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बार-बार बोला गया झूठ, सच लगने लगता है

सार

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बाबा रामदेव का अखबारों में प्रकाशित माफ़ीनामा भी अपराध का भ्रामक निदान ही दिखाई पड़ रहा है. माफ़ीनामे के विज्ञापन में इस बात का कोई ब्यौरा नहीं है, कि यह माफ़ीनामा किस अपराध के लिए दिया जा रहा है..!!

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विस्तार

    सुप्रीम कोर्ट कोरोना काल में बाबा रामदेव और उनकी कंपनी द्वारा कोरोना के निदान के लिए आयुर्वेदिक दवाई बनाने के दावे से जुड़े विज्ञापन पर सुनवाई कर रहा है. माफ़ीनामे की बात इसलिए आई है, कि कोरोना की आयुर्वेदिक दवा का दावा अवास्तविक था, भ्रम पैदा करने वाला था, कमाई के लिए धोखा देने वाला था. बिना साइंटिफिक रिसर्च के किसी भी बीमारी के निदान के लिए दवा की गारंटी देने वाले विज्ञापन उपभोक्ताओं के साथ धोखे जैसा है. 

    बाबा रामदेव और उनकी कंपनी के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में प्रकरण विचाराधीन है. इस बीच जो माफ़ीनामा बाबा रामदेव द्वारा प्रकाशित कराया गया है, उसमें कहीं इस बात का उल्लेख नहीं है, कि यह माफ़ीनामा किस ग़लती और अपराध के लिए प्रकाशित कराया गया है. सार्वजनिक माफ़ीनामे में जब तक किए गए अपराध का उल्लेख नहीं होगा, तब तक माफ़ीनामा भी प्रचार का माध्यम ही बन जाएगा. 

    भ्रामक विज्ञापन, भ्रामक जानकारी, भ्रामक बयान, भ्रामक व्यापार, भ्रामक दावे संपूर्ण सामाजिक जीवन को ही भ्रामक बनाए हुए हैं. रामायण और महाभारत में भी भ्रामक तत्वों से ऐतिहासिक घटनाएं हुई हैं. सोने का मृग बनकर मारीच राक्षस ने राम-लक्ष्मण और सीता को भी भ्रामक धोखा दिया था. महाभारत में "अश्वत्थामा हतो नरो व कुंजरो का संदर्भ" भ्रामक बयान का ही उदाहरण है. सत्यवादी युधिष्ठिर से जब गुरु द्रोणाचार्य ने अश्वत्थामा के वध की जानकारी पूछी तो उन्होंने अश्वत्थामा मारा गया तो कहा, लेकिन हाथी जब बोला तब शंखनाद के बीच द्रोणाचार्य उसे सुन नहीं पाए और द्रोपदी के भाई ने द्रोणाचार्य का सिर काट दिया. यह सारा ऐतिहासिक संदर्भ भ्रामक विज्ञापन का ही उदाहरण है.

    बाज़ारवाद आज पूरी तरह से विज्ञापनवाद बन चुका है. लोगों के अवचेतन मन को विज्ञापनों के जरिए नियंत्रित करने की, कोशिश की जाती है. जीवन उपयोगी प्रोडक्ट के विज्ञापन और उनकी सत्यता की पुष्टि के लिए सबसे पहले प्रॉडक्ट खरीदना ज़रूरी है. प्रोडक्ट की बिक्री के साथ ही मैन्युफैक्चर का उद्देश्य पूरा हो जाता है. उपभोक्ता  जब प्रोडक्ट के उपयोग के बाद ठगा हुआ महसूस करता है, तो फिर जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण वह चुपचाप ही बैठ जाता है.

    विज्ञापन प्रोडक्ट के लिए ज़रूरी हो सकता है, लेकिन अगर यह विज्ञापन असत्य, अवास्तविक और धोखा देने की नीयत से भ्रामक रूप से दिए गए हैं, तो इससे बड़ा कोई अपराध नहीं हो सकता. जहां तक दवाइयों का सवाल है, वह जीवन और स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ विषय है. मेडिसिन को लेकर अगर कोई विज्ञापन भ्रामक पाया जाता है, तो इसके लिए तो माफ़ीनामा पर्याप्त नहीं हो सकता. इस अपराध के लिए तो सजा ही मिलनी चाहिए.

    आज दवाओं का पूरा बाजार विश्वास की कसौटी पर सवालों के घेरे में बना हुआ है. एक ही दवा के अलग-अलग दाम और रिटेल में उन पर अलग-अलग रिबेट इस कंफ्यूजन को और बढ़ाते हैं, कि दवा असली है कि नकली है. प्रतिस्पर्धा में बाजार में अधिकांश प्रोडक्ट पर अलग-अलग सप्लायर, अलग-अलग कंसेशन देते हैं. कोई MRP पर 10% कंसेशन दे रहा है, तो कोई MRP पर 20% कंसेशन दे रहा है.

    बहुत सारे प्रोडक्ट पर तो ऐसे विज्ञापन दिए जाते हैं, कि एक पर एक फ्री है. हज़ार रुपए का कोई प्रोजेक्ट खरीदा जा रहा है तो हज़ार रुपए का दूसरा आइटम फ्री में दिया जा रहा है. भ्रामक विज्ञापनों के कारण कई बार लोगों को अपनी धन संपत्ति और जीवन से भी हाथ धोना पड़ता है. मान-सम्मान और प्रतिष्ठा तो कई बार प्रभावित होती ही है, लेकिन जटिल कानूनी प्रक्रिया हमेशा विज्ञापन दाता के पक्ष में ही जाती है. 

    बाबा रामदेव ने योग और आयुर्वेद को दुनिया में विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लेकिन इसके कारण भ्रामक दावा करने का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता है. बाबा रामदेव आज बड़े उद्योगपति के रूप में समाज के सामने हैं. बड़ी संख्या में समाज में उनके फॉलोअर भी हैं और आलोचक भी हैं.  जिन दवाओं को कोरोना के निदान के रूप में विज्ञापनों में उनके द्वारा भ्रामक दावा किया गया था. उन दवाओं के सेवन पर अगर किसी ने भी अपना जीवन गंवाया है, तो फिर बाबा रामदेव को किसी भी क़ीमत पर माफ़ी नहीं मिलनी चाहिए.

    पूरा समाज भ्रामक जानकारी, भ्रामक बयान, भ्रामक विज्ञापन और भ्रामक दावों की गिरफ्त में फंसा हुआ है. यहां तक  कि न्यायपालिका भी, भ्रामक गवाहों और सबूतों के आधार पर कई बार निर्दोष को भी सजा दे देती है. जो बाद में उच्च अदालतो में लंबी सजा भुगतने के बाद निर्दोष साबित होते हैं. न्यायपालिका पर दबाव बनाने के भ्रामक तथ्य विशेषज्ञों के माध्यम से ऐसे उठाए जा रहे हैं, जिसमें कोई तथ्यात्मक सबूत नहीं होते. लेकिन पूर्व न्यायाधीश या देश या वरिष्ठ वकील अपनी सुविधा से राय उजागर करते हैं. ऐसे दावे भी भ्रामक जानकारी की श्रेणी में ही माने जाएंगे.

    पूरा समाज राजनीति के भंवर में ही डोलता रहता है. सरकारी विज्ञापनों की एक अलग दुनिया है. कई बार तो जिन चित्रों का प्रयोग उन विज्ञापनों में किया गया है, वह लोग खुद ही सरकारी विज्ञापन में जिन्हें उपलब्धियां बता रहे हैं, उससे खुद ही ठगे हुए होते हैं. सरकारी और राजनीतिक दलों के विज्ञापन खासकर चुनावी बेला के आसपास तो ऐसे-ऐसे आकर्षक दावों के साथ सामने आते हैं, कि धोखे को भी धोखा हो जाए.

    लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण की वोटिंग में दो दिन बचे हैं. चुनाव का प्रचार अभियान चरम पर पहुंच चुका है. हर अखबार और न्यूज़ चैनल में प्रमुख दलों के विज्ञापन जिन दावों के साथ सीना ठोक कर चलाए जा रहे हैं, उनकी सत्यता के प्रमाणीकरण की क्या गारंटी है. 

    बाबा रामदेव और उनकी कंपनी के भ्रामक विज्ञापन को लेकर तो सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश आएगा. लेकिन राजनीतिक और सरकारी विज्ञापनों को लेकर उनके दावों की सत्यता की गारंटी की अभी कोई कानूनी प्रक्रिया निर्धारित नहीं है. राजनीतिक वायदे और घोषणाओं के चुनावी विज्ञापनों पर तो चुनाव आयोग भी जनता को गारंटी नहीं देता. जनता के सामने केवल राजनीतिक दल की बातों पर विश्वास करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. कई बार यह विश्वास और उसके आधार पर लिया गया निर्णय भविष्य में धोखे का निर्णय साबित होता है.  

    विज्ञापन के स्टेक होल्डर में प्रोडक्ट निर्माता कंपनी पॉलीटिकल पार्टी, पॉलिटिकल गवर्नमेंट जहां एक तरफ होते हैं. वहीं दूसरी तरफ मीडिया घरानों के लिए विज्ञापन कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया हैं. विज्ञापन के ज़रिए ही कई बार मीडिया घरानों को मैनेजमेंट के नाम पर नियंत्रण में रखा जाता है. गोदी मीडिया की परिभाषा भी इसी आधार पर गढ़ी गई है, कि सरकारों के भारी सहयोग और समर्थन के कारण मीडिया में सभी पक्षों को समुचित स्थान नहीं मिलता.

    विज्ञापन का तीसरा सबसे बड़ा होल्डर स्टेक होल्डर जो अंततः भुक्त-भोगी होती है, वह देश की जनता होती है. उसके हितों के संरक्षण के लिए कानूनी प्रक्रिया स्पष्ट और पारदर्शी होना चाहिए. विज्ञापनों पर भरोसा कर जनता अपना धन बर्बाद करती है और अगर राजनीति की भाषा में सोचा जाए तो अपने मत के जरिए कई बार अपना विश्वास और धर्म भी कसौटी पर लगाती है. विज्ञापन के दूसरे जो भी स्टेक होल्डर हैं, उनको या तो कमाई होती है या सियासत में सत्ता का लाभ मिलता है. नुकसान केवल जनता का ही होता है. बाकी विज्ञापनों से जुड़े सभी पक्षों को कुछ ना कुछ लाभ ही होता है. 

    अगर विज्ञापनों को बहुत शॉर्ट में समझना हो, तो ऐसा समझना ठीक होगा, कि जैसे कोई व्यक्ति भीतर कुछ सोचता है और बाहर आचरण कुछ करता है. वैसे ही विज्ञापन भी बाहर का सत्य हैं. विज्ञापन के भीतर का सत्य कुछ और होता है. झूठ सोचते-सोचते व्यक्ति स्वयं भ्रम का इतना शिकार हो जाता है, कि उसका पूरा जीवन ही भ्रामक तथ्यों पर खड़ा हो जाता है. 

    राजनीतिक बयानों का भ्रामक स्वरूप तो भयानक स्थिति ले चुका है. अभी राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर विवाद चल रहा है. बहुअर्थी डायलॉग, भ्रामक वायदों और दावों का चुनावी संसार सजा हुआ है. कहीं से आवाज आ रही है, कि वह संविधान बदलने जा रहे हैं, तो कहीं से आवाज आ रही है, कि संपत्तियों का सर्वे कर स्त्री धन तक दूसरों को बांट दिए जाएंगे. भ्रामक बयान और भ्रामक जानकारी पर भी भ्रामक विज्ञापनों जैसा ही अपराधिक कृत्य मानने की व्यवस्था करने की आवश्यकता है. 

     सत्य को विज्ञापन की जरूरत नहीं है. राजा हरिश्चंद्र ने अपनी ईमानदारी के लिए कोई विज्ञापन नहीं दिया था. भारत की संस्कृति और इतिहास के जो तथ्य आज भारतीय आत्मा पर अजर-अमर हैं, उनके लिए किसी ने भी विज्ञापन नहीं दिए थे. लोकतंत्र में सुधार की प्रक्रिया के तहत चुनावी प्रत्याशियों को अपनी आर्थिक स्थिति और आपराधिक स्थिति उजागर करनी पड़ती है. अपराधों के बारे में तो अखबारों में विज्ञापन तक देना पड़ता है. जैसे बाबा रामदेव को विज्ञापन में की गई गलती और अपराध के लिए माफ़ी मांगना पड़ रहा है. ऐसी ही कानूनी व्यवस्था पॉलिटिकल विज्ञापनों के लिए भी करने का समय आ गया है.