भविष्य पुराण संक्षेप-
दिनेश मालवीय
सूर्य की उपासना और उसके फल का जैसा अद्भुत वर्णन ‘भविष्य पुराण’ में किया गया है, वैसा कहीं और नहीं मिलता. इसीलिए इसे “सौर ग्रंथ” भी कहा जाता है. इमें सूर्य की महिमा, उसके परम तेजस्वी रूप, उसके परिवार, उसकी उपासना पद्धति, सूर्य से जुड़े विभिन्न व्रतों, उनको करने की विधि आदि का वर्णन है. इसमें सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षण, रत्नों और मणियों के परीक्षण की विधि, विभिन्न स्तोत्र, औषधियों के साथ ही सर्प विद्या का इसमें विशद ज्ञान निहित है. इसमें अनेक राजवंशों का उल्लेख और तत्कालीन सामजिक व्यवस्था आदि का भी विस्तृत वर्णन है.
यह पुराण चार खण्डों में विभाजित है -बाह्य पर्व, माध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर और उत्तर पर्व.
बाह्य पर्व व्यासजी के शिष्य महर्षि सुमन्तु और राजा शतानीक का संवाद से प्रारम्भ होता है. इसमें वेदों और पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, गर्भाधान से लेकरर यज्ञोपवीत संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दायें हाथ में स्थित विविध पाँच प्रकार के तीर्थ, ओंकार और गायत्री जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महत्ता, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंचमहायज्ञों, पुरुषों और राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास विधि आदि का वर्णन और उनसे जुड़ी कथाएं दी गयी हैं.
इस पर्व में पाँच यज्ञ बताये गये हैं- ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देवयज्ञ, भूत यज्ञ और अतिथि यज्ञ. ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ ब्रह्मयज्ञ, पितरों की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ पितृयज्ञ, देवताओं की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ देवयज्ञ और समस्त प्राणियों की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ भूतयज्ञ कहा जाता है. अतिथि की सेवा करना ही अतिथि यज्ञ कहा जाता है.
मध्यम पर्व में प्रमुख रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय वर्णन मिलता है. चन्द्र, सौर, नक्षत्र और श्रवण मास के नाम से चार प्रकार के महीने बताये गये हैं. शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास ‘चन्द्र मास’, सूर्य द्वारा एक राशि में संक्रांति से दूसरी संक्रांति में प्रवेश करने का समय ‘सौर मास” अश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यंत “नक्षत्र मास” और पूरे तीस दिन या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक के समय को “श्रावण मास” कहा जाता है.
श्राद्धकर्म, पितृकर्म आदि ‘चंद्रमास में करने का विधान है. सोम या पितृगण के कार्य “नक्षत्र मास” में, प्रायश्चित, अन्नप्राशन, मंत्रोपसना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म “श्रवण मास” में करना चाहिए.
प्रतिसर्ग में इतिहास का सुंदर विवेचन है. इसमें ईसा मसीह के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मोहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहन, सतयुग के राजवंशों का वर्णन, त्रेतायुग के सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं का वर्णन, द्वापर युग के चंद्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलियुग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं और उनकी भाषों का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नंद, बौद्ध राजाओं और चौहान व परमार राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है. इसमें राजवंशों से जुडी कई कथाओं के जरिये मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों की स्थापना की प्रेरणा दी गयी है. इसीमें प्रसिद्ध बैताल कथाओं का उल्लेख भी है. जीमूतवाहन और शंखचूड़ की कथाएं भी इसी पुराण में आती हैं. इसी पर्व में श्रीसत्यनारायण व्रत कथा भी आती है. इस पर्व में भारत के करीब एक हज़ार साल के इतिहास पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला गया है.
उत्तर पर्व में विष्णु-माया से मोहित नारद का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का महात्म्य बताया गया है. गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन भी इसीमें है, जो पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता बढाने वाला कहा जाता है.
भविष्य पुराण की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गयी है, जो ईरानी पुरोहित थे. ये लोग ईसा से तीसरी सदी में भारत में आकर बस गये थे. ये सूर्य के उपासक थे. उन्होंने ‘खगोल विद्या’ और ज्योतिष’ का भी प्रसार किया. प्रसिद्ध आचार्य वराह मिहिर मग ब्राह्मण ही थे.
भविष्य पुराण में तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी बहुत प्रकाश डाला गया है. इसके अनुसार’ जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से होती है. इसका आधार आचरण होता है. इस पुराण के अनुसार दक्ष की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हुआ था. उसीसे यम और यमुना का जन्म हुआ. इस पुराण में गणेशजी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तार से वर्णन मिलता है. इसमें बताया गया है कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार में लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दुःख सहन करना पड़ता है, भले ही वह ब्राह्मण क्यों न हो.
भविष्य पुराण में पाँच प्रकार के गुरु बताये गये हैं. पहले. आचार्य जो वेदों का रहस्य समझाएं. दूसरे, उपाध्याय जो जीविकोपार्जन के लिए वेदपाठ करवाएं. तीसरे, गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और संतानों को शिक्षित करें और उनमें कसी प्रकार का भेदभाव न करें. चौथा, ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराये. पांचवां, महागुरु जो गुरुओं का भी गुरु हो. जिसने वेद, पुराण, रामायण और महाभारत का पूरा अध्ययन किया हो और जो सूर्य, शिव, विष्णु आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो.