किये जिनका कि उद्देश्य संवैधानिक संघर्ष से हटकर अनिवारक प्रतिरोध के रास्ते पर ले जाना था। यह तीन प्रस्ताव स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा से संबंधित थे।

स्वदेशी का मतलब था देशी माल के उपयोग को बढ़ावा देना। यह किया जाना भारत की गरीबी को हटाने की जरूरी शर्त के रूप में नहीं था वरन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में भी जरूरी था। भारत में अंग्रेज उनका शोषण करने के लिए आये थे। यदि भारत अपने स्वयं के उद्योग को विकसित कर ले तो अंग्रेज ये भारतीय बाजार खो देंगे और तब अंग्रेज भारत की कम्पनियों पर खुद को अधीन बनाने की स्थिति में नहीं रह सकेंगे। स्वाभाविक रूप से इसका परिणाम अंग्रेज शासन का अंत होगा। परंतु यह होने में समय लगेगा, रातोरात देशी उद्योगों की स्थापना नहीं की जा सकती थी। बहरहाल एक बात जरूर थी कि भारतवासी एक काम तत्काल कर सकते थे। वे अंग्रेजी सामान खरीदने से मना कर सकते थे, यदि उन्होंने ऐसा किया तो अंग्रेजों के लिए भारत पर अपना साम्राज्य बनाये रखना लाभकारी नहीं होगा। इस उद्देश्य से बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया था। इसी तरह राष्ट्रीय शिक्षा के संबंध में तैयार प्रस्ताव का उद्देश्य अंग्रेजों के बौद्धिक चंगुल से छुटकारा पाना था। क्योंकि वे भारत में शिक्षा पर नियंत्रण कर प्रभावी बने हुए थे। भारतीयों के दिमाग पर अपना प्रभुत्व बनाये रखना अंग्रेजों की उस चाल का अंग था जिसके अंतर्गत वे अपने शासन को सिर्फ शक्ति के बल पर ही आधारित नहीं बनाये रखना चाहते थे वरन् भारतीयों के कुछ वर्गों के शैक्षिक सहयोग पर भी आधारित रखना चाहते थे। इस प्रभुत्व का प्रतिकार करने के लिए यह प्रस्तावित किया गया था कि सरकारी स्कूलों और कॉलेजों के स्थान पर भारतीय को अपनी खुद की शैक्षणिक संस्था स्थापित करनी चाहिये। यह ऐतिहासिक प्रस्ताव थे। इन्होंने भारतवासियों को एक नया भविष्य उपलब्ध कराया और अंग्रेजों को एक चेतावनी दी। अब संवैधानिक संघर्ष के दिन गिनती के ही थे। स्वराज्य की चर्चा अब खुलेतौर पर की जाने लगी। अब किसी गरम-दल वाले को, यहाँ तक कि दादाभाई नौरोजी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में (1906) अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वराज्य की चर्चा करने पर बाध्य होना पड़ा था। बहरहाल उस मौके पर इन प्रस्तावों को क्रियान्वित करने के लिए अधिक कुछ नहीं किया जा सकता था। नरम दल के लोगों ने गरम-दल वालों को कांग्रेस से लगभग बाहर कर दिया (1909)। गरम-दल वाले कोई उपयुक्त कार्य योजना बना सकें, इसके पहले ही शासन उन पर झपट पड़ा और क्रांतिकारियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की गई। तिलक को 6 साल की जेल की सजा दे दी गई। (1908-1914), अरविन्द को क्रांतिकारी हिंसा संगठित करने में भूमिका निभाने के लिए मुकदमों का सामना करना पड़ा। लाला लाजपत राय जिन्हें 1907 में कुछ समय के लिए तंग किया गया था, ने देश छोड़ने का निर्णय ले लिया, गरम दल वाले पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गये थे।

इस तरह के दमन के साथ-साथ अंग्रेजों ने सुधार की नीति भी अपनाई। यह नीति बाँटो और राज्य करो की रणनीति के अनुरूप थी। मॉर्ले मिंटो सुधार (1909) योजना घोषित कर अंग्रेजों ने नरम दलवादियों को उस मौके पर अपने साथ कर लिया जबकि अंग्रेज गरम-दल वादी और क्रांतिवादियों का खात्मा कर रहे थे। इसी योजना के तहत अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिए अलग चुनाव सभा क्षेत्रों की योजना लागू की। यह एक ऐसी चाल थी कि जिसके द्वारा अंग्रेज राज्य के अंतिम दिनों तक हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों को बहुत गहराया गया और उनका बहुत फायदा उठाया गया।

इस बीच बंगाल के विभाजन की पृष्ठभूमि में पूर्ण रूप से मुस्लिम राजनीतिक संगठन के रूप में काम करने के लिए ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की गई (1906)। शायद शासन की ओर से सहारा मिलने के कारण मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमण्डल वाइसरॉय मिण्टो से मिला और उसने अपने समुदाय के लिए अलग से प्रतिनिधित्व की माँग की।

मॉर्ले-मिंटो सुधार लागू होने के बाद के वर्षों में शांति रही। फिर पहला विश्व युद्ध (1914-1918) भड़क उठा। भारत में एक बार फिर से खलबली मच गई। अंग्रेजों ने युद्ध प्रयत्नों में भारतीयों से इस आधार पर सहायता माँगी कि अंग्रेज और उसके मित्र देश लोकतंत्र को बचाने के लिए युद्ध लड़ रहे हैं। स्वभाविक रूप से भारतीयों की यह प्रतिक्रिया थी कि ऐसी स्थिति में भारत में भी लोकतंत्र जैसी कोई चीज होनी चाहिये। तिलक और श्रीमती एनी बेसेंट ने अलग से 'होमरूल लीग शुरू कर दिये जो कि इस देश के लिए स्वशासन की मांग के लिए काम कर रहे थे। इन मौके पर एकता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कांग्रेस ने अपने लखनऊ अधिवेशन (1916) में गरम दल वालों को वापस पार्टी में ले लिया। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह थी कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हो गया जो कि 'लीग समझौते' के नाम से जाना जाता है। इस समझौते का उद्देश्य अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट मोर्चा प्रस्तुत करना था, क्रांतिकारी भी सक्रिय हो गये। यह बात समझकर कि स्थिति गंभीर है ब्रिटेन के मंत्री माटेग्यू ने भारतीयों को आश्वस्त किया कि युद्ध समाप्त हो जाने के बाद वे कुछ नये सुधारों की उम्मीद कर सकते हैं।