कुछ दिन पहले मैं अपने घर के वरांडे पर बैठा था, घरों में घरेलू काम करने वाली महिलाओं (काम वाली बाइयों) ने छुट्टी मार दी थी. ऐसा अलग रहा था, कि आज मोहल्ले की महिलाओं के लिए इससे बड़ा मुद्दा कुछ नहीं है....
कुछ दिन पहले मैं अपने घर के वरांडे पर बैठा था. नीचे पास-पड़ौस की कुछ महिलाओं में बहुत गरमागरम चर्चा चल रही थी. मुद्दा यह था, कि उस दिन कुछ घरों में घरेलू काम करने वाली महिलाओं (काम वाली बाइयों) ने छुट्टी मार दी थी. ऐसा अलग रहा था, कि आज मोहल्ले की महिलाओं के लिए इससे बड़ा मुद्दा कुछ नहीं है. खैर, काम वाली महिलाओं के प्रति सबकी भड़ास निकलने के बाद एक महिला बोली, कि चलो अब अपने घरों में चलें, हम भी तो नौकरानी ही हैं. किसीने अपनी तुलना काम वाली बाइयों से कर दी.
इसके बाद एक महिला ने इस बात पर आपत्ति उठाते हुए कहा, कि ऐसा नहीं है. हम अगर घर का कम करती हैं, तो घर की रानी भी तो हम ही हैं. हम गृहणी हैं, जिसका अपना बहुत सम्मान और महत्त्व है. हम नौकरानी नहीं घर की रानी हैं. इस नये एंगल से सहमत हुए बिना कोई महिला नहीं रह सकी. सबने एक स्वर में कहा, कि हाँ सही तो है. हम जो करती हैं, उसमें हमें सुख मिलता है. फिर घर के पुरुष भी तो दिन-रात मेहनत करके घर की ज़रूरतें पूरी करते हैं. तो क्या वे “मजदूर” हो गये ?
महिलाएँ तो अपने-अपने घरों में चली गयीं, लेकिन मेरा खब्ती दिमाग न जान क्या-क्या सोचने लगा. मुझे वर्तमान में कुछ राज्यों में चल रहे चुनाव प्रचार में कही जाने वाली बातें याद आने लगीं. चुनाव प्रचार मने अनेक ऎसी बातें कही जाती हैं, जो ऊपर से देखने पर बहुत सामान्य या उचित लगती हैं, लेकिन उनके दूरगामी परिणाम बहुत दुखदायी होते हैं. आजकल उत्तरप्रदेश और पंजाब सहित कुछ राज्यों में चुनाव का प्रचार ज़ोरों पर है. इसमें जाति और धर्म के मुद्दे तो जमकर उछल ही रहे हैं, लेकिन एक नया मुद्दा उभरकर सामने आया है.
पंजाब में अरविन्द केजरीवाल कह रहे हैं, कि उनकी सरकार बनने पर प्रदेश की हर स्त्री और कन्या को एक हज़ार रुपये महीना दिया जाएगा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी ने प्रदेश की महिलाओं के लिए अलग से मेनिफेस्टो जारी किया है. उन्होंने भी अन्य सुविधाओं के साथ ही महिलाओं को अलग से नकद धनराशि देने की घोषणा की है. इसके अलावा प्रियंकाजी ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा,कि महिलाओं के घरेलू काम का पैसों में हिसाब लगाया जाए तो वह न जाने कितने हज़ार में आता है.
स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर इस तरह की सोच मुझे हमेशा विकृत लगती रही है. कुछ वर्षों से गृहणियों द्वारा किये जाने वाले घरेलू कामों का पैसों में हिसाब करने की बात बहुत तेजी से चली है. इस तरह की बातें करने वाले लोग भारतीय समाज की संरचना और पारिवारिक मूल्यों से या तो वाकिफ नहीं हैं या फिर अन्य अनेक बातों की तरह यह बात भी शरारतन कर रहे हैं.
सिर्फ भारत ही क्यों, लगभग सभी देशों में यह व्यवस्था सदियों से चली आ रही है, कि पुरुष कमाता है और स्त्री घर को सम्हालती है. कुछ अपवाद हो सकते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. महिलाओं को हर महीने अलग से कुछ रकम देकर क्या होगा. अभी घर में जो भी पैसा होता है, उसके प्रति उसमें यह भाव नहीं होता, कि यह उसका नहीं है. पति-पत्नी आपसी सहमति से उपलब्ध पैसा खर्च करते हैं. पुरुषों की मनमानी भी कुछ घरों में होती है, लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं होता. विवाह में दूल्हे से जो सात वचन दिलवाए जाते हैं, उनमें से एक यह भी है, कि वह कोई भी खर्च करने से पहले वह अपनी पत्नी से सलाह-मशविरा अवश्य करेगा. सामान्य रूप से ऐसा होता भी है.
महिलाओं को अलग से पैसा देकर उनमें उस पैसे पर एकाधिकार का भाव पैदा होगा,जो आने समय में बहुत विकृत रूप लेगा, इसकी पूरी संभावना है. इसके बदले क्या ऐसा नहीं होना चाहिए, कि पूरे परिवार की प्रगति के लिए योजनाएँ बनें. परिवार की प्रगति होती, तो महिलाओं की प्रगति अपने आप ही होगी. वह कोई परिवार से अलग तो है नहीं. महिलाओं में परिवार से अलग होने का भाव पैदा करना समाज के लिए कितना घातक होगा, इसका अनुमान करना भी कठिन है.
वैसे समाज अब काफी बदल रहा है. शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में महिलाएँ भी काम कर रही हैं. बड़ी संख्या में महिलाएँ नौकरी भी करने लगी हैं. इससे उनके परिवार की आर्थिक उन्नति में सहायता मिल रही है. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ खेती-किसानी और उससे जुड़े कामों में बराबर से सहभागी होती हैं. इसके बदले उन्हें अलग से कुछ वेतन आदि भले ही नहीं मिलता हो, लेकिन घर के पैसे को वे अपना ही पैसा मानती हैं. अधिकतर घरों में ऐसा होता भी है.
एक और ट्रेंड यह चल रहा है, कि महिलाओं की कमज़ोर स्थिति के लिए पूरी तरह पुरुषों को दोषी ठहरा दिया जाता है. लेकिन यह कहना सही और उचित नहीं है. अनेक महिलाएँ भी ऎसी होती हैं, जो पुरुषों के लिए जीवन को नरक बना देती हैं. वे बहुत डोमीनेटिंग होती हैं.
राजनीतिक दलों और नेताओं को इस तरह की बातें और ऐलान करने से पहले इस विषय को बहुत व्यापक और गहन रूप से सोचना चाहिए. तात्कालिक राजनितिक लाभ के लिए इस तरह की बातें करना न समाज के हित में है और न देश के लिए. न तो महिला “काम वाली बाई” है और न पुरुष “मजदूर”. दोनों सदियों से पूरे सामंजस्य के साथ अपना गृहस्थ जीवन सुख से बिताते आ रहे हैं. कृपया इस सामंजस्य को बिगाड़ कर स्त्री-पुरुष समानता के नाम पर उनमें टकराव पैदा नहीं करें.