जानिये, रामचरितमानस में भारत क्या कहते हैं
गोस्वामी तुलसीदास का “रामचरितमानस” महाकाव्य भक्ति और परलौक ही नहीं, लौकिक-व्यवहारिक जीवन का भी संदर्भ-ग्रंथ है. इसमें जीवन के विभिन्न अवसरों और समाज के सभी वर्गों के कर्तव्य-व्यवहार के सम्बन्ध में जो कहा गया है, वह आदर्श है.
गोस्वामीजी ने अयोध्या काण्ड में बतलाया है, कि ऐसे कौन लोग हैं, जिनकी दशा चिंतनीय और शोचनीय है. यानी जिनका जीवन निकृष्ट है. ये बातें उन्होंने गुरु वसिष्ठ के मुख से कहलवायी है. इसमें बारह तरह के लोगों को शोचनीय बतलाया गया है.
भगवान् श्रीराम के वनवास जाने के बाद जब भरत अयोध्या आते हैं, तो उन्हें सारा घटनाक्रम जाकर बहुत दुःख और ग्लानि होती है. वह अपने स्वर्गीय पिता दशरथ का अंतिम संस्कार करने के बाद वह अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु पर शोक व्यक्त कर विलाप करने लगते हैं.
इस स्थिति में रघुकुल के कुलगुरु वसिष्ठ उन्हें जो समझाते हैं, वह सारे व्यवहारिक और सामाजिक जीवन का निचोड़ है. वसिष्ठजी कहते हैं, हे तात! मन में विचार अरो, राजा दशरथ शोच करने योग्य नहीं हैं. शोच करने योग्य तो वह ब्राह्मण है, जो वेद नहीं जानता हो, जो अपना धर्म छोड़कर विषयों में लीन हो. जो भोगविलास में आसक्त हो. यानी जो अपने स्वाभाविक धर्म से भटक गया हो. जो ब्राह्मण वेदों का अभ्यास नहीं करता. स्वयं धर्म का पालन नहीं कर सकता. जो संध्या-गायत्री नहीं कर सकता, वह समाज को क्या मार्गदर्शन देगा! वसिष्ठ ने सबसे पहले ब्राहमण की बात कही,क्योंकि उनके ऊपर समाज को मार्गदर्शन देने का दायित्व है.
राजा पर देश और समाज के संरक्षण का दायित्व होता है. उसके दायित्व से भटकने पर अनर्थ होता है. वसिष्ठजी कहते हैं, उस राजा के लिए शोच करना चाहिए, जो नीति नहीं जानता हो और जिसको अपनी प्रजा प्राणों के समान प्रिय नहीं हो. अर्थात, जो राजा समाज के सभी वर्गों के हितों का ध्यान नहीं रखता, जो नीतिवान नहीं है और प्रजा के हितों का संरक्षण नहीं कर सकता. ऐसे राजा का न लोक सुधरता और न परलोक.
समाज में समृद्धि और उत्पादन का महत्वपूर्ण काम वैश्य यानी व्यापारी और किसान लोग करते हैं. वसिष्ठजी कहते हैं, उस वैश्य का शोच करना चाहिए, यानी उस वैश्य के बारे में चिन्ता करना चाहिए, जो धनवान होकर भी कंजूस हो. जो अतिथि-सत्कार और शिवभक्ति में कुशल नहीं हो. जो धनवान वैश्य अपने धन को परोपकार और जन-कल्याण के कार्यों में व्यय नहीं करता, उसका धनवान होना व्यर्थ है. वह अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करता, लिहाजा शोचनीय है.
प्राचीन समाज में जिस वर्ग को शूद्र कहा गया है, वह सेवा के माध्यम से समाज की प्रगति में बहुत अहम् भूमिका निभाता है. उनकी भूमिका अन्य तीनों वर्णों से किसी प्रकार कम नहीं है. वसिष्ठजी कहते हैं, जो शूद्र ब्राह्मण यानी ज्ञानवान पवित्र लोगों का अपमान करता हो, बकवास अधिक करता हो और अपने में कोई गुण नहीं होने के बावजूद मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है, जो ज्ञानवान नहीं होते हुए भी अपने माने हुए कथित ज्ञान पर अभिमान करता है, वह शोचनीय है.
इसके बाद महर्षि वसिष्ठ कहते हैं, कि उस स्त्री पर शोच करना चाहिए, जो पति के साथ छल करती है, जो कुटिल और झगड़ालू है और मनमानी करने पर उतारू रहती है.
राजा दशरथ तो नीति में निपुण थे और उन्हें अपनी प्रजा प्राणों के समान प्रिय थी. इसलिए उनके विषय में शोच नहीं करना चाहिए. उन्होंने नीति के साथ जीवन बिताकर इस लोक को सुधार लिया है और राम के प्रेम में में जीवन त्याग कर परलोक को भी सुधार लिया है.
परम ज्ञानी वसिष्ठजी आगे कहते हिं, उस ब्रह्मचारी का शोच करना चाहिए, जो अपने व्रत को छोड़ देता है. जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता.
उस गृहस्थ के विषय में शोच करना चाहिए, जो मोहवश कर्ममार्ग को छोड़ देता है. यानी जो घर-परिवार की जिम्मेदारी छोड़कर भाग जाता है या उनका ठीक से पालन नहीं करता.
इसके अलावा ऐसा सन्यासी शोचनीय है, जो ज्ञान-वैराग्य से विहीन है. तुलसीदासजी ने बिना वैराग्य के सन्यासी को हास्यास्पद बताया है. धनुष यज्ञ प्रसंग में जब सभी राजा शिवधनुष को उठाने में नाकाम हो जाते हैं, तब तुलसी कहते हैं, कि –“ नृप सब भये जोग उपहासी, जैसे बिन विराग सन्यासी”. वैराग्य के बिना सन्यासी जीवन जीने वालों की दुर्गति हम आजकल रोजाना देख रहे हैं.
वसिष्ठजी वानप्रस्थों के विषय में कहते हैं , कि जो तपस्या छोड़कर विषय-भोग में लगा हुआ है, वह वानप्रस्थ शोचनीय है.
ऐसा व्यक्ति शोचनीय है, जो चुगलखोर है, बिना कारण क्रोध करता है और माता,पिता, गुरु और भाई-बंधुओं से विरोध करता है. जो दूसरों को हानि पहुंचाता है, अपने ही शरीर का पालन-पोषण करता है और जिसका ह्रदय कठोर है. जो व्यक्ति सभी छल छोड़कर भगवान् की भक्ति नहीं करता, वह तो सबसे अधिक शोचनीय है.
इस प्रकार उन्होंने चारों वर्णों के धर्म को बता दिया. ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी, चारों के कर्तव्य बता दिये.
इस प्रकार युगदृष्टा कवि गोस्वामी तुलसीदास ने वसिष्ठजी के मुख से जो बातें कहलवायीं, वे सभी व्यवहारिक और पारलौकिक दृष्टि से सदा-सर्वदा प्रासंगिक हैं.