मध्यप्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग बहुत पुरानी है. आदिवासी जनप्रतिनिधि हमेशा यह मांग उठाकर आदिवासी समाज की भावनाओं का राजनीतिक शोषण करते रहे हैं. मध्यप्रदेश में भले ही अभी तक कोई आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं बन सका है लेकिन राज्य में कोई भी ऐसी सरकार नहीं रही जिसमें मंत्री या उपमुख्यमंत्री आदिवासी समाज से न रहा हो.
आदिवासी समाज के विकास और कल्याण के लिए निर्धारित जनजाति कल्याण विभाग का नेतृत्व हमेशा इसी समाज के किसी नेता द्वारा ही किया गया है. मध्यप्रदेश के गठन के बाद आदिवासी समाज की जिस लीडरशिप को सरकारों में काम करने का मौका मिला उन्होंने आदिवासी समाज के लिए ऐसा कोई क्रांतिकारी कदम उठाया हो ऐसा तो प्रदेश का राजनीतिक इतिहास नहीं बताता है. आदिवासी समाज के जिन लोगों को सरकारों में नेतृत्व का मौका मिला उन्होंने इसका उपयोग समाज से ज्यादा स्वयं और परिवार के विकास पर लगाया है.
एमपी में चाहे बीजेपी में हों चाहे कांग्रेस में हों जो भी ट्राइबल लीडरशिप सक्रिय और स्थापित हैं उनमें अधिकांश चेहरे पूर्व में स्थापित आदिवासी चेहरों के परिवार से जुड़े हुए हैं. विभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ को सबसे पहला मुख्यमंत्री आदिवासी समाज से ही मिला था. कांग्रेस ने नए राज्य के अपने सबसे पहले मुख्यमंत्री को बाद में पार्टी से ही निकाल दिया था. इसका मतलब है कि कांग्रेस ने यह माना कि आदिवासी के नाम पर जिस नेतृत्व को मौका दिया गया, वह पार्टी की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका.
एमपी में फिर से आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग कांग्रेस में उठाई गई है. अभी तक तो भावी और अवश्यंभावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को ही मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में घोषित करने को लेकर कांग्रेस में मतैक्य नहीं हो पाया है. इसी बीच आदिवासी मुख्यमंत्री के नाम पर उठाई गई मांग निश्चित रूप से कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य को चमकदार तो नहीं बना सकेगी.
मध्यप्रदेश में आदिवासी और दलित समुदाय के लिए आरक्षित सीटों की संख्या लगभग 81 है. इसमें से 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. 230 सदस्यों वाले विधानसभा सदन में अभी भी सामान्य वर्ग के सदस्यों की संख्या अधिक है. लोकतंत्र में बहुमत की प्रणाली की दृष्टि से भी अगर देखा जाए तो किसी एक दल में आदिवासी समुदाय के सदस्यों की संख्या कभी भी इतनी नहीं हो सकती कि उसकी बदौलत आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया जा सके. इस तरह की मांगे आदिवासी समाज में स्वयं के प्रति सहानुभूति और समाज की भावनाओं के राजनीतिक शोषण के लिए उठाई जाती रही हैं.
यह पहला अवसर नहीं है जब आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग की गई हो. इस प्रदेश में काफी मजबूत आदिवासी लीडरशिप रही है. फायर ब्रांड लीडर जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी, प्यारेलाल कँवर, दलवीर सिंह, झुमुक लाल भेड़िया, दिलीप सिंह भूरिया, वसंतराव उइके, अरविंद नेताम, महेंद्र कर्मा जैसे अनेक कद्दावर आदिवासी नेता रहे हैं जिनका उनके समाज में मान सम्मान रहा है.
कांतिलाल भूरिया अभी कांग्रेस में चुनाव अभियान समिति के चेयरमैन बनाए गए हैं. उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष रहने का भी अवसर मिला था. उनके अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी. आदिवासी समाज के युवा नेता भी राजनीति में अपनी छाप छोड़ रहे हैं. पढ़ाई लिखाई और प्रतियोगिता से अपने मुकाम पर पहुंचने वाले आदिवासी युवाओं के भविष्य को केवल आदिवासियों के नाम पर किसी मांग से जोड़ना दूरगामी ढंग से लाभदायक नहीं कहा जा सकता.
वैसे भी मुख्यमंत्री का चयन संवैधानिक प्रक्रिया में विधायक दल ही करता है. योग्यता और बहुमत के आधार पर किसी भी समुदाय का यहां तक कि आदिवासी समाज का मुख्यमंत्री अगर राज्य का नेतृत्व करता है तो प्रदेश के लिए यह गौरवशाली क्षण होगा लेकिन समुदाय के नाम पर राजनीतिक शोषण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए ऐसी मांगों को समर्थन देना किसी भी दृष्टि से जायज नहीं कहा जा सकता.
आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग जब भी उठाई जाती है तब उसके पीछे तर्क दिया जाता है कि आदिवासी समाज के विकास और कल्याण के लिए जरूरी है कि उस समाज का कोई भी व्यक्ति मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. इससे एक सवाल यह खड़ा होता है कि क्या मुख्यमंत्री के पद पर बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति केवल अपने समाज के लिए काम करता है? मध्यप्रदेश में अब तक हुए मुख्यमंत्रियों की सूची पर नज़र डाली जाए तो लंबे समय तक ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय के मुख्यमंत्री रहे हैं. वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ओबीसी समुदाय से आते हैं. क्या कोई भी व्यक्ति ऐसा कह सकता है कि जो भी मुख्यमंत्री रहे उन्होंने केवल अपने समाज के विकास के लिए ही कोई विशेष रूप से काम किया है?
सरकारों की नीतियां जातियां और समुदाय देखकर निर्धारित नहीं होती हैं. आज सरकारों की जितनी भी योजनाएं हैं उनमें धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता. कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों की सरकारों में योजनाओं में पात्रता के लिए जाति और समुदाय को आधार नहीं बनाया जाता. प्रदेश की वर्तमान सरकार ‘लाडली लक्ष्मी योजना और 'लाडली बहना योजना' क्रियान्वित कर रही है. क्या इनमे किसी समुदाय के लिए विशेष व्यवस्था की गई है?
इसी प्रकार कांग्रेस की और से जो भी चुनावी वायदे किए जा रहे हैं उनमे किसी खास समुदाय के लिए रियायतें देने का वायदा किया जा रहा है? चाहे कर्जमाफी हो, चाहे बिजली और किसानों को साधन सुविधाएं देने की योजनाएं हों, सब में सभी समुदायों को लाभ पहुंचाने के लिए हर मुख्यमंत्री द्वारा निर्णय लिए जाते हैं. इसलिए यह कहना कि किसी भी समुदाय के कल्याण विकास के लिए समुदाय का मुख्यमंत्री होना जरूरी है, निहायत गैर जिम्मेदाराना और असंवैधानिक कहा जाएगा.
बिना आदिवासी मुख्यमंत्री के मध्यप्रदेश में आदिवासी विकास के महत्वपूर्ण पायदान पर खड़े हैं. विकास की रोशनी आज आदिवासी समाज के चेहरे पर साफ साफ देखी जा सकती है. आदिवासियों की परंपरा सहेजते हुए विकास की निर्णय प्रक्रिया में हर आदिवासी गांव और टपरे का व्यक्ति आज अपने गांव के लिए मुख्यमंत्री के रूप में ही फैसले करने का अधिकार रखता है. हर आदिवासी को इसी तरह से अधिकार संपन्न बनाने की राजनीतिक सोच राज्य के विकास और आदिवासियों के विकास के लिए जरूरी है. आज भारत का राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला होने का मतलब ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका रेखांकित करता हैं.