श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह.................श्रीकृष्णार्पणमस्तु -4


स्टोरी हाइलाइट्स

श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह...श्रीकृष्णार्पणमस्तु -4 chakravyuh-of-shri-krishna-sri-krishnanarpanamastu-4

श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह

                                     श्रीकृष्णार्पणमस्तु-4
रमेश तिवारी
मथुरा से यादवों को सुदूर द्वारिका में ले जाकर बसाने का कृष्ण का निर्णय अचानक ही नही ले लिया गया था। सम्राट बार बार श्रीकृष्ण से पराजित होकर मानो विक्षिप्त सा हो रहा था। निरंतर पराजय! वह भी एक नहीं, दो नहीं। पूरे सोलह बार। एक सम्राट की जग हंसाई का कीर्तिमान सा बन गया था, पराजय का। 

किंतु श्रीकृष्ण के बौद्धिक कौशल से कुंठित जरासंध फिर भी नहीं मान रहा था। मथुरा एक प्रकार से शक्तिहीन और धनहीन हो चुकी थी। क्योंकि सभी युद्ध पवित्र मथुरा की भूमि पर ही तो हुए थे। सो फसलें और बाजार, सभी नष्ट हो जाते थे। कृष्ण जब गुरुपुत्र पुनर्दत्त को अवंती के आश्रम में छोडऩे गये। तब रात्रि में वे आचार्य सांदीपनि के सानिध्य में बैठे थे। श्रीकृष्ण ने जरासंध के आक्रमण वाली वेदना को ऋषि के सामने रखा। गुरूवर..! कब तक निरीह मथुरा, सम्राट जरासंध के विकट आक्रमणों का सामना करती रहेगी।


सांदीपनि ने बाल सुलभ, निश्चल हंसी हंसते हुये कहा- कृष्ण! श्वेत सागर (द्वारिका) के सामीप्य में रहने का मन नहीं करता तुम्हारा.? बस, गुरु का संकेत मिल चुका था। श्री कृष्ण ने गर्ग ऋषि को जो स्वयं भी एक महान वास्तुशास्त्री थे, के मार्ग दर्शन में द्वारिका में नवीन निर्माण का कार्य युद्ध स्तर प्रारंभ करवा दिया। इस हेतु मय दानव सहित विश्व के श्रेष्ठतम निर्माण कर्ताओं की सेवायें ली गयीं। किंतु.! अभी द्वारिका में नव निर्माण का कार्य प्रारंभ भी नहीं हुआ था कि कंस के वध के दंश से पीड़ित जरासंध ने सत्रहवीं बार फिर मथुरा को ध्वस्त करने का निर्णय ले लिया। मूलत: यह आक्रमण अब तक के आक्रमणों से कदापि अलग, विकट और प्रतिशोध का चरम होने जा रहा था। मगध की शक्ति और सम्पन्नता की तुलना में मथुरा का कोई अस्तित्व ही नहीं था। इस आक्रमण में श्रीकृष्ण को फूटी आंखों पसंद नहीं करने वाले सभी शत्रु एकत्रित हो चुके थे।

जरासंध के मित्र राजा दंतवक्र, शिशुपाल, भीष्मक, शैव्य, वत्स, विदेह, शाल्व, शल्य, त्रिगर्तराज और दरद नरेश सम्मिलित हुये। आक्रमण में शामिल लोगों में बक्सर का दंतबक्र और चंदेरी का शिशुपाल तो कृष्ण की सगी भुआओं के पुत्र ही थे। भीष्मक नागपुर, शाल्व अर्बुद गिरी (माउंट आबू), दरद राज, विदेह जनकपुरी, शल्य मद्र (रुस) वत्स काशी और त्रिगर्त (जालंधर) आदि सभी राजा मथुरा और श्रीकृष्ण को घेरने वाले थे। विकराल सैन्य दल मथुरा पर टूट तो पडा़| किंतु  इस बार भी उनका पाला पडा़ था बुद्धि के प्रतिमान कृष्ण से ।8 दिनों तक भयंकर युद्ध चलता रहा। 

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अब श्रीकृष्ण ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिये यादव वीरों की सभा आमंत्रित की। यह आपात् बैठक रात्रि में हुई। निर्णय नहीं हो पा रहा था। 16 बार विजयी यादव गण जरासंध का पूरी तरह निर्मूलन करने पर संकल्पित थे। परन्तु कृष्ण जानते थे, उनके गुप्तचरों की सूचना थी कि इस बार शत्रु कुछ ज्यादा ही व्यवस्थित और शक्ति शाली है। सभा मेँ बिकद्रू नामक सर्वाधिक वृद्ध यादव की वाणी मुखरित हुई| सुनो भाई! जरासंध का यादवों से कभी भी बैर नहीं रहा, और न आज है। कंस के श्वसुर के नाते बह तो यादवों का संबंधी ही हुआ न। जरासंध की शत्रुता उसके जामाता कंस का वध करने वाले कृष्ण से ही तो है। क्यों न कृष्ण अकेला ही मथुरा से पलायन कर जाये। युद्ध ही टल जायेगा। 

अब बारी थी श्री कृष्ण की। वे बोले वरिष्ठ यादव ठीक ही कह रहे है। वृद्धों की वाणी गुणकारी औषधि जैसी होती है, सुनने में भले ही कटु लगे किंतु वह होती गुणकारी है। राजनीति में मूल (स्थान/संस्था) सुरक्षित रखने के लिए त्याग करना भी आवश्यक है, मानो कृष्ण, यही कह रहे थे। विनम्र स्वरों में कृष्ण बोले- मेरे पलायन से यदि मेरे जीवन पर 'रण छोड़दास' का कलंक मुझ पर लग जायेगा, लोग मेरा उपहास भी करेंगेे और व्यंग भी करेंगे। परन्तु देश हित और यादव हित में, मैं, मथुरा छोडऩे के लिये भी तैयार हूँ। 

हाँ, एक तथ्य और बतादूं- मैने स्वयं ही राजा उग्रसेन को यह परामर्श पहले ही दे दिया था। और सभा भी इसीलिए बुलाई गयी थी किे मेरे कारण संपूर्ण देश (मथुरा) क्यों भस्मी भूत हो। यह प्रस्ताव मेरा ही था। कृष्ण ने यह बात अपनी मोहक मुस्कान बिखेरते हुए बहुत ही सहज ढंग से कही। फिर जैसा कि योजना निश्चित थी, श्रीकृष्ण, बलराम, अमात्य विपृथु जैसे योद्घा, गुप्त मार्ग से एक सैन्य दल के साथ मथुरा छोड़कर भाग निकले। और युद्ध नीति के तहत यह सूचना प्रसारित प्रचारित करने का उत्तर दायित्व भी छोड़ गये कि "ऐसा लगे कि जरासंध के भय से ही कृष्ण भाग निकला, पलायन कर गया। 

अर्थ यह हुआ कि अब युद्ध किससे ? कृष्ण जानते थे कि जरासंध उनका पीछा अवश्य ही करेगा। इसलिये सुविचारित तरीके से जिस दक्षिण दिशा में भागे थे, उसकी सूचना भी सार्वजनिक करवा दी! कृष्ण की बौद्धिक रणनीति ने युद्ध की दिशा ही बदल दी। जरासंध तो बिल्कुल बौरा ही गया। और अंततः मथुरा का घेरा छोड़ वह कृष्ण के पीछे उन्हें खदेडऩे, दंडित करने पीछे, पीछे दौड़ पडा़। कथा आगे इतनी रोचक हो जाती है कि कृष्ण ने फिर अपनी चतुराई से कालयवन को कैसे मारा..!

आज की कथा यहीं तक | तब तक विदा।                                                                                        धन्यवाद|