मध्य प्रदेश के लोकनाट्य 8: गम्मत, छाहुर, नाचा और लोकनाट्य की लघुपरंपराएँ, मध्य प्रदेश की कलाओं को जानें...


स्टोरी हाइलाइट्स

गम्मत: गम्मत निमाड़ के अंचल में बहुत लोकप्रिय है। गम्मत शब्द एक लोकनाट्य के अर्थ में अध्येताओं के बीच चल पड़ा है, वास्तव में तो निमाड़ी में गम्मत नाटक का ही वाचक है। यह गीत प्रधान नाट्य है। इसके गीतों को भी गम्मत कहते हैं, व गम्मत अलग से भी गाई जाती हैं। 

गम्मत:

गम्मत निमाड़ के अंचल में बहुत लोकप्रिय है। गम्मत शब्द एक लोकनाट्य के अर्थ में अध्येताओं के बीच चल पड़ा है, वास्तव में तो निमाड़ी में गम्मत नाटक का ही वाचक है। यह गीत प्रधान नाट्य है। इसके गीतों को भी गम्मत कहते हैं, व गम्मत अलग से भी गाई जाती हैं। 

प्रस्तुति शैली में गम्मत राजस्थान के ख्याल और मालवा के माच से कुछ समानता रखता है। गम्मत के प्रदर्शन वर्षा ऋतु में विशेष रूप से होते हैं। नवरात्रि होली, गणगौर आदि के मौके पर भी गम्मत के प्रदर्शन होते हैं। 

नवरात्रि के समय गाँव-गाँव में गम्मतों की धूम होती है। गाँव गिरॉव के किसान और मजदूर इसमें शिरकत करते हैं। विवाह और बेटे के जन्म के मांगलिक उत्सवों में भी गम्मत का आयोजन होता है। गम्मत प्रस्तुत करने वाली मंडली फड़ कहलाती है। फड़ या मंडली का सूत्रधार मालिक कहलाता है।

गम्मत प्रस्तुत करने वाले कई घराने निमाड़ के अंचल में हैं। खंडवा में गम्मत प्रस्तुत करने वाली मंडलियों में श्यामलाल पटेल और भोला कुम्हार की मंडलियों एक समय बहुत लोकप्रिय रही हैं। इन घरानों में पीढ़ी दर पीढ़ी गम्मत को सहेजा जाता रहा है और पारंपरिक गम्मतकारों का विश्वास है कि उनके घरानों में शताब्दियों से गम्मत किया जाता रहा है। 

माच की तरह गम्मत के नाटक प्रायः लिपिबद्ध नहीं मिलते। छोटे छोटे प्रसंग इसमें अभिनीत होते रहे हैं, जिनके प्रयोग में आशुरचना (इम्प्रोवाइजेशन) की बड़ी भूमिका रहती है। ये प्रसंग प्रायः रामायण, महाभारत और पौराणिक आख्यानों से लिये जाते हैं। 

कृष्ण लीला, हरिश्चंद्र और लैला मजनू की कहानियाँ भी गम्मत के मंच पर खेली जाती रही हैं। माच जैसे लोकनाट्यों की तरह अभिनय स्थल पर बीचों-बीच एक खंभ स्थापित किया जाता है। खंभ की पूजा की जाती है। 

समतल भूमि पर गम्मत का मुक्ताकाशी मंच होता है। प्रेक्षक इसके चारों ओर बैठते हैं। पात्र किसी भी दिशा से आ कर मंच पर प्रवेश कर सकता है। आरंभ में गणेश और भवानी का प्रवेश और उनकी स्तुति तथा पूजन किया जाता है। गम्मत के प्रयुक्त प्रमुख वाय हैं- मृदंग, झाँझ और त्रिकोणाकार लोहे की घंटी।

ओमप्रकाश राजपाली ने गम्मत के विदूषक को नकलची कहा है, वसंत निरगुणे के अनुसार गम्मत में विदूषक को कुडगरिया कहा जाता है। यह विदूषक ही गणेश और भवानी के प्रस्थान के पश्चात् मंच पर प्रवेश कर के सूत्रधार की भूमिका का निर्वाह करता हुआ पात्र परिचय देता है और प्रत्येक पात्र का मंच पर आह्वान भी करता जाता है। गम्मत के एक अन्य प्रकार में प्रस्तावना गीतों के माध्यम से भी की जाती है। निमाड़ी में इन गीतों को लेंहगी कहा जाता है।

छाहुर:

छाहुर बघेलखंड का लोकनाट्य है। यह दीपावली से गोपाष्टमी तक किया जाता है। इसके कलाकार अहीर होते हैं। इसमें वादन, गायन और नृत्य की प्रधानता होती है। बिना किसी विशेष मंच सज्जा के घर के आंगन या द्वार के सामने चौपाल में इसका मंचन किया जा सकता है। 

कथा की प्रस्तुति दोहों में चलती है। कथा में सामंती व्यवस्था का आतंक और उससे संघर्ष का स्वर मुखरित होता है। स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही करते हैं। कथा नायक छाहुर शौर्य और साहस के प्रतिमान प्रस्तुत करता है। वह निरंकुश सत्ता से साहस के साथ संघर्ष करता है

नाचा:

छत्तीसगढ़ के अंचल में नाचा मनोरंजन का सर्वसुलभ माध्यम रहा है। नाचा का अभिनय मेले ठेलों, तीज त्योहारों के अवसरों पर किया जाता रहा है। चार बांस गाड़ कर उन पर टाट तान कर मंच बनाया जाता है। हर नाचा पार्टी में लोकगीत गायक रहते हैं, जो जनता की रुचि देखते हुए तत्काल तुकबंदी कर के गीत को बढ़ा घटा देते हैं। 

वादकों में चिकारा, तबला और मंजीरा बजाने वाले रहते हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में नाचा मंडलियों की धूम थी। अनेक कलाकारों को बड़े बुजुर्ग लोग अभी भी याद करते हैं। गुरुदत्त की नाचा पार्टी में परदेशी नामक कलाकार गायन और नृत्य में माहिर था। 

रींगनी साज नाचा पार्टी में काम करने वाले लालू राम ठाकुर राम, भुलवा, मदन आदि अभिनयपटुता के कारण याद किये जाते हैं। महिलाओं ने भी बाद में नाचा पार्टियां बनाई, जिनमें बुतनिन, बालकी, गजरा एवं मिर्चा की एक पार्टी थी, तो दूसरी ओर कारवाई, गीताबाई, एवं बालम की; और अन्य पार्टी किस्मत बाई, शांतिबाई आदि की थी। 

लोक संस्कृति के पुनरुत्थान की दृष्टि से बाद में एक आदर्श नाचा पार्टी भी बनाई गई पार्टियों में आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण नाचा को अधिकाधिक लोकप्रिय बनाने की होड़ शुरू हुई जिससे उसमें फूहड़ हास्य और अश्लीलता भी आती गई। ध्वनि, प्रकाश के लिये माइक और विद्युत् उपकरणों का उपयोग होने लगा। 

इसके पश्चात् नाचा में परिष्कार और उसे सामाजिक सरोकारों से जोड़ने तथा जनता को जागरूक बनाने वाले एक समर्थ माध्यम के रूप में विकसित करने के प्रयास भी होने लगे। बंगाल का अकाल, सरग अउ नरक, काली माटी, जनम अउ मरन, बेगुनाह को फाँसी, राय साहब मिस्टर भोंदू, खान साहब नालायक अली खां जैसे कई नाटक नाचा के कलाकारों ने रचे और को आधुनिक भारतीय रंगमंच की एक श्रेष्ठ विधा के रूप में मान्यता मिलने लगी। 

इसी समय रंगकर्मी हबीब तनवीर ने नाचा के कलाकारों को ले कर अपना प्रयोग आरंभ किया। वे लालूराम, छाकुर राम, भुलवा, मदन आदि को दिल्ली ले गये। फिदाबाई जैसी महान अभिनेत्री उनकी मंडली में शामिल हुई। छत्तीसगढ़ के अंचलों में आज भी अनेक नाचा मंडलियाँ सक्रिय हैं। चन्देनी गोंदा, सोनहा विहान, दौना पान, तुलसी के विखा, लहर आदि ऐसी संस्थाएँ है।

नाचा का आरंभ देवी देवताओं की वंदना के साथ होता है। कलुआ तथा जनानी के रोचक संवाद होते है। कलुआ बन कर दो पुरुष पात्र आते हैं। लोरिक चंदा आदि की गाथाएँ भी नाचा में प्रस्तुत की जाती है।

आधुनिक रंगमंच की दृष्टि से यह आपेरा से साम्य रखने वाली नाट्य विधा है। आरंभ में नारी पात्रों की भूमिका पुरुष ही करते थे। बाद में देवार जाति की महिलाएं नाचा के मंच पर उतरीं। नाट्यशास्त्र की परंपरा के आचार्यों ने उपरूपकों का निरूपण किया है। 

अनेक लोकनाट्य वास्तव में इन उपरूपकों से मिलते जुलते हैं। बिलासिका या लासिका हास्य विनोद से भरे संवादो वाला उपरूपक है। माच और नाचा सहित अनेक लोकनाट्यों में यह रूप उपस्थित है।

लोकनाट्य की लघु परंपराएँ:

लोकनाट्यों की ये परंपराएँ बृहत् परंपरा कही जा सकती है, जिनका स्वरूप अन्य लोकनाट्यों में अखिल भारतीय स्तर पर किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों में लोकनाट्यों की कुछ परंपराएं ऐसी हैं, जो विभिन्न लोकाचारों या अनुष्ठानों से जुड़ी हैं। 

ये लोकनाट्यों की लघु परंपराए कही जा सकती हैं। इन परंपराओं को जिलाए रखने में महिलाओं की खासी भूमिका रही है। विवाह के समय इस तरह के लोकनाट्य महिलाएं अपने मनोरंजन के लिए करती हैं। इन नृत्य रूपों में स्वांग, लीला जीवन की सच्चाइयाँ, सुख दुःख, गायन, वादन, हँसी-ठिठोली, अश्लीलता, कुंठाओं का निरास ये सभी सम्मिश्रित हो जाते हैं। 

इस तरह के नाट्य आशु रचनाएँ हुआ करती हैं, जिनका पूर्वनिर्धारित ढाँचा भर होता है, इसमें रंग हर अवसर पर नये भरे जाते हैं। प्रदेश के विभिन्न अंचलों में प्रचलित इन नाट्यों का परिगणन इस किया जा सकता है -

1. मालवा- टूटया, सिंगाइना,

2. बुंदेलखंड बाबा बाई, जोगिया,

3. बघेलखंड जिंदवा,

4. महाकोशल डेडवा या नकटी नकटा,

5. नीमा स्वांग,

विवाह के समय बारात के चले जाने पर महिलाओं द्वारा किये जाने वाले ये नाट्य रात में 5 से 6 घंटे तक चलते हैं। हुड़दंग, उल्लास और फूहड़पन का अनोखा घालमेल इनमें किया जाता है। दर्शक और अभिनेता के बीच की कोई दीवार इसमें नहीं होती, अभिनेता दर्शक बन जाती है, दर्शक अभिनेता।

लोकनाट्य की इस तरह की लघु परम्पराएँ केवल महिलाओं में ही सीमित हों, ऐसा नहीं है। वास्तव में विवाह जैसे सामाजिक अनुष्ठानों में नाट्य की उपस्थिति गहरे स्तरों में अनुप्रविष्ट होती है। 

उदाहरण के लिये मंडपाच्छादन की रस्म अपने आप में नाटकीय होती है। होशंगाबाद जिले के एक अंचल भूआणी तथा मालवा के अनेक क्षेत्रों में मंडपाच्छादन को नाट्य के रूप में ही संपन्न किया जाता है। वहाँ इसे मांडा' कहा जाता है। 

मांडे के समय गीत गाये जाते हैं, सारे घर को कच्चे सूत से बाँधा जाता है और पितरों को विवाह में उपस्थित होने का न्योता दिया जाता है।