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कृषि कानूनों की वापसी, लोकतंत्र की परिपक्वता का पैगाम, हार जीत नहीं अंततः हमारा लक्ष्य है, समृद्ध किसान..सरयुसुत मिश्र 

सार

मोदी का आज एक नया रूप भारत ने देखा है, प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ना केवल ऐलान किया, बल्कि उन्होंने देश से माफी मांगी, मोदी ने भारतीय लोकतंत्र के जन-गण का मन छू लिया..

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विस्तार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आज एक नया रूप भारत ने देखा है। जो लोग और दल उन्हें “हिटलर” कहते थे, आज उनकी जुबान लोकतंत्र जिंदाबाद कहने के लिए जरूर मजबूर हुई होगी। प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ना केवल ऐलान किया, बल्कि उन्होंने देश से माफी मांगी। माफी मांगते नरेंद्र मोदी ने भारतीय लोकतंत्र के जन-गण का मन छू लिया है।

तीनों कृषि कानूनों को रद्द कराने के लिए पिछले 1 साल से किसान आंदोलन चल रहा था। यह अलग बात है कि जो कानून अभी लागू नहीं है उनको लेकर आंदोलन क्यों और कैसे चल रहे थे?  कृषि कानून किसानों के हित में थे या नहीं ? इस बारे में व्यवहारिक बात तो अभी कोई नहीं कह सकता, क्योंकि यह कानून प्रभावशील ही नहीं हो पाए। इसलिए इनके परिणाम कैसे बताए जा सकते हैं। कृषि कानून, कृषि विशेषज्ञ और कृषि वैज्ञानिकों के सुझाव और पूर्व सरकारों के अध्ययन मनन से निकले दस्तावेजों के आधार पर, वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में, छोटे किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए, बनाए गए थे।

किसान संगठनों ने इस कानून का शुरू से, यह कहते हुए विरोध किया, कि यह किसानों के विरुद्ध हैं। आंदोलन के दौरान, किस किस तरह की परिस्थितियां निर्मित हुई, वह सब देश के सामने है। गणतंत्र दिवस पर लाल किले में किसान आंदोलन के नाम पर जो कुछ भी हुआ, वह किसी भी दृष्टि में जस्टिफाइ नहीं किया  जा सकता। किसी भी आंदोलन को कुचलने के लिए पूर्व की सरकारों ने बहुत से हथकंडे और तरीके अपनाएं और देश ने उन्हें देखा।

वर्ष 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का आंदोलन किसान आंदोलन से बड़ा आंदोलन था। पूरे देश में अन्ना हजारे के आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिल रहा था। उस समय की यूपीए सरकार ने किस तरह से इस आंदोलन को कुचला उसका सबसे बड़ा उदाहरण बाबा रामदेव थे जिन्हें बच्चियों की सलवार कुर्ती पहन कर वहां से भागना पड़ा। आंदोलन तोड़ने का क्या यह लोकतांत्रिक तरीका था। बिल्कुल नहीं। फिर भी इस तरह से कुचक्र और दमन के सहारे आंदोलन तोड़ने वाले, नरेंद्र मोदी को हिटलर कहने का दुस्साहस करते हैं. 1 साल से चल रहे किसान आंदोलन को, सरकार चाहती तो क्या “साम-दाम-दंड-भेद” से समाप्त नहीं करवा सकती थी। बिल्कुल करवा सकती थी, लेकिन नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने, जो आंदोलन को लोकतंत्र की बुनियाद मांनती हैं, तोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया।

मतभिन्नता, संवाद और समाधान लोकतंत्र का मूल आधार है। नरेंद्र मोदी सरकार ने किसान आंदोलन के मामले में, इसी आधार पर काम किया, अनेक बार आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच बातचीत हुई। सरकार के साथ ही विशेषज्ञों ने भी किसानों को कृषि कानूनों की उपयोगिता समझाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन किसान नहीं समझ पाए। ऐसा क्यों हुआ ? यह तो किसान नेता ही बता सकते हैं। लेकिन कहावत है कि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो  जागते हुए सोने का बहाना कर रहा है, उसे कैसे जगाया जा सकता है! शायद ऐसा ही किसान आंदोलन के साथ भी हुआ। आंदोलन के दौरान जिस तरह की घटनाएं हुई वह तो किसान नहीं कर सकते, जहां भी भीड़ और आंदोलन होता है, वहां उसका लाभ उठाने के लिए स्वार्थी शक्तियां अपने आप सक्रिय हो जाती हैं, और यही इस आंदोलन के साथ भी हुआ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जहां लोकतंत्र की मर्यादा के प्रति समर्पित दिख रहे थे, वहीँ सरकार की किसानों के प्रति संवेदनशीलता और अच्छी नियत को नहीं समझने के प्रति आहत भी दिखाई पड़ रहे थे। अब यह कानून वापस हो गए हैं, तो हार और जीत की प्रतिक्रियाएं बड़ी तेजी से आने लगी हैं। कोई कह रहा है किसान जीत गया, नरेंद्र मोदी और सरकार का अभिमान हार गया। कोई कह रहा है हमने पहले ही घोषणा कर दी थी कि किसान जीतेंगे और सरकार हारेगी । इस पूरे मामले में “हार और जीत” का सवाल कहां है? जब यह कानून बनाए गए थे तब भी हार और जीत का ध्येय नहीं था। किसानों की समृद्धि और विकास ही इसका उद्देश्य था। 

आंदोलनकारी किसान और किसान संगठनों को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि यह किसी की जीत और हार नहीं है। भविष्य में भी किसानों के हित में कदम उठाने का पक्का इरादा और वायदा प्रधानमंत्री ने किया है। जो विपक्ष “टूटा अभिमान जीता किसान” की बात कर रहे हैं, उनकी शायद लोकतंत्र के मूल्यों में आस्था नहीं है। लोकतंत्र में जनता मालिक और प्रधानमंत्री देश का प्रथम सेवक होता है। सेवक और मालिक के बीच कभी भी अभिमान का रिश्ता नहीं होता। रिश्ता सेवा और सम्मान का होता है। प्रधानमंत्री ने ऐसे ही रिश्ते का मान करते हुए, अपने मालिक देश की जनता, विशेषकर किसानों से माफी मांगी और कानून को वापस लिया।

नरेंद्र मोदी और सभी सरकारों का लक्ष्य समृद्ध किसान ही होना चाहिए। राजनीति देश के हर क्षेत्र में निचले स्तर तक पहुंच गई है। राष्ट्र और समाज के विषय भी राजनीति के नजरिए से देखे जाते हैं। किसान आंदोलन को भी सरकार के विरुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखा और उपयोग किया गया। अब जब प्रधानमंत्री ने कानून वापस ले लिये हैं तब लोगों को लगा कि अब तो मुद्दा छिन गया है। अभी यह प्रमाण तो आना बाकी है कि यह कानून किसानों के हित में थे कि नहीं थे।

प्रधानमंत्री ने एक कमेटी बनाई है, इस कमेटी के माध्यम से भविष्य में किसानों की जरूरतों के मुताबिक आगे काम करने का वायदा किया गया है। आंदोलन के पीछे जो राजनीतिक तत्व शामिल थे उन्हें शायद अब  सरकार के विरोध की अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा। देश के विकास और किसान के कल्याण के नरेंद्र मोदी की जिद और जुनून के आगे अंततः राजनीति को हारना होगा। जीता है मोदी, जीता है किसान और जीता है लोकतंत्र।  भविष्य में भी सकारात्मक काम और विचार ही जीतेंगे। भारत का लोकतंत्र परिपक्वता के मुकाम पर पहुंच रहा है। यह परिपक्वता अब बढ़ती ही जाएगी। इसलिए सभी राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक होना पड़ेगा। राजनीतिक विरोध भी केवल विरोध के लिए करने वाला भारतीय राजनीति में किनारे लग जाएगा और विकास के पॉजिटिव अप्रोच  का ही भारत में भविष्य रहेगा।