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बजट लैप्स यानि सिस्टम कोलैप्स! एस्टीमेट और एक्सपेंडिचर में भारी अंतर क्या आर्थिक संकट का संकेत ? सरयूसुत मिश्र 

सार

किसी भी सरकार की सफलता अथवा असफलता देखना हो तो उसके बजट अनुमान और उसके वास्तविक खर्चों को गहराई और ध्यान से देखना जरूरी है. सरकारों का यह एक ऐसा दस्तावेज होता है जिसमें सभी विभागों की योजनाओं, कल्याण कार्यक्रमों और स्थापना व्यय का लेखा जोखा होता है..!

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विस्तार

सरकार का एक एक पैसा कहां से आ रहा है और कहां खर्च हो रहा है यह बजट में परिलक्षित होता है| आमदनी और खर्चों में ही सरकार की गतिशीलता, गवर्नेंस और गरजने-बरसने का अंतर साफ दिखाई पड़ता है| अगर कोई राज्य सरकार अपने बजट अनुमान का लगभग एक लाख करोड रुपए खर्च नहीं कर पाए तो इसका मतलब है कि वह सरकार वित्तीय कुप्रबंधन के साथ ही सुस्त प्रशासन का शिकार हो गई है| ऐसी स्थिति आर्थिक संकट का भी संकेत हो सकती है|

मध्य प्रदेश सरकार का 2021-22 का 2.41 लाख करोड़ का बजट विधानसभा में पारित हुआ था| उसके बाद बड़ी राशि के अनुपूरक अनुमान दो बार लाए गए| वित्तीय वर्ष समाप्ति 31 मार्च की स्थिति में सरकार के खर्चों पर जो मीडिया रिपोर्ट सामने आई हैं वह चौंकाने वाली है|

रिपोर्ट में बताया गया है राज्य सरकार अपने बजट का 61% राशि ही खर्च कर पाई| बजट की 39 प्रतिशत राशि लैप्स हो गई| प्रतिशत को आंकड़ों में देखें तो पता चलता है कि सरकार द्वारा पारित कुल बजट 2 लाख 78 हज़ार 378 करोड़(अनुपूरक सहित) के बजट में सरकार 1 लाख 70 हज़ार 98 करोड़ ही खर्च कर सकी| हो सकता है फाइनल आंकड़ों में थोड़ा बहुत अंतर आ जाए, लेकिन यह परिस्थिति राज्य के प्रशासन और वित्तीय  हालात को समझने के लिए पर्याप्त है| 
यह स्थिति भी तब है जब पेट्रोल डीजल पर वेट टैक्स और जीएसटी से सरकार का खजाना लबालब भरा हुआ है|

सबसे बड़ा सवाल यह कि राज्य का बजट क्या दिमाग का प्रयोग किए बिना बनाया जाता है? जानबूझकर आंकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता है? पुराने आंकड़ों में फेरबदल कर बजट पेश कर दिया जाता है? बजट के इंप्लीमेंटेशन की मानिटरिंग का कोई सिस्टम नहीं है? यह केवल बजट के लैप्स होने का मामला है या सरकारी तंत्र के कोलैप्स होने का संकेत है?

जब भी बजट आता है तो ऐसी घटाएं छा जाती हैं जिससे लगता है कि इससे कल्याण की जो बारिश होगी उससे प्रदेश का हर नागरिक भीग जाएगा| हर जीवन को खुशहाली मिलेगी| सपनों का ऐसा महल बनाया जाता है कि पूरा प्रदेश सपनों में जीने लगता है| बजट की ऐसी दुंदुभी और शहनाई बजाई जाती है कि ऐसा आभास होता है कि पीड़ा और कष्ट का दौर अब खत्म हो जाएगा| ऐसी परिस्थिति को आसान भाषा में ऐसे समझा जा सकता है कि सात फेरे लेने के बाद ही विवाह संस्कार संपन्न माना जाता है| केवल शहनाई बजाने से तो विवाह होना नहीं माना जाएगा? बजट प्रावधान मात्र से तो कल्याण नहीं हो जाएगा? जमीन पर बजट उतरेगा और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन जब जनता के फेरे लगाएगा और वहां शहनाई बजेगी तभी जनकल्याण पूर्ण हो सकेगा|

ऐसी परिस्थितियां क्यों ?

बजट अनुमान और वास्तविक व्यय में जमीन आसमान के अंतर की परिस्थितियां क्यों बनती है? क्या सरकार जानबूझकर जनता को सपना दिखाने के लिए बजट अनुमान बढ़ा चढ़ा कर पेश करती है? बजट बनाने में शामिल सरकारी तंत्र की कहीं अक्षमता तो नहीं कि उसे वास्तविकता का ज्ञान ही नहीं है| 

बजट के अनुरूप टैक्स कलेक्शन और अन्य आय नहीं हो पाती ताकि बजट के अनुरूप खर्चा हो सके| बजट बनाने और क्रियान्वयन करने की सरकारी तंत्र की कैजुअल अप्रोच देखकर आप हैरान हो जाएंगे| कई मदों में बजट में पैसा होने के बाद भी अनुपूरक अनुमान में राशि प्राप्त कर ली जाती है और पूरी राशि लैप्स हो जाती है| मंत्रियों विधायकों और सरकारी अधिकारियों के वेतन भत्ते, पेंशन और उनको मिलने वाले अन्य मदों में राशि लैप्स नहीं होती| 

केवल कल्याण योजनाओं की राशि लैप्स क्यों होती है ?

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 21-22 में राज्य सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं - लाडली लक्ष्मी, कन्या विवाह और तीर्थ दर्शन योजना की राशि भी लैप्स हुयी है| सरकारी तंत्र के लिए सब कुछ ठीक चल रहा है| पब्लिक के हित ही क्यों प्रभावित होते हैं? बजट प्रावधान के समुचित, सही उपयोग एवं कठोर मानिटरिंग की जिम्मेदारी क्यों नहीं तय  की जाती?  सुस्त और लचर प्रशासनिक शैली अगर इस आर्थिक गड़बड़झाले के लिए जिम्मेदार है तो उसे क्यों दंडित नहीं किया जाता? सरकार को हर साल 31 मार्च के तुरंत बाद जनता को यह क्यों नहीं बताना चाहिए कि बजट अनुमान और वास्तविक व्यय में कितना अंतर रहा इसके क्या कारण हैं?

क्या ऐसी परिस्थितियां राज्य की सरकारी व्यवस्थाओं के खोखला होने का इशारा नहीं कर रही हैं? कहा जाता है कि बनने में बहुत समय लगता है लेकिन बिगड़ने में एक क्षण लगता है| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रविवार को नई दिल्ली में शासन के सचिवों की बैठक में एक वरिष्ठ नौकरशाह ने राज्यों की लोकलुभावन योजनाओं और वित्तीय स्थिति का ब्यौरा देते हुए कहा कि यह तरीके टिकाऊ नहीं हैं| कुछ राज्यों की वित्तीय स्थिति अस्थिर है ऐसी परिस्थितियां राज्यों को श्रीलंका के रास्ते पर ले जा सकती हैं| श्रीलंका कंगाल हो गया है| कर्ज के जाल में पूरा देश डूब गया है| श्रीलंका में भूखमरी के शिकार लोग सड़कों पर उतर आये हैं|

सरकारी और राजनीतिक तंत्र क्या जनता से बेवफाई के लिए ही बना है? महंगाई आज चरम पर है, मजदूर के खून पसीने से ज्यादा पेट्रोल डीजल महंगा हो गया है| राज्य के आर्थिक हालात भले अभी नियंत्रण में दिखाई पड़ रहे हों लेकिन सारे संकेत यही बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य गंभीर रूप से खराब हो गया है| वास्तविकताओं को समझ कर उनके समाधान की ओर अभी नहीं सोचा गया तो फिर मध्यप्रदेश 90 के दशक के हालात में पहुंच सकता है|