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क्या सचमुच देश में 80 करोड़ लोग इतने ग़रीब हैं ! रियायत नहीं सियासत ज्यादा लगती है -दिनेश मालवीय

सार

देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है, सवाल यह उठता है, कि क्या सचमुच देश में 80 करोड़ लोग इतने ग़रीब हैं, कि उनके पास खाने के लिए अनाज ख़रीदने के भी पैसे नहीं हैं ?

janmat

विस्तार

भारत अजूबों से भरा देश है. एक तरफ हमारे कर्णधार कह रहे हैं, कि देश चौतरफा प्रगति कर रहा है, तो दूसरी तरफ यह बात बहुत गर्व से कही जा रही है, कि देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रहे हैं. सवाल यह उठता है, कि क्या सचमुच देश में 80 करोड़ लोग इतने ग़रीब हैं, कि उनके पास खाने के लिए अनाज ख़रीदने के भी पैसे नहीं हैं ? अगर ऐसा है, तो यह गर्व की बात है या शर्म की? दो साल तक कोरोना संकट के समय तो यह बात समझ में आती है, कि गरीबों को मुफ्त राशन दिया गया. यह वह पूरी तरह लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुकूल है. लेकिन क्या इसे जीवन भर लागू रहने दिया जाना चाहिए ?

 

उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों के प्रचार पर नज़र डालें, तो स्पष्ट हो जाएगा, कि हरएक दल सिर्फ लोगों को मुफ्त में कुछ  न कुछ देने का वायदा कर रहा है. कोई कह रहा है,कि लड़किओं को मुफ्त स्कूटी और मोबाइल देंगे तो कोई किसानों की क़र्ज़ माफी की बात कर रहा है. कोई बिजली मुफ्त देने की बात कर रहा है,तो कोई कुछ और देने की. यह कोई नहीं कह रहा, कि हम उत्तर प्रदेश का इस तरह विकास करेंगे, कि लोग मुफ़्त में कुछ भी लेने से इनकार कर दें. वे मुफ़्त में कुछ दिए जाने की बात को अपना अपमान समझें.

 

उत्तर प्रदेश की बात तो संदर्भ वश कही है, लेकिन कमोवेश यही हालत हर जगह हो  रही है. साउथ के प्रदेशों में तो बाकायदा कलर टीवी और सोने के मंगलसूत्र देने का वादा किया जाता है. अर्थव्यवस्था के जानकार इसे “गुड पॉलिटिक्स बट बैड इकोनॉमिक्स” कहते हैं. लेकिन मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूँ. यह गुड इकोनॉमिक्स तो है ही नहीं, लेकिन यह गुड पॉलिटिक्स  भी बिल्कुल नहीं है. पॉलिटिक्स का दायित्व है ,लोगों का इस तरह विकास करना, जिसमें उनकी सक्रिय भागीदारी हो. लोग श्रम का महत्व समझकर देश और समाज में समानता से सहभागी बनें. आज की पॉलिटिक्स तो लोगों को मुफ़्तखोर बना रही है.

 

गुड पॉलिटिक्स तो यह होती, कि पहले यह निर्धारित किया जाए, कि वास्तव में ग़रीब है कौन? ग़रीबों के नाम पर अधिकतर ऐसे लोग उन्हें मिलने वाली सुविधाएँ ले रहे हैं, जिनके पास अपनी  सारी ज़रूरतों को पूरा करने के संसाधन हैं. कोरोना काल में मैंने ही कई ऐसे लोगों को मुफ़्त अनाज की बोरियां ढोकर घर लाते देखा है, जो किसी भी तरह ग़रीब नहीं हैं. ग़रीबों को सबकुछ  मुफ्त में देने से कथित ग़रीबी अनंतकाल तक दूर नहीं होने वाली. कालांतर में जो लोग ग़रीब नहीं अह जाएँगे, वे भी मुफ़्त में सबकुछ पाने के लिए ख़ुद को ग़रीब के रूप में ही पेश करना चाहेंगे. राजनीतिक कारणों से उन्हें कोई “ग़रीबी रेखा” से ऊपर मानने को तैयार नहीं होगा. उन्हें इस सूची से बाहर निकालने का वे राजनीतिक कारणों से विरोध करेंगे.

 

इसका एक व्यावहारिक समाधान यह हो सकता है, कि ग़रीबों को कुछ भी मुफ़्त देने के बजाय, रियायती दर पर सुविधाएँ दी जाएँ. जो लोग गरीब नहीं हैं, उन्हें भी यदि कुछ कम दाम पर चीज़ें मिल जाएँ, तो इसमें क्या बुराई है. मध्यप्रदेश में “एक्बती कनेक्शन” के नाम पर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को मुफ़्त एक सीमा तक मुफ़्त बिजली देने की परिपाटी  शुरू हुयी. लेकिन यह सुविधा एक बत्ती तक सीमित नहीं रही. लोगों ने ख़ूब जमकर बिजली का उपभोग किया. शहरों में ही नहीं, बल्कि गांवों में लोग बिजली के खम्भों से सीधे बिजली लेने लगे. हालत यह होती गयी, कि प्रदेश में बिजली का ऐसा हाहाकार हुआ, कि प्रदेश “लालटेन युग”में  पहुँच गया. लेकिन इस आपदा से कोई सबक नहीं लिया गया. बिजली पर सब्सिडी और मुफ्त सप्लाई की प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा और दिनों दिन हालत बाद से बदतर होती जा रही है.

 

मध्यप्रदेश ही नहीं, अनेक प्रदेशों में बिजली की ऐसी ही स्थिति हो रही है. इसका खामियाज़ा ईमानदारी से बिजली का बिल भरने वालों  को भुगतना पड़ता है. क्या कथित ग़रीब लोगों से बिजली का शुल्क लेना व्यावहारिक कदम नहीं होगा? आज बहुत कम अपवादों को छोड़कर कोई भी ऐसा परिवार नहीं है,जो रियायती दरपर भी बिजली का जमा नहीं कर सकें. ऐसा करने से लोगों में यह संस्कार और भावना विकसित होगी, कि हम जिस भी सुविधा का उपयोग कर रहे हैं, उसके लिए हमें भुगतान करना होगा. ऐसी स्थिति में वे किसी भी सुविधा का बेजा उपयोग करने से बचेंगे.     

 

इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ वर्ष पहले एक अभियान चलाया था, कि गरीबी रेखा से नीचे के फ़र्जी लोगों को सूची से बाहर किया जाए, लेकिन इसका कोई बहुत स्पष्ट परिणाम देखने में नहीं आया. वास्तव में ग़रीबी हटाने की इच्छाशक्ति है, तो इसका एक ही उपाय है, कि जो लोग ग़रीब हैं, उनमें गरीबी के दुश्चक्र से निकलने की तीव्र ललक पैदा की जाए. इसके लिए उन्हें “स्पून फीड” करने की जगह, ग़रीबी से ऊपर उठने के उनके प्रयासों में मदद की जानी चाहिए. कोई भी ग़रीब रहना नहीं चाहता. हर कोई स्वाभिमान से रहना चाहता है. इसमें सरकार को उनकी परोक्ष मदद की जानी चाहिए.

 

जनकल्याणकारी राज्य के नामपर मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना न तो ग़रीबी दूर होगी और न देश का कोई भला होने वाला. यह बात अच्छी तरह समझी जानी चाहिए, कि वास्तव में ग़रीब कौन है और उनके नाम पर बेजा फायदा लेने वाले कौन हैं. वास्तविक ग़रीबों को भी धीरे-धीरे इस तरह आगे बढ़ने में मदद जाए, कि वे खुद मेहनत करने में पीछे नहीं रहें. देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज देना कल्याणकारी की जगह राजनितिक अधिक लगता है.