पुराणों के अनुसार दूसरी मान्यता यह है कि प्रथम गुरु भगवान शिव ने अपने अनुयायी ‘सप्तऋषियों’ को योग का ज्ञान आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के शुभ अवसर पर ही दिया था..!
बीते कल गुरु पूर्णिमा थी । पूरे भारत में आषाढ़ मास की शुक्ल पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है ।इस दिन संस्कृत के प्रकांड विद्वान व महाकाव्य ‘महाभारत’ तथा अठारह पुराणों एवं उपपुराणों के रचयिता के रूप में ख्याति प्राप्त महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था। अत: इस दिन को ‘गुरु पूर्णिमा’ के तौर पर मनाया जाता है। विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘श्रीमद्भगवदगीता’ भी महाभारत का ही अंश है। पुराणों के अनुसार दूसरी मान्यता यह है कि प्रथम गुरु भगवान शिव ने अपने अनुयायी ‘सप्तऋषियों’ को योग का ज्ञान आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के शुभ अवसर पर ही दिया था।
गुरुसत्ता के प्रतिनिधि व भारतीय धर्म साहित्य संपदा के शिरोमणि महर्षि वेद व्यास महान लेखक व दार्शनिक थे। अलौकिक ज्ञान शक्ति से सम्पन्न महर्षि वेद व्यास ने अपने शिष्यों ‘पैल मुनि’ को ‘ऋग्वेद’, ‘वैश्म्पायन’ को ‘यजुर्वेद’ व ‘सुमंतु’ को ‘अथर्ववेद’ तथा ‘जैमिनी’ को ‘सामवेद’ में परांगत करके सनातन धर्म संस्कृति व वैदिक ज्ञान के प्रसार का दायित्व सौंपा था।
महर्षि वेद व्यास के उन चारों शिष्यों ने अपने आश्रमों को वेद शिक्षा का केंद्र बनाया, तत्पश्चात सम्पूर्ण भारतवर्ष वैदिक ज्ञान से वेदमय हुआ था। महर्षि वेद व्यास के पुत्र ‘शुकदेव’ भी वेदों के विद्वान ऋषि थे। सनातन धर्म की प्रतिष्ठा व वैदिक संपदा के प्रचार प्रसार में वेद व्यास के अलावा आदि गुरु शंकराचार्य का भी महान योगदान रहा है।
ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं पूर्व में पुरी के गोवर्धन मठ में ‘ऋग्वेद’, पश्चिम में द्वारिका के शारदा मठ में ‘सामवेद’व उत्तर में उत्तराखंड के जोशीमठ में ‘अथर्ववेद’ तथा दक्षिण में कर्नाटक के श्रंृगेरी पीठ में ‘यजुर्वेद’ को स्थापित करके चारों मठों को वैदिक शिक्षा का केन्द्र बनाया था। आदि शंकराचार्य ने ही अपने विद्वान शिष्य को मठाधीश बनाने की परंपरा शुरू की थी। अत: गुरु-शिष्य परंपरा के निर्वहन में मठों की विशेष भूमिका रही है।
भारत में अनादिकाल से गुरुओं के प्रति सम्मान व समर्पण रखने वाले महान शिष्यों की गौरवशाली परंपरा रही है। ईश्वर के समतुल्य ज्ञानदाता गुरु द्वारा प्रदान शिक्षा व संस्कारों के आधार पर ही शिष्य अनुशासित व संस्कारवान बनते हैं। आजादी के बाद देश के शिक्षा क्षेत्र में सुधारों के लिए कई नीतियां बनी। वर्तमान में देश के कई सियासी रहनुमा शिक्षा क्रांति की दुहाई देकर अपनी सियासी जमीन मजबूत कर रहे हैं। इसके बावजूद शिक्षा क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर भारत पिछड़ चुका है। स्मरण रहे विश्व में शिक्षा की उत्तम व अनुशासित पद्धति गुरुकुलों का संचालन भारत भूमि पर हमारे आचार्यों ने सदियों पूर्व कर दिया था। उसी शिक्षा व्यवस्था के बल पर भारत आज ‘विश्व गुरु’ बनने का स्वप्न देख रहा है ।
वैसे भी धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, शास्त्रार्थ, खगोल, ज्योतिष व अध्यात्म तथा ज्ञान विज्ञान सहित कई विषयों में विश्व के सर्वश्रेष्ठ आचार्य भारतवर्ष में हुए थे। ‘सांख्य दर्शन’ के प्रर्वतक ‘कपिल मुनि’ व ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ के रचयिता महर्षि ‘भारद्वाज’ तथा चंद्रगुप्त मौर्य को सम्राट बनाकर भारत का इतिहास बदलने वाले ‘तक्षशिला’ विश्वविद्यालय के शिक्षक ‘चाणक्य’ जैसे विद्वान आचार्यों का जन्म इसी भारतभूमि पर हुआ था। शैक्षिक ज्ञान से अपने शिष्यों को गुणवान बनाने वाले कई महान आचार्यों का उल्लेख वैदिक साहित्य में हुआ है। देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा दैत्य गुरु महर्षि शुक्राचार्य दोनों ‘अंगिरा’ ऋषि के शिष्य थे।
ऋषि ‘उपमन्यु’ व आरुणि जैसे गुरुभक्त व धर्मशास्त्रों के महाज्ञाता शिष्यों ने महर्षि ‘धौम्य’ से शिक्षा प्राप्त की थी। अपनी विद्वता के बल पर गुरु परशुराम ने भीष्म, द्रोण व दानवीर कर्ण जैसे शिष्यों को शस्त्र विद्या में निपुण करके महान योद्धा बनाया था। अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पवान अर्जुन जैसा महान धनुर्धर शिष्य गुरु द्रोण के सान्निध्य से ही निकला था। ‘ज्ञान वही जो व्यवहार में काम आए’, इस प्रसंग का उल्लेख करने वाले वैदिक आचार्य ‘बहुश्रुति’ का प्राचीन भारत की शिक्षा में विशेष योगदान रहा था। भारत की शिक्षा संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा के विकास तथा शिष्यों में राष्ट्रवाद जगाने के लिए वैदिक आचार्य महर्षि ‘शौनक’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वैदिक शिक्षा के ध्वजवाहक शौनक ऋषि ‘नैमिषारण्य’ के विशाल गुरुकुल के कुलपति थे। नैमिषारण्य में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या हजारों में थी। आध्यात्मिकता के रंग में रंगा शौनक ऋषि की सिद्धस्थली व विद्याध्ययन का प्राचीन केंद्र नैमिषारण्य भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मजबूत नींव रहा है। विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण का कुशल संपादन करने वाले महर्षि शौनक को विश्व के प्रथम कुलपति होने का गौरव प्राप्त था। भावार्थ यह है कि जीवन में बेहतर भविष्य की कल्पना तथा असंभव लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गुरु रूपी महान विभूति के मार्गदर्शन की जरूरत होती है।
भारत में अनादिकाल से समाज को शिक्षित करने में आचार्यों तथा धर्म स्थापना के लिए आध्यात्मिक गुरुओं की विशेष भूमिका रही है, मगर विश्व की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल पद्धति के संचालक महर्षि भारद्वाज, वाल्मीकि, बहुश्रुति, शौनक, अत्रि, संदीपनी, वशिष्ठ, मैत्रेय, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य व उद्दालक जैसे महाविद्वान आचार्य भारतीय शिक्षा पाठ्यक्रमों में गुमनाम क्यों हुए, यह मंथन का विषय है। वैदिक संस्कारों से परिपूर्ण प्राचीन शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल व शिक्षा के स्तंभ आचार्य स्वाभिमान का प्रतीक हैं। राष्ट्र निर्माण में सकारात्मक सोच से परिपूर्ण वैदिक शिक्षा शिक्षार्थी को हर परिस्थिति से सामना करके चुनौतियों से जूझने में सक्षम बनाती थी।
अपनी गौरवशाली संस्कृति व वैदिक संस्कारों का अस्तित्व बचाने के लिए तथा विद्यार्थियों को अपने कर्तव्य व दायित्व का बोध कराने के लिए मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में भारत का गौरव रही वैदिक शिक्षा का समावेश जरूरी है। भारत की प्राचीन ज्ञान विरासत तथा गुरु-शिष्य परंपरा पर हर भारतवासी को गर्व होना चाहिए।