पहले मृतक तो यम ही हैं..! रोचक कथा.

रावण की त्रैलोक्य विजय - 45
रमेश तिवारीपूर्वजों के इतिहास की सैकड़ों अंतर्कथाओं को लेकर मन में ऊहापोह होने लगती है। कौन सी कथा कही जाये। इस भटकाव में कथाओं का चयन करना दुष्कर कार्य हो जाता है। हम आज विश्वामित्र के पिता राजा गाधि की उस पराजय कथा से चर्चा प्रारंभ करते हैं,जिस युद्ध में रावण से बिना लडे़ ही उनको पराजय स्वीकारना पडी़ थी। यद्यपि गाधि की इसी पराजय ने विश्वामित्र को प्रेरित किया और उन्होंने श्रीराम के माध्यम से त्रैलोक्य विजयी रावण को संपूर्ण पराभव का पात्र बना दिया। रावण अपने भाई लोकपाल कुबेर को अलकापुरी में जीतकर, शिव जी के टटेरे छेड़ और उनसे पिटने के बाद भाई से हथियाये हुए पुष्पक विमान से जा रहा था। वृहस्पति की पौत्री वेदवती तपस्या कर रही थी। मार्ग में रावण ने उसका शारीरिक अपमान किया। फिर वह पश्चिम भारत में घुसा। मरुतों के देश बलूचिस्तान पहुंचा।वहां उसने यज्ञ रत राजा मरूत को (जो तब उस स्थिति में युद्ध नहीं कर सकते थे) पराजित घोषित कर दिया। अब रावण उत्तर भारत के अभियान पर निकल कर जनता और राजाओं को त्रस्त करने लगा। राजाओं को उसकी चेतावनी रहती..! मेरी दासता स्वीकार करो अथवा मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ। तब राजा सुरथ, दुष्यंत,पुरुरवा,गय और गाधि ने स्थिति को भांपते हुए रावण के शौर्य को स्वीकारना ही उचित समझा। रावण के शौर्य के चमकते हुए सूर्य को निस्तेज करने हेतु विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को इसलिए भी तैयार किया गया।क्योंकि विश्वामित्र,वशिष्ठ और अगस्त्य रावण की गतिविधियों पर पहले से ही नजर रख रहे थे। इसी बीच आकाश मार्ग में रावण की भेंट महर्षि नारद से हो गई। रावण सेना सहित पुष्पक से उड़ रहा था। आकाश मार्ग से नारद भी अपने विमान में उड़कर कहीं जा रहे थे। रावण ने उनको रूककर अभिवादन किया। तब नारद भी रूक गये । 'नारदस्तु महातेजा देवर्षिमतिप्रभः। अब्रवीन्मेघपृष्ठस्थो, रावणं पुष्पकेस्थितम्।। दोनों आकाश में बातें करने लगे। एक से दूसरे को भिडा़ने में प्रवीण नारद ने रावण की प्रशंसा करते हुए कहा. सौम्य ठहरो -मैं तुम्हारे बढे़ हुए बल विक्रम से बहुत प्रसन्न हूंँ। मुझको दो लोगों ने बहुत प्रभावित किया है। दैत्यों का विनाश करने वाले भगवान विष्णु ने और गंधर्वों तथा नागों को पददलित करने वाले तुम ने। यहाँ हम यह स्पष्ट करदें कि नारद इधर की उधर लगाने (लगा लूथरापन) में बहुत माहिर थे ही। यहां भी उन्होंने रावण के अहंकार को आसमान पर चढा़ने की दृष्टि से ही रावण के विक्रम की तुलना त्रिलोकीनाथ विष्णु हरि के साथ जानबूझ कर की थी। वे रावण की दिशा मोड़ना चाहते थे। मनुष्य लोक के लोगों को बचाने की दृष्टि से अथवा रावण को सबक सिखवाने की दृष्टि से किसी बलवान से भिड़वाना चाहते थे।वे रावण का हित चाहते या फिर अहित। उन्होंने पूछा..! तुम जा कहां रहे हो..? रावण बोला.. मैं त्रैलोक्य विजय पर निकला हूँ। पहले रसातल (अफ्रीकी देश) जाउंगा। विजय करूंगा। फिर रसनिधि (समुद्र) का मंथन करूंगा। नारद जी ने थोडा़ सोचकर कहा...! अरे तो तुम किस मार्ग से जा रहे हो। रसातल का मार्ग तो यह नहीं है। तुमको रसातल जाना ही है तो देवलोक से होकर जाओ। अर्थात इराक और ईरान होकर। तुम्हें तो गंधर्व और राक्षस भी नहीं मार सकते। तुमको तो मृत्यु के देवता यमराज से युद्ध करना चाहिए। तुम इस मनुष्य लोक के छोडो़। यहां के मृतक तो यमराज के पास ही जाते हैं। उन विष्णु पुत्र यमराज से युद्ध करो। उन पर विजय प्राप्त करो। यमराज पर नियंत्रण कर तुम सबको जीता ही समझो। नारद की बात सुनकर रावण हंसने लगा। फिर बोला -महर्षि..! आप देवताओं और गंधर्वों के लोक में विहार करने वाले हैं। युद्ध के दृश्य देखना आपको बहुत अच्छा लगता है। बातों में उलझा कर नारद ने रावण को यमराज से युद्ध हेतु जाने को सहमत कर लिया।अब रावण ने भी रसातल जाने के लिये यम के राज्य अपवर्त और आर्यायण (इराक, ईरान) क्षेत्र से होकर निकलने और यमराज से दो दो हाथ करने का निर्णय ले ही लिया। रावण ने कहा महर्षि मैं यम से युद्ध करूंगा ।रावण ने दर्प में आकर क्रोधपूर्वक प्रतिज्ञा की। मैंने देव और आर्य व्यवस्था के प्रमुख चारों लोकपालों -यम, वरुण इंद्र और कुबेर को नष्ट करने का संकल्प लिया था। कुबेर को तो पराजित कर ही चुका हूँ। अब मैं सीधे सीधे दक्षिण दिशा में जा रहा हूँ। इतना कह कर रक्षपति, जो जा कहीं और रहा था, किंतु नारद के बहकाने से चल कहीं और दिया। इधर नारद ,दो घडी़ ध्यान मग्न होकर विचार करने लगे। जो सभी को दंडित करते हैं ,उन काल स्वरूप यमराज को रावण कैसे जीत पायेगा। उनके मन में बहुत कौतूहल होने लगा। नारद भी इस भावी युद्ध को देखने की दृष्टि से यमलोक चल दिये। वे यमराज को रावण के आने की अभी सूचना भी नहीं दे पाये थे कि रावण यमलोक में जा धमका। यमराज और रावण के युद्ध की रोचक कथा का वर्णन हम आगे करेंगे। किंतु यहां यमराज के संबंध में वेदोक्त एक सत्य जान लेना ,अनेक भ्रांतियों को दूर कर सकता है।अज्ञानियों ने यमराज की जो क्रूर छबि बना रखी है,उसका निर्मूलन करना भी आवश्यक है। अथर्व वेद में कहा है - 'यो ममार प्रथमो मर्त्यानां यः प्रेयाय प्रथमो लोकमेतम। वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजनं हविषा समर्यत।। अर्थ यह है कि सबसे पहले यम की मृत्यु हुई। प्रलय के पश्चात ब्रह्मा द्वारा की गई नवीन सृष्टि में यह घटना हुई। ( सृष्टि अर्थात आपदा प्रबंधन बाढ़,अकाल, सूखा आदि के बाद की जाने वाली व्यवस्थाओं की तरह) अर्थात् यम स्वयं ही मर गये। प्रश्न यह है कि एक मरा हुआ व्यक्ति मृत्युलोक अथवा यमलोक राजा भला कैसे हो सकता है। सत्य यह है कि जब यम मरे। तो लोगों में चर्चा चल पड़ी। पूछाताछी होने लगी। यम गये कहां...? तो किसी ने कहा..! किसी दूसरे लोक( स्थान में) चले गए। "परलोक "चले गए !किसी की मृत्यु पर यही तो कहा जाता है। फलां, परलोकवासी हो गया। दूसरे लोक में चला गया। तो किसी अनजान लोक में जाने वाले यम , पहले मृतक थे।सृष्टि निर्माण के बाद। जब कोई और मरता तो लोग कहते यह भी यम लोक चला गया। यही धारणा है यमलोक की। हां जहां तक मृत्युलोक का संबंध है। यम मृत्यु लोक के राजा थे। किंतु वह मृत्युलोक ईरान का वह क्षेत्र था जहां प्रलय ने लाखों लोगों की जिंदगी जीम ली थी। देश बर्बाद हो गया था। पुराणों में इसी प्रलय का विस्तृत जिक्र है। ईरान में लोगों के नाम अभी भी यम के नाम पर यमशिद या जमशेद रखे जाते हैं।
लेखक भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार व धर्मविद हैं |