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आखिर वोटों के लिए ही क्यों है आदिवासी, आदिवासी नेतृत्व को बढ़ाने के लिए बीजेपी-कांग्रेस ने क्या किया. अतुल पाठक...

अतुल विनोद अतुल विनोद
Updated Tue , 27 Jul

सार

भारतीय जनता पार्टी की सत्ता संगठन सब कुछ आदिवासियों के वोट बैंक को साधने में पूरी ताकत झोंक रहे हैं|

janmat

विस्तार

आखिर वोटों के लिए ही क्यों है आदिवासी, आदिवासी नेतृत्व को बढ़ाने के लिए बीजेपी-कांग्रेस ने क्या किया. अतुल पाठक... 

मध्यप्रदेश में आदिवासियों के दम पर ही सरकार बनती है और उन्हीं की उपेक्षा से गिरती है| आदिवासी मध्य-प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है लेकिन आदिवासियों के नाम पर सियासत करने वाले इन दलों ने आखिर उन्हें दिया क्या है? आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों को छोड़ दें तो क्या अनारक्षित सीटों पर कभी कांग्रेस और बीजेपी ने आदिवासी नेताओं को टिकट दिया है?

सबसे पहले बात बीजेपी की फिर आयेंगे कांग्रेस पर यदि वाकई बीजेपी ने आदिवासियों को पर्याप्त महत्व दिया होता तो 2018 में आदिवासी क्षेत्रों की 47 सीटों में से 30 कांग्रेस को नहीं मिलती| यह फैक्ट भारतीय जनता पार्टी की रिसर्च में भी सामने आया, पार्टी को लगा कि जिन आदिवासियों के समर्थन से वह 2003 के बाद लगातार सरकार बनाती रही है उन्हें साधना 2023 के चुनाव में उसकी सफलता की बुनियाद बन सकता है|

सियासत में वोट बैंक की राजनीति ही हर तरह के पंच, प्रपंच, अभियान, आंदोलन, और नारों केंद्र होती है| वोट बैंक की सही आदिवासी वर्ग फिर से मध्य प्रदेश की सियासत के केंद्र में हैं| 

भारतीय जनता पार्टी की सत्ता संगठन सब कुछ आदिवासियों के वोट बैंक को साधने में पूरी ताकत झोंक रहे हैं|

आदिवासियों के लिए आरक्षित 48 सीटों को छोड़ दें तो 30 सीट और भी है जिन पर आदिवासियों का खासा वोट बैंक है| आदिवासियों के इतने प्रभाव के बावजूद भी मध्यप्रदेश में इस वर्ग का नेतृत्व सही मायने में क्यों नहीं पनप पाया?

ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों ने आदिवासी नेतृत्व को जगह नहीं दी लेकिन उन्हें वह मुकाम नहीं मिला जिस की दरकार थी|

आदिवासी वर्ग से जो नेता सामने आए वह खुद भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं||

भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो आदिवासियों के नाम पर अनुसूचित जाति जनजाति के नाम पर उसके पास मध्यप्रदेश में गिने-चुने चेहरे हैं|  इनमें सबसे आगे हैं फग्गन सिंह कुलस्ते हैं जो केंद्र में राज्यमंत्री हैं| 

फग्गन सिंह कुलस्ते के बाद पार्टी के पास कोई दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है जो मध्यप्रदेश के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी नेतृत्व के नाम पर अपनी पहचान स्थापित कर सका हो| 

लास्ट विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मालवा-निमाड़ से लेकर मंडला-डिंडौरी, अनूपपुर, उमरिया, बालाघाट, छिंदवाड़ा, बैतूल सभी जिलों में बड़ा नुकसान हुआ। ऐसा लगता है कि पार्टी आदिवासी नेताओं को आगे नहीं लाना चाहती यह जो आदिवासी नेता आगे आए हैं वह अपनी खोल से बाहर नहीं निकल पाए|

आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले जो नेता भारतीय जनता पार्टी के पास है उनमें से एक है विजय शाह, विजय शाह को मध्य प्रदेश में कैबिनेट में स्थान मिलता रहा लेकिन उनका व्यक्तित्व पार्टी की अपेक्षाओं के अनुरूप विकसित नहीं हो सका और वह पार्टी में उस स्थान पर नहीं पहुंच पाए जो उन्हें आदिवासी होने के कारण मिल सकता था| 

नेतृत्व संकट के बावजूद भी आदिवासी कांग्रेस के पक्ष में हो गया हो ऐसा कहा नहीं जा सकता क्योंकि लोकसभा चुनाव में आदिवासियों ने बीजेपी का साथ दिया| कांग्रेस में आदिवासी नेतृत्व की क्या स्थिति है यह आगे बात करेंगे| 

भारतीय जनता पार्टी को आज ऐसे आदिवासी चेहरे की तलाश है जिसकी बदौलत वह आदिवासी वर्ग में पैठ बना सके और अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर सकें|

कांग्रेस को भी ऐसे आदिवासी नेता की तलाश है जो  2018 की तरह आदिवासी वर्ग को कांग्रेस के पाले में बैठाये रखे|

बात करें कांग्रेस की तो  कांग्रेस में आदिवासी वर्ग से आने वाले नेताओं की संख्या कम नहीं है| लेकिन आदिवासी वर्ग के कांतिलाल भूरिया को छोड़ दें तो राष्ट्रीय स्तर पर आज कोई भी नेता अपनी पहचान नहीं रखता| कांतिलाल भूरिया भी केंद्र की राजनीति छोड़ मध्य प्रदेश से विधायक बन गए हैं| मध्यप्रदेश में आदिवासी नेतृत्व को लेकर कांग्रेस में अंदरूनी सियासत गर्म आती रही है| कभी बाला बच्चन को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांग उठी तो कभी उमंग सिंगार का नाम सामने आया| हालांकि यह दोनों नेता अपने क्षेत्रों तक ही सीमित है और इनका मध्य प्रदेश की राजनीति में लोकप्रिय स्थान नहीं है|

मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास जमुना देवी, दलवीर सिंह भंवर सिंह पोर्ते, जैसे कई बड़े चेहरे रहे हैं| लेकिन इन्हें भी कांग्रेस ने शीर्ष स्थान देने से परहेज किया|

फिलहाल कांग्रेस की राज्य की राजनीति में पूर्व मंत्री उमंग सिंघार(जमुना देवी के भतीजे) हैं, कांतिलाल भूरिया, ओमकार सिंह मरकाम, फुंदेलाल सिंह माकरे जैसे विधायक है| कांतिलाल भूरिया पिछली पीढ़ी के नेता है तो उमंग सिंगार, ओंकार सिंह और फुंदेलाल नई पीढ़ी के|  

सवाल यह है कि नई पीढ़ी के आदिवासी नेता पर कांग्रेसी दाव लगा पाएगी? उस दौर में जब कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रप अपना मुकाम बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्या आदिवासी नेता खुद से आगे बढ़कर कांग्रेस में शीर्ष पर पहुंचने की ताकत रखता है? यह तभी संभव है जब पूरी पार्टी उस नेता के पीछे खड़ी हो जाए, ऐसा कोई नेता नहीं जो खुद अपने दम पर इस तरह का मुकाम बना पाए?

आदिवासी वर्ग से आने का मतलब यह नहीं है कि कोई नेता आदिवासियों का नेता हो गया? जब तक वह आदिवासी वर्ग का रहन-सहन, वेशभूषा, बोलचाल और उनके मुद्दे और हुकूक को लेकर मुखर नहीं है तब तक वह उस समाज का जरूर हो सकता है लेकिन उस समाज का प्रतिनिधि नहीं कहला सकता|

MP में आदिवासी जनजाति .

मप्र की कुल जनसंख्या की लगभग 20 प्रतिशत आबादी से ज्यादा यानी लगभग दो करोड़ आदिवासी हैं.

जनगणना 2011 के मुताबिक, मध्यप्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं

इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा 59.939 लाख है.

इसके बाद गोंड समुदाय का नंबर आता है, जिनकी आबादी 50.931 लाख है.

इसके बाद कोल 11.666 लाख है, कोरकू 6.308 लाख, सहरिया 6.149 लाख का नंबर आता है.

2018 में कांग्रेस को आदिवासी वर्ग का बड़े स्तर पर समर्थन मिलने का मतलब यह नहीं कि कांग्रेस ने क्षेत्र में कुछ खास काम किया था यह तरह से सत्ता विरोधी वोट मिलने का नतीजा था|  

आदिवासी क्षेत्र में जमीनी स्तर पर कांग्रेस ने कुछ बहुत ज्यादा नहीं किया| ऐसा क्या रहा कि बीजेपी आदिवासी वोट के दम पर सरकार बनाती रही? इसके लिए भारतीय जनता पार्टी ने आरएसएस की सहायता से एक खास रणनीति बना रखी थी|

बीच में एक ऐसा दौर आया जब गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के उभरने से लगा कि आदिवासी वर्ग इस पार्टी के साथ जाएगा लेकिन यह पार्टी राजनीतिक सौदेबाजी और महत्वाकांक्षा के कारण अपना अस्तित्व नहीं बचा सकी|

आरएसएस ने आदिवासियों को बीजेपी के पक्ष में करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई| आदिवासियों के बीच आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण परिषद ने बहुत काम किये|

आदिवासियों को धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ा गया, उन्हें दूसरे राज्यों में धार्मिक यात्राओं पर भेजा गया इन इलाकों में छात्रावास और पुस्तकालय खोले गए|