विन्ध्यांचल के गौरव बघेलखण्ड की रोचक दास्ताँ 'वरुणांचल' शेषावतार लक्ष्मण की राजधानी
विन्ध्यांचल के गौरव बघेलखण्ड की पहचान प्राचीनकाल से उजागर है। बघेलखण्ड और रीवा रियासत परस्पर पर्यायवाची जैसे हैं। शिव संहिता में इस भूखण्ड का उल्लेख 'वरुणांचल' नाम से है। इसे शेषावतार लक्ष्मण की राजधानी माना गया है। इस अंचल में लक्ष्मण की उपासना लोकप्रिय है। सीधी-शहडोल के गोंड आदिवासियों में लछिमन यती का कथानक प्रचलित है। वनवास काल में इस भू-भाग में राम-लक्ष्मण और सीता को कुछ काल तक निवास करना पड़ा था। इन्द्रकामिनी नामक अप्सरा ने लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य व्रत भंग करने का छल किया। उसने लक्ष्मण के बिस्तर पर अपना कर्णभूषण डाल दिया।
प्रात:काल जब सीता लक्ष्मण को भोजन कराने आईं तो उन्हें यह कर्णभूषण दिख गया। सीता ने इस प्रसंग को राम से उजागर किया। राम ने जैतपुर अचल के गोंड परिवारों को एकत्र कर कर्णभूषण की पहचान करायी कर्णभूषण किसी गोंड आदिवासी स्त्री के कान में ठीक से नहीं उतरा। अन्त में सीता के कानों के साथ कर्णभूषण का परीक्षण किया गया और वह उपयुक्त पाया गया। इससे राम के मन में लक्ष्मण और सीता के सम्बन्ध के प्रति सन्देह जाग उठा। राम ने गोंडों की सहायता से निकटवर्ती जंगल से लकड़ी इकट्ठा कर आग जलवाई और उसी में लक्ष्मण को झोंक दिया। निष्कलुष लक्ष्मण को अनि न जला सकी किन्तु लक्ष्मण का हृदय आत्म ग्लानि से भर गया।
प्राचीन ग्रंथों में बघेलखण्ड का नाम 'करुष' है जिसका शाब्दिक अर्थ 'क्षुधा' होता है। बघेली लोक जीवन अभावों और संकटों से त्रस्त रहा। अत: करुष (क्षुधा) नाम की सार्थकता सिद्ध होती है। जनश्रुति है कि करुष नाम इन्द्र ने दिया था। वासुदेव शरण अग्रवाल ने 'भारत सावित्री' नामक पुस्तक में उपर्युक्त कथन की पुष्टि की है-'बघेलखण्ड का बड़ा भाग करुष जनपद था, जहाँ अनेक जंगली जातियाँ पहले और आज भी बसती हैं।" प्रागैतिहासिक काल से साहित्यिक और सांस्कृतिक साक्ष्य करुषांचल (बघेलखण्ड) में मौजूद है। ऐतिहासिक काल में यह जनपद मगध साम्राज्य में आ गया। चाणक्य की चर्चित कृति 'अर्थशास्त्र' में करुष हाथियों का वर्णन मिलता है।
मगध साम्राज्य पतन के बाद गुप्तकाल का उत्कर्ष हुआ। इस काल में यह अंचल आटवि राज्यों के अधीन था, जो समयान्तर में गुप्त साम्राज्य के अन्तर यह भूखण्ड सम्राट हर्षवर्धन के आधिपत्य में रहा। और एलोरा की चित्रकला में स्थित स्थान से विकसित वाकाटक की फैली थी। महाराज बघेलखण्ड में दिनों और दक्षिणी भाग पाण्डुओं के आधिपत्य में था। बघेलखण्ड में होने प्रभाव अस्त कलचुरि नरेशों से गुजरता हुआ यह भूखण्ड आया।
जनपद एक छोर (अमरकंटक) और दूसरे छोर में चित्रकूट अवस्थित ग्रामीण संस्कृति वाला अपनी निजता साथ पर्वत मालाओं और सरिताओं से इसके उत्तर में इलाहाबाद, सीमा छत्तीसगढ़ रियासत और मिर्जापुर कुछ जिले में जबलपुर के कुछ जिले तथा दक्षिण में बिलासपुर स्थित कहा जाता कि नाम की से गाँव बसा राजा देव शहर विकसित बिलासपुर नाम दिया। विलास देव (लगभग वि.स. 1300 से 1325) बघेल वंश आते|
प्रशासनिक दृष्टि बघेलखण्ड अन्तर्गत रीवा, सतना, सीधी, शहडोल और उमरिया जिले आते हैं। इलाहाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक मानचित्र अनुसार की परिधि में सोनभद्र, मिर्जापुर, इलाहाबाद, रीवा,सतना, शहडोल, उमरिया,जबलपुर, सिवनी और नरसिंहपुर प्रखण्ड आते हैं| इस जनपद की-सभ्यता-कौशाम्बी,मातृभाषा-बघेली, लिपि-श्रीहर्ष हैं| व्याघ्रदेव बघेल वंश के मूल पुरुष हैं-
व्याघ्राक्रतिः व्याघ्रदेव तस्मात् बघेल वंशम |
'बघेल' नाम्रि ग्रामेण बघेल शब्दामागतः||
बघेलखण्ड नामकरण शब्दों सांकेतिक अर्थ निहित है और सोलंकी अनोराज सम्वत् 1220 बघेला व्याप्रपाणी जागीर में मिला था। बघेलवारी 1233-34 में व्याघ्रदेव ने बघेलवारी बस्ती बसायी | 22 कि.मी. दक्षिण अंचल बघेलान कहलाया| मुगल शासन काल बघेलखण्ड का नाम 1853 'मौन' कवि शब्द प्रयोग किया। इसके बाद बघेलखण्ड नाम की निरन्तरता पायी जाती है। सन् 1862 में बघेलखण्ड का क्षेत्र विस्तार सुनिश्चित हो गया। सन् 1871 में कर्नल एडवड कालवोन ब्राड कोर्ट पोलिटिकल एजेर के अनुज्ञा- पत्र में बघेलखण्ड शब्द पहली बार प्रयुक्त हुआ। चौतीस पीडी तकबघेल राजाओं की सत्ता रही | महाराज मार्तण्ड सिंह बघेल वंश के अन्तिम नरेश रहे ।
महाराजा मार्तण्ड सिंह ने विश्व को सफेद शेर की अद्वितीय सौगात दी। महाराजा रीवा श्री मार्तण्ड सिंह जूदेव द्वारा पहली बार यह कोशिश हुई कि सफेद शेर की संतंति को बढाया जाये| 'मोहन का सर्वप्रथम मिलान 'बेगम' नामक शेरनी से कराया गया। इसके मिलन से 10 बच्चे हुये जो सभी पीले रंग के थे। इन्हों में से राधा' नाम शेरनी का मिलन पुनः 'मोहन' से कराया गया जिससे 14 बच्चे हुए। 11 सफेद रंग के व 3 पीसे रंग के थे। इस घटना ने सबको आश्चर्य चकित कर दिया। इस तरह वन्य जीव संरक्षण एवं संवर्धन में महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त हुई और रीवा को भी सफेद शेर की मौजदूगी ने विश्वविख्यात कर दिया।
विश्वविजयी गामा पहलवान, बुद्धि चातुरी के पुरोधा बीरबल और संगीत सम्राट तानसेन बघेलखण्ड की परिभाषा है। साहित्य की श्रेष्ठ कृति कादम्बरी के प्रणेता बाणभट्ट की कर्म स्थली का गौरव बघेलखण्ड को प्राप्त है। बघेलखण्ड की सभ्यता और संस्कृति ग्रामीण समाज, कुलीन समाज और जनजातीय परम्परा के रसायन से बनी-ढली है। यह भूखण्ड राजतंत्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र पोषित व्यवस्था का साक्षी है। कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत और शौर्ष की अद्भुत छटा का दर्शन बघेलखण्ड के जनजीवन में होता है। बघेली भूमि की अस्मिता का अलंकारिक वर्णन दृष्टव्य है।
जउने दिन बनी बघेली माटी
सरग मा बजा बधाउ रामा
ब्रह्मा नगदि कलम लई बइठे,
शिव लइके डमरू बाघम्भर।
विष्णु लाइ लक्ष्मी का बइठे,
मूड़े मुकुट ओड़ि पीताम्बर।
बपेली भूमि की रचना के समय स्वर्ग में बधाई बजी है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों ने अपना पुलक प्रकट किया है। शक्ति स्वरूपा सिंह वाहिनी दुर्गा ने चमचमाती तलवार धारणकर अभय दान दिया है। ज्ञान की देवी सरस्वती ने वीणा पर सातों स्वरों को झंकृत किया है।
दुर्गा सेरे पर सवार होइ,
लपलपाति तरवार निकारिन |
सातों स्वर पर तार बजाइन ||
बघेलखण्ड को धरती यदा-कदा ही रक्त-रंजित हुई है। यहाँ के शासक शूरवीर होने के साथ दानवीर , उदार और सुलह-समझौतावादी रहे हैं। परीक्षा की ही घडी में तलवार निकालते थे। किन्तु चुनौती का मुकाबला करने को प्रतिपल कटिबद्ध रहते थे। बघेल वंश की रानियों की शौर्यगाथा इतिहास में अमर है। महाराज अजीत सिंह की रानी वीरांगना कुन्दन कुँवार की ललकार से नैकहाइ का युद्ध जीता गया| यशवन्त राव नायक (पूना) का शिरच्छेदन हुआ।
'बलकइ लागि जवानी सुनिकइ , कुन्दर कुमरि केर फटकार।
कूदि कूदि कई धाय परे सब, लइ लइ भाला अउर कटार ||
दुपहरिया केर सुदिन पाइ कै, घेरा दिहिन दउडी के डारि।
हाथे कइ करछुरी करचुली, नायक केर सिर लिहिन उजारि ||'
रानी की तलकार से बघेली वीरों का पौरुष खौल उठा। भाला,ढाल और कटार धारण कर नायक के विरुद्ध युद्ध करने के लिए चल पड़े। सुनसान तपती दुपहरी में चारों ओर से शत्रु को घेर लिया। करचुली कलन्दर सिंह ने यशवन्त राव नायक का सिर काट डाला।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बघेलखण्ड के सपूतों की शहादत सोने के पानी में लिखी जाएगी। 1857 की क्रान्ति में ठाकुर रणमत सिंह का बलिदान अमर गाथा है। रणमत सिंह ने अग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। रणमत सिंह की तलवार का जौहर अंग्रेजों के सिर पर चढ़कर बोलता था-
मरि गइ अंगरेजन कै नानी,
परि गई गोहार भुई कापि उठी।
रण मा रणमत सिंह के जब,
तरबार उठी तरवार उठी ||
रणजीत राय दीक्षित, श्याम शाह ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर प्राणाहुति दो। लालपद्मधर सिंह तिरंगे की रक्षा करते हुए इलाहाबाद में शहीद हुए। बघेलखण्ड की साहित्य परम्परा में समाज से उभरे जन कवियों के समानान्तर राजाओं का साहित्यिक अवदान भी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के राजा-महाराजाओं का साहित्यानुराग बहुचर्चित है। सगुण और निर्गुण धारा का स्पष्ट रूप बघेलखण्ड की साहित्य परम्परा में देखने को मिलता है। कबीर की गद्दी के उत्तराधिकारी धर्मदास ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि थे| महाराजा रघुराज सिंह ने 'भक्तमाल रामरसिकावली में उल्लेख किया है-
बांधवगढ़ पूरब जो गयो।
सेन नाम नापित तह जाओ॥
ताकी रही सदा यह रीति।
करत रहे साधन सो प्रीती।
तह को राजा राम बघेला।
बरन्यो जोहि कबीर का चेला॥
महाराज जयसिंह द्वारा रचित अट्ठाईस काव्य ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। जिसमें 'हरिचरित-चन्द्रिका' और 'कृष्ण तरंगिनी प्रमुख है। महाराज विश्वनाथ सिंह हिन्दी और संस्कृत भाषा के अनेक रथों के प्रणेता रहे हैं। विश्वनाथ सिंह द्वारा लिखित 'आनन्द रघुनन्दन नाटक' हिन्दी का पहला नाटक माना जाता है। महाराज रघुराज सिंह को साहित्य साधना विरासत में मिली थी। सरस्वती पुस्तकालय रीवा के अभिलेख के अनुसार रघुराज सिंह ने इक्कीस ग्रंथों की रचना की, जिनमें रामस्वर्ंबर' और 'रुक्मिणी परिणय' विशेष उल्लेखनीय है।
राजा रघुराज सिंह रचनाकारों के आश्रयदाता थे। भक्ति और श्रंगार परक गीतों के रचयिता लोककवि मधुर अली को राज कोष से साहित्यिक वृत्ति मिलती थी। मधुर अली की 'युगल विनोद' रचना लोकमानस की धरोहर है। लोक रचनाकार मधुर अली अच्छे गायक थे। इन्हें राग-रागनियों का जान था| इनकी उपासना पद्धति सखी-साख्य भाव की थी। मधुर अली की भक्ति में द्वैत भाव नहीं है|
महारानी कीर्ति कुमारी बघेलखण्ड की मीरा मानी जाती हैं। इनकी रचनाओं में श्री कृष्णचरित का हृदयग्राही वर्णन मिलता है। नईगढ़ी के डॉ. गोपालशरण सिंह ने जगदालोक महाकाव्य की रचना की। विद्रोही कवि शेषमणि रायपुरी ने अपनी सामर्थ्य काव्य चेतना से बघेलखण्ड को गौरवान्वित किया है। बघेली बोली के लोक कवि हरिदास 'बैजू ' और 'सैफू' ने अपनी बघेली रचनाओं से बघेलखण्ड का मान बढ़ाया है।