सूर्य के इस धार्मिक रहस्य ने चौका दिया एक वैज्ञानिक को भगवान् भास्कर हिन्दू धर्म और सूर्य तत्व
भारतीय संस्कृत वाङ्मय की सनातन परम्परा में भगवान् भास्कर का स्थान अप्रतिम है। समस्त वेद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारतादि ग्रन्थ भगवान् सूर्य को महिमा से परिप्लुत हैं। विजय एवं स्वास्थ्यलाभार्थ और कुषठादि रोग निवारणार्थ विविध अनुष्ठानों तथा स्तोत्रों का वर्णन उक्त ग्रन्थों में विविध प्रकार से प्रचुर मात्रा में पाया जाता है वास्तव में भारतीय सनातन धर्म भगवान् सविता की महिमा एवं प्रकाश से अनुप्राणित तथा आलोकित है। सूर्य-महिमा अद्वितीय है।
वेद ही हमारे धर्म के मूल हैं। शास्त्रानुसार वेदाध्ययन उपनीत के लिये ही विहित है| उपनयन- आधार पर गायत्रीमन्त्र में सवितादेव ही ध्येय हैं। सवितादेव के वरेण्य तेज के ध्यानादि के कथन से स्पष्ट है कि इस मन्त्र में सविता देवता की प्रार्थना है। इसके आधार पर भानु, हंस, सहस्रांशु, तपन, सविता, रवि- ये सब सूर्य के अनेक नाम हैं, अत:सविता सूर्य हैं, सूर्यमण्डलान्तर्गत सूर्याभिमानी देवविशेष हैं, चेतन हैं। हम अपने शास्त्रों का अध्ययन कर यह कह सकते हैं कि जैसे जल आदि के अधिष्ठात् देवता चेतन होते हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्षत: सूर्यमण्डल भले ही जड प्रतीत हों, परंतु उनके अभिमानी देवता चेतन हैं-
'योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्' (यजु० वा० सं० ४०। १७) यह मन्त्र भी आदित्यमण्डलस्थ पुरुष को चेतन प्रमाणित करता है।
हमारे शास्त्रों में अध्यात्मादि भेद से त्रिविध अर्थ की संस्कार का मुख्य उद्देश्य सावित्री उपदेश है- तर्क तथा प्रमाणसम्मत व्यवस्था है, अतः अध्यात्म- सूर्य 'सावित्र्या ब्राह्मणमुपनयीत ।' 'तत्सवितुर्वरण्यम् के वह है, जो सब ज्योतियों की ज्योति और ज्योतिष्मती योग-प्रवृत्तिका कारणरूप शुद्ध प्रकाश है।
सविता कौन?- गायत्रीमन्त्र के सविता देवता कौन हैं? सविता शब्द सूर्य का पर्यायवाचक है। 'भानुहंसः सहस्त्रांशुस्तपनः सविता रवि:' (अमर० १॥ ३॥ ३८)
जिस प्रकाश राशि सूर्यमण्डल का हम प्रतिदिन दर्शन करते हैं, वह अधिभूत सूर्य हैं इस सूर्यमण्डल में परिव्याप्त चेतनदेव अधिदैव शक्ति ही आधिदैविक सूर्य हैं। तात्पर्य यह है कि सूर्य या सविता चेतन हैं।
तात्पर्य यह कि आदित्य में ज्योतिर्मण्डलरूप भूतों अचेतन है, किंतु देवतात्मा अधिष्ठाता चेतन ही है। जैसे हम लोगों का शरीर वस्तुत: अचेतन है, परंतु प्रत्येक जीवित शरीर का एक अधिपति जीवात्मा चेतन होता है, उसी प्रकार देव शरीरों का अधिपति स्वामी या अधिष्ठाता रहता है| जैसे जीव का शरीर उसके अधीन हैं, वैसे ही भगवान् सूर्य के अधीन उनका सूर्यरूपी तेजोमण्डल देह है।
इस मन्त्र में कार्य- कारणात्मक आदित्य मंडलस्थ पुरुष की प्रार्थना करते हुए सत्यधर्मा अधिकारी कहता है- 'हे पूषन्। आदित्यमण्डलस्थ सत्यस्वरूप ब्रह्मका मुख हिरण्मय पात्र से ढका हुआ है मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि के लिये आप उसे हटा दीजिये।' भगवान् शंकराचार्य लिखते हैं-
सत्यस्यैवादित्यमण्डलस्थस्य व्रह्मणोऽपिहित- माच्छादितं मुर्ख द्वारम्। तत्त्वं हे पूषन् अपावृणु- अपसारय-(-शांकरभाष्य) ।
हे पूषन्। मुझ सत्योपासक को आदित्यमण्डलस्थ सत्यरूप ब्रह्म की उपलब्धि के लिये आच्छादक तेज को हटा दें।
पूषन्नेकर्ये यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ | पुरुषः सोऽहमस्मि॥ (ईशोप० १६)
इस पर बहुत पहले की पढ़ी एक कहानी याद आती है, जो तथ्य पर आधारित है। मिस्टर जार्ज नामक एक अमेरिकन विज्ञान के प्रोफेसर थे वे एक बार मध्याह्न के समय में पाँच मिनट तक खुले शरीर से धूप में खड़े रहे; पश्चात् अपने कमरे में आकर थरमामीटर से अपना तापमान देखा तो तीन डिग्री ज्वर था। दूसरे दिन जार्ज महाशय ने पुष्प और फल लेकर सूर्य को धूप दिखाकर प्रणाम किया और वैसे ही नंगे बदन मध्याहर में लगभग ११ मिनट धूप में रहे; पशचात् कमरे में आकर धरमामीटर से तापमान देखा तो वह नार्मल (सामान्य) था।
इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि वैज्ञानिकों का सूर्य केवल अग्रि का गोला है, जड है- यह सिद्धान्त ठीक नहीं, अपितु सूर्य चेतन हैं, देव हैं उनमें प्रसन्नता है, अप्रसन्नता है। अत: हमारे यहाँ सूर्यदेव ही सन्ध्यादिकर्मों में उपास्य तथा पूज्य हैं| आदित्यहृदयस्तोत्र के द्वारा भगवान् राम ने सूर्यनारायण की स्तुति की थी|
जगत्के पोषक, एकाकी गमनशील, सबके नियन्ता, रश्मियों के सोत, रसों के ग्रहण करने वाले हे सूर्य। हे प्रजापति पुत्र। आप अपनी किरणों- (उष्ण) को हटाइये- दूर कीजिये और अपनी तापक ज्योति को शान्त कीजिये। आपका जो अत्यन्त कल्याणमय रूप है, उसे (आपकी कृपासे) मैं देखता हूँ (देख सकूँ)। मैं भृत्य की भाँति याचना नहीं करता, अपितु आदित्यमण्डलस्थ जो पुरुष है या प्राणबुद्ध्घात्मरूप से जिसने समस्त जगत्को पूर्ण कर दिया हैं, किंवा जो शरीर रूप पुरमें शयन के कारण पुरुष कहलाता है, वह मैं ही हूँ।
भगवान् शंकराचार्य वेदान्तसूत्र के देवताधिकरण (१। ২। ३३) में 'देवताओं का शरीर नहीं होता इत्यादि'- मीमांसक मतका खण्डन करते हुए लिखते हैं-
'योतिरादिविषया अपि आदित्यादयो देवतावचनाः शब्दा, चेतनावन्तमैश्वयांद्यपेतं ते तं देवतात्मानं समर्पयन्ति, मार्भवादेषु तथा व्यवाहारात्। अस्ति तहाँ खर्ययोगाद देवतानां न्योतिराद्यात्मभिश्ावस्थातु यथेषं च तं तं विग्रहं ग्रहीतुं सामर्थम्। तथा हि श्रूयते सुबरह्मण्यार्थवादे मेधातिथिम् इन्द्रो मेयो भूत्वा जहार। स्मयते च आदित्यः पुरुषी भूत्वा चालीमुपजगाम ह इति- ज्योतिगदेस्तु भूतधातोरादित्यादिष्वप्यचेतनत्तमभ्युपगम्यते, चेतनास्त्यधिष्ठातारो देवतात्मानो मन्त्रार्थवादादिषु व्यवहारादित्युक्तम्।'
श्रीहनुमानजी ने भगवान् सूर्य के सांनिध्य में अध्ययन किया था, ऐसे अनेक उपाख्यान सूर्य की चेतनता में ज्वलन्त उदाहरण हैं। भविष्यपुराण के आदित्यहृदयके- 'यमण्डल सर्वगतस्य विष्णोरात्मा परं धाम विशुद्धतत्त्वम्।'- इस श्लोक में सूर्य को विष्णुभगवान्का स्वरूप (आत्मा) कहा गया है। यही क्यों, वेद भी सूर्य को चराचरात्मक जगत्की आत्मा कहते हैं- 'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषक्ष', 'विश्वस्य भुवनस्य गोपा: समाधीरः' (ऋ० १। १६४ २१)। इस मन्त्र में सूर्य कों धीर अर्थात् बुद्धिप्रेरक कहा है 'धियमीरयतो धीरः'। अतएव आस्तिक द्विज प्रतिदिन सन्ध्यामें 'धियो यो नः प्रचोदयात्' इस प्रकार बुद्धि के अच्छे कामों में लगाने के लिये प्रार्थना करते हैं।
शंकरानन्द सरस्वती