ईडब्ल्यूएस की पात्रता के लिए संसद कैसे इस नतीजे पर पहुंची कि इसकी सीमा 8 लाख रुपये सालाना की आय होनी चाहिए..!
० प्रतिदिन विचार-राकेश दुबे
08/12/2022
और दिल्ली में “आप” ने भाजपा की गिल्ली उड़ा दी | भाजपा का आपदा को अवसर में बदलने का सूत्र वाक्य काम नहीं आया | जाति आधारित आरक्षण को लेकर अगड़ी जातियों के रोष को खत्म करने और उलटा इसे अपने पक्ष में करने की योजना पर भाजपा ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण की जो बुनियाद खड़ी की, उसका क्या नतीजा हुआ सामने आने वाला है हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव के आगामी नतीजे तय करेंगे कि भाजपा के गुजरात माडल में कितना दम शेष बचा है ।
वैसे भी, भाजपा गुजरात के मामले में वह एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखती है और जिस तरह गुजरात को पूरे देश के सामने एक मॉडल की तरह पेश किया जाता है और वहां एक भी विधानसभा सीट से किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया गया, इससे भाजपा ने अपनी हिन्दू और अगड़ी जाति समर्थक पार्टी के रूप में अपनी छवि को चमकाने की कोशिश ही की है।
इसमें कोई शक नहीं है,ईडब्ल्यूएस कोटे ने निश्चित ही आरक्षण के आधार को हिला दिया है और इसने जाति-आधारित आरक्षण व्यवस्था के बरक्स आर्थिक मानदंडों आधारित आरक्षण व्यवस्था को खड़ा कर दिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या नीति निर्माताओं के पास इतने आधारभूत बदलाव को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त विश्लेषण है? ईडब्ल्यूएस की पात्रता के लिए संसद कैसे इस नतीजे पर पहुंची कि इसकी सीमा 8 लाख रुपये सालाना की आय होनी चाहिए?
दिलचस्प बात है कि सिन्हो आयोग की रिपोर्ट में साफ उल्लेख है कि ईडब्ल्यूएस पात्रता के बारे में गुणों पर निर्णय लेने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया जानने को उसने विस्तृत प्रश्नावली तैयार की थी जिस पर राज्यों से बहुत कम सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली और उसके बाद जब आयोग ने प्रश्नों को सरल करते हुए भेजा, तब भी राज्यों की प्रतिक्रिया बेहतर नहीं हुई।
इस संदर्भ में और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लाभार्थियों के लिए पात्रता मानदंड 2.5 लाख रुपये निर्धारित है। गुजरात में तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए इसे ध्यान में रखा जाता है, जबकि अगड़ी जातियों में ईडब्ल्यूएस के लिए पात्रता 8 लाख रुपये सालाना है। साफ है कि संविधान का 103 वां संशोधन केवल सवर्ण जातियों को खुश करने का एक लोकलुभावन उपाय है। भारत में शायद ही कोई समुदाय जातिविहीन हो, ऐसे में आर्थिक मानदंड वाला यह आरक्षण तमाम विरोधाभासों को जन्म देता है।
भाजपा ने गुजरात में पाटीदार आंदोलन में आगे रहने वाले नेताओं को विधानसभा चुनाव में टिकट देकर संतुष्ट कर दिया है। गुजरात मॉडल का ताज और राज यही ‘पाटीदार शक्ति’ ही है। पाटीदार समुदाय को पूरा हक था कि अपनी आबादी के अनुपात में विधानसभा सीटों की मांग करें लेकिन उन्होंने तो दोगुने से ज्यादा सीटें कब्जा रखी हैं। वैसे, पाटीदार आंदोलन और ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने साबित कर दिया कि गुजरात में अगड़ी जातियां भी विकास मॉडल से लाभ नहीं उठा सकी हैं। इसने यह भी बताया कि गुजरात में विकास गरीबों के काम नहीं आया। कथित विकास मॉडल ने केवल अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने का काम किया। इसका फैसला भी आगामी नतीजे कर देंगे |
यहाँ यह भी गौर करना जरूरी है कि ऐतिहासिक रूप से अपनी जातीय स्थिति का फायदा उठाने वाली अगड़ी जातियों ने विकास के बहुप्रचारित गुजरात मॉडल को सीधे चुनौती दी है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि ईडब्ल्यूएस को आरक्षण के लिए आगे बढाकर सत्तारूढ़ भाजपा और सरकार ने एक तरह से मान लिया कि गुजरात मॉडल ने अगड़ी जातियों के लिए भी विकास नहीं किया है। दूसरी बात, अगर गुजरात में विकास हो भी रहा है तो वह निश्चित तौर पर गरीबों के लिए तो नहीं ही है। तीसरी, तथाकथित विकास मॉडल ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाने का ही काम किया है। चौथी, भारत में गरीबों के दिलो-दिमाग पर यह बात पत्थर की इबारत की तरह छाप दी गई कि उनकी जाति कुछ भी क्यों न हो, उनके विकास का सबसे पक्का तरीका आरक्षण ही है।