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प्रतिपक्ष की महत्वकांक्षा  का दौर?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 30 Apr

सार

मतदाता अपने पसंदीदा नेताओं की जीत के अनुमान से निश्चिंत हैं, परंतु अगर नतीजे अलग हुए तो बेचारी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को ही दोष दिया जाएगा..!!

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विस्तार

और आम चुनावों का पहला चरण  आपके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा प्रमुख दलों के घोषणा पत्र सामने हैं।  चुनाव के जनमत सर्वेक्षणों का दौर आ चुका है। भारतीय जनता पार्टी  और प्रतिपक्षियों के भाव उजागर है। मतदाता अपने पसंदीदा नेताओं की जीत के अनुमान से निश्चिंत हैं, परंतु अगर नतीजे अलग हुए तो बेचारी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को ही दोष दिया जाएगा।

भाजपा की बढ़त को समझने के लिए आपको किसी चुनाव विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। कारण-- प्रतिपक्ष का महत्त्वाकांक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन तालमेल बनाए रखने में संघर्ष करता जो  दिख रहा है प्रतिपक्षी दलों में ज्यादातर यही बात होती है कि नरेंद्र मोदी को कहां-कहां रोका जा सकता है, सत्ता से बाहर करने की बात तो दूर है।

हालात तो यही है, हालांकि प्रतिपक्ष का मानना है कि चुनावी बॉन्ड से जुड़े खुलासों ने उसके चुनाव अभियान को कुछ मजबूती प्रदान की है। भाजपा को ‘वॉशिंग मशीन’ बताने वाले नारे में दम है, मगर क्या यह इतना शक्तिशाली है कि प्रतिपक्ष की तकदीर बदल सके? अधिकांश प्रतिपक्षी नेता अभी भी तस्वीर को अधिक संतुलित नजरिये से देख रहे होंगे और वह यह कि मोदी को कैसे सीमित किया जाए?

एक और एक परिवार के तीसरी पीढ़ी के इस वारिस को ऐसी पार्टी मिली जिसके पास जाति आधारित वोट बैंक है, लेकिन उसका प्रभाव सीमित भूभाग में प्र्श्न यह है जाति आधारित वोट बैंक मोदी के आकर्षण में टिकेगा?जाति आधारित वोट बैंक आमतौर पर सुरक्षित होता है लेकिन जब लोग लोक सभा चुनाव के लिए मतदान करने जाते हैं तो उनके सामने एक ही विकल्प होगा। ‘मतदाताओं को कैसे यकीन दिलाएंगे कि कोई विकल्प है?’ 

खुद को बचाए रखना या लड़ाई को आगे के लिए टालना इस समय प्रतिपक्षी दलों के दिलोदिमाग में चल रहा सबसे प्रमुख विचार है। उनमें से हर एक के सामने अलग-अलग चुनौतियां हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी की बात करें तो अगर वहां भाजपा वर्ष 2019 से अधिक सीट जीतती है तो उसकी उसकी राज्य सरकार अस्थिर होगी।

आम आदमी पार्टी (आप) चाहेगी कि दिल्ली में वह 2019 से बेहतर प्रदर्शन करे। उद्धव ठाकरे की शिव सेना (यूबीटी) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का शरद पवार धड़ा, इन दोनों को अपने अस्तित्व के लिए जीत की जरूरत है। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और लालू-तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल को भी अगर 2019 जैसी हार का सामना करना पड़ा तो उनके भी अपने-अपने राज्य में सत्ता में लौटने का ख्वाब अधूरा रह जाएगा।

इन पार्टियों के पास भी सीमित फंड हैं। जहां वे सत्ता में नहीं हैं वहां वर्षों से फंड का सूखा पड़ा है और उनकी जमा पूंजी तेजी से खत्म हो रहा है। जो अभी भी किसी राज्य में सत्ता में हैं और पैसों वालों को प्रेरित करके धन जुटा सकते हैं वहां एजेंसियां धन देने वालों को भयभीत कर रही हैं।

ये तो हो गई एक राज्य वाले दलों की बात। आम आदमी पार्टी की बात करें तो इसे डेढ़ राज्य माना जा सकता है। यह भी कांग्रेस के लिए अलग तरह की चुनौती है। हाल के समय में पार्टी एकजुट रहने के लिए संघर्ष कर रही है। 2014 से 2019 के बीच उसकी इकलौती उपलब्धि रही 20 प्रतिशत मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखना, परंतु इसके बावजूद उसे इतनी सीट नहीं मिल सकीं कि पार्टी लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी पा सके।

पार्टी को अपने समर्थकों तथा प्रतिपक्षियों को यह यकीन दिलाने के लिए आखिर कितनी सीट जीतने की जरूरत है कि वह भविष्य में चुनौती बनेगी?वैसे 100 सीट का आंकड़ा दिलचस्प होगा और भारत की राजनीति को बदलने वाला साबित हो सकता है। परंतु क्या यह हकीकत के करीब है? अगर कांग्रेस आधिकारिक तौर पर यही कहेगी कि ‘इंडिया’ गठबंधन सरकार बनाने जा रहा है लेकिन उसके नेता अनुभवी हैं और जीत-हार दोनों का स्वाद चख चुके हैं। ऐसे में वे मानेंगे कि अगर 80 से अधिक सीट आती हैं तो यह उल्लेखनीय सुधार होगा। वैसे BHI तुरंत बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं।

चार जून को आने वाले चुनाव नतीजे इन विधानसभा चुनावों की दिशा तय करेंगे। तीनों राज्यों में भाजपा के सामने मजबूत चुनौती है। अगर कांग्रेस 80 से अधिक लोक सभा सीट जीतती है तो झारखंड और महाराष्ट्र में उसके गठबंधन को मजबूती मिलेगी। अगर पार्टी वहां तक नहीं पहुंचती है तो वह विपक्षी गठबंधन में स्वाभाविक नेतृत्वकर्ता होने का दावा भी गंवा सकती है। लगातार तीसरी हार पार्टी को तो नुकसान पहुंचाएगी ही अन्य भाजपा विरोधी दल भी विकल्प तलाशेंगे।