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अमृत महोत्सव: जन प्रतिनिधियों  का कर्तव्य

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 04 Oct

सार

महंगाई पर सडक यानि आम आदमी की बात कोई सुन नहीं रहा है और संसद में पक्ष विपक्ष अपने –अपने सेठियों को बचाने और उपकृत करने के यत्न ही करता दिखता है..!

janmat

विस्तार

प्रतिदिन-राकेश दुबे

05/08/2022

जैसे –तैसे संसद का सत्र चला । महंगाई पर‘तत्काल’ चर्चा औपचारिकता भी पूरी कर ली गयी है, परन्तु सड़क पर आम आदमी अब भी यह सवाल अब भी पूछ रहा है कि महंगाई इतनी क्यों  बढ़ी और लगातार कयों  बढ़ रही है?  उसका अगला सवाल यह भी कि ‘संसद में कथित समाधान बहस ’ के बाद स्थिति कुछ बदलाव आएगा ?  महंगाई पर सडक यानि आम आदमी की बात कोई सुन नहीं रहा है और संसद में पक्ष विपक्ष  अपने –अपने सेठियों को बचाने और उपकृत करने के यत्न ही करता  दिखता है |

 आज आम जन का सवाल है यदि  इस मुद्दे पर नूराकुश्ती ही होना थी तो फिर इस मुद्दे को दो सप्ताह तक लटकाया क्यों गया? सरकार की ओर से महंगाई के मुद्दे पर तत्काल बहस की मांग ठुकराने का आधार यही था कि वह बहस के लिए तैयार है,परन्तु  वित्तमंत्री अस्वस्थ है उनके स्वस्थ होते ही महंगाई के मुद्दे पर बहस करा ली जाएगी। सवाल वित्तमंत्री के स्वास्थ्य का नहीं, देश की आर्थिक स्थिति के स्वास्थ्य का था और है । सरकारें जनहित के मुद्दों को ऐसी हो टालती थी, हैं और टलती रहेंगी |

सरोकार महंगाई की मार झेलते आम आदमी की पीड़ा को कम करने से था, लेकिन सरकार देश की ‘अर्थव्यवस्था की मज़बूती’ का राग ही अलापती रही। आंकड़ों के सच और झूठ को लेकर पहले भी बहुत कुछ कहा जाता रहा है। आंकड़े यह तो बता सकते हैं कि देश में खाद्यान्न की उपज कितनी हुई, पर उनसे कितनो का पेट भरा या भर सकता है , इसका कोई यत्न  नहीं होता । याद आता है एक बार सरकार ने भूख से ज्यादा प्राथमिकता अनाज सड़ाकर शराब बनाने को दी थी | बन्दरगाहों पर सड़ा अनाज गरीब आदमी की जगह शराब के निर्माताओं को दिया गया था |

 भारत में वर्षों से कोई भी वित्तमंत्री बाज़ार में जाता  नहीं है । कुछ अरसा पहले वित्त मंत्री ने कहा था कि वे प्याज़ नहीं खातीं, अत: उन्हें प्याज़ की कीमतों का ज्ञान नहीं है। आज बाजार में  हर चीज़ महंगी होती जा रही है| खाने-पीने की पैकेट-बंद जिन चीज़ों पर जीएसटी लगा दी गयी है, पैकेट बनाने वाले, बड़ी चतुराई से उनमें दिये गये माल की मात्रा कुछ ग्राम घटा कर लाखों रुपये कमा रहे  हैं!

संसदीय बहस का सीधा अर्थ,  किसी मुद्दे पर गंभीरता से चिंतन  और चर्चा  के माध्यम से समस्या का समाधान से इतर कुछ भी नहीं है |सरकारी पक्ष यदि यह मान ले कि विपक्ष द्वारा कही जा रही बात में कुछ सच्चाई है तो इससे उसकी प्रतिष्ठा समाप्त नहीं होती और इसी तरह यदि विपक्ष भी सरकार द्वारा कही जा रही बात में कुछ सच देख ले तो उसकी भी इज्जत कम  नहीं होती। दुर्भाग्य से दोनों पक्ष पहले से निश्चय करके बैठे हों कि सामने वाले की बात नहीं माननी है तो रास्ता कैसे निकलेगा आम आदमी को राहत कैसे मिलेगी ?

आज जो सदनों में दिखता है वह निराश करने वाला ही है। जिस तरह का व्यवहार हमारे सांसद-विधायक अक्सर करते दिखते हैं, उसे देखकर पीड़ा भी होती है, और निराशा भी। पिछले पखवाड़े में महंगाई को लेकर भले ही बहस न हो पायी हो, पर सांसदों के आरोपों-प्रत्यारोपों का जो सिलसिला चला उसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। महामहिम राष्ट्रपति के संदर्भ में, गलती से ही सही, लोकसभा में कांग्रेस के नेता के मुंह से निकले शब्द का समर्थन कोई नहीं कर सकता। इस विषय में ‘गलती होने’ और माफी मांगने के बाद बात समाप्त  मानना कोई विकल्प नहीं है | अच्छा होता यदि संबंधित माननीय सदस्य स्वयं अपने कहे पर पछतावा करते। सवाल जहां लिखित नियमों की भी धज्जियां उड़ती हों, वहां स्वस्थ परम्पराओं की बात ही कैसे हो सकती है?

लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सत्ता पक्ष पक्ष से किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। यह सही है कि चुनाव में हारने वाला पक्ष विपक्ष की भूमिका निभाता है, पर सच यह भी है कि वह हारा हुआ नहीं, विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए चुना गया पक्ष होता है। इन दोनों पक्षों की प्राथमिक जवाबदारी और कर्तव्य आप आदमी के विषयपर चर्चा  और उसे राहत देना है | पडौसी देश श्रीलंका में यह सब नहीं हुआ परिणाम सब जानते है |