एमपी में चुनावी प्रचार आखिरी दौर में है. 15 नवंबर की शाम को प्रचार बंद हो जाएगा. राज्य के बाहर के सारे सूरमा प्रदेश छोड़कर चले जाएंगे. प्रचार के आखिरी दिन दोनों दलों द्वारा पूरी ताकत झोंकने के बाद भी चुनावी माहौल उत्सव का रूप नहीं ले सका है. चुनावी मुद्दे तो हमेशा की तरह इस बार भी भटक गए हैं. जनता से जुड़े मुद्दे फिल्मी डायलॉग, जाति और धर्म के नाम पर पीछे हो गए हैं..!!
कांग्रेस हर राज्य की तरह मध्यप्रदेश में भी अडानी-अंबानी को उतार चुकी है. मुस्लिम मतों के विभाजन को रोकने के लिए सारी जुगत कांग्रेस की खुशफहमी को बढ़ा रही है तो प्रतिक्रिया में हिंदू ध्रुवीकरण की आशा भाजपा की खुशी का कारण बनी है. मुस्लिम बहुल इलाकों में राहुल के रोड शो ने मुस्लिम मतों के एकीकरण को गति दी है तो इसके कारण हिंदू-मुस्लिम की सियासत को भी हवा मिली है. प्रचार के अंतिम दिन से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इंदौर में रोड शो के जरिए भोपाल के रोड शो का सियासी जवाब जैसा दिया है. इंदौर मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी है और वहां की हवा बहुत बड़े इलाके में दिशा का संकेत देती है. मालवा निमाड़ का विजेता ही मध्यप्रदेश का विजेता बनता रहा है.
चुनाव प्रचार के अंतिम दिन पहुंचते-पहुंचते हवा का रुख समझ में आने लगता है लेकिन यह पहला चुनाव है जब मतदाता चुप्पी साधे हुए हैं. चारों ओर यही सुनाई पड़ रहा है कि कड़ी टक्कर है. वैसे 20 साल बाद भी चुनाव में कड़ी टक्कर सत्ताधारी दल के लिए खुशी का ही संकेत माना जाएगा. चुनाव में सरकारों का रिपीट होना चुनौतीपूर्ण होता है. ऐसी हालत में 20 साल बाद चुनावी टक्कर बड़ी बात मानी जाएगी. मध्यप्रदेश में 10 साल की सरकार के बाद कांग्रेस की सरकार का चुनाव में जो हश्र हुआ था वह बड़े सबक के रूप में हमारे सामने है.
भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर के चुनाव में सपा, बसपा, आप और बगावती निर्दलीय दोनों दलों के प्रत्याशियों के समीकरण बिगाड़ते दिखाई पड़ रहे हैं. पिछले चुनाव में 10 सीटों पर नोटा के कारण नतीजे बदल गए थे. इस चुनाव में तीसरे दल और निर्दलीय प्रत्याशी नतीजों का सुनिश्चित माहौल नहीं बनने के सबसे बड़े कारण माने जा रहे हैं.
मुफ्तखोरी की योजनाओं के कारण मिडिल क्लास में राजनीति के प्रति ही निराशा है. सबसे अमीर और सबसे गरीब वर्ग का चुनाव को लेकर दृष्टिकोण एकतरफा हो सकता है लेकिन मध्यमवर्ग का करदाता राजनीति से निराशा की तरफ बढ़ रहा है. इसी कारण चुनावी माहौल भी उत्साहजनक दिखाई नहीं पड़ रहा है.
मध्यप्रदेश में चुनाव मुख्यत कांग्रेस और बीजेपी के बीच है. तीसरे दल के प्रत्याशी सारे समीकरण को अस्त-व्यस्त किए हुए हैं. तीसरे दल के कारण किस दल को नुकसान होगा और किसे फायदा होगा इसका आकलन अभी नहीं किया जा सकता है. चुनाव परिणाम ही पार्टियों की रणनीतिक सफलताओं और असफलताओं को स्पष्टता के साथ सामने लाएगा.
यह चुनाव मुख्यतः चेहरों पर सिमटता दिख रहा है. राज्य स्तर के नेताओं और प्रत्याशियों के चेहरे पर जनमत की दिशा तय हो सकती है. राज्य स्तर पर कांग्रेस में तो कमलनाथ सीएम फेस हैं. दूसरी तरफ शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री पद पर ही हैं. भविष्य के लिए भले ही उनको सीएम फेस नहीं बनाया गया है लेकिन प्रदेश में चुनाव इन्ही चेहरों के बीच सिमट गया है. पार्टियों के जनाधार अपनी जगह हैं लेकिन प्रत्याशियों के चेहरों पर भी कई क्षेत्रों में उलटफेर देखे जा रहे हैं. दोनों पार्टियों के राज्य स्तरीय चेहरे चुनावी नतीजे की पृष्ठभूमि तय कर सकते हैं.
चुनाव में दूसरा बड़ा फैक्टर लाड़ली बहना योजना बनी हुई है. इस योजना का सीधा लाभ शिवराज सिंह चौहान और भाजपा को मिलता दिखाई पड़ रहा है. शायद इस योजना के कारण ही चुनाव कड़ी टक्कर में फंसे हुए दिखाई पड़ रहा है. इस योजना के पहले राजनीतिक चर्चाएं तो एकतरफा चुनाव की ही हो रही थीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मध्यप्रदेश में अब तक चुनावी सभा और रोड शो पहले के सभी चुनाव से संख्या में काफी ज्यादा हैं. जनमत में बीजेपी के जनाधार में पीएम मोदी का आधार भी देखा जा रहा है.
हर विधानसभा क्षेत्र में जातिगत समीकरण चुनावी नतीजे का समीकरण तय कर रहे हैं. कांग्रेस से राहुल गांधी जातिगत समीकरण को कांग्रेस से पक्ष में करने के लिए ही जातिगत जनगणना का राजनीतिक दांव चल रहे हैं. बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री मोदी यह कहकर कि सबसे बड़ी जाति गरीब की जाति है, गरीबों के साथ और शासकीय योजनाओं के लाभार्थियों के साथ अपने कनेक्ट को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं.
कर्नाटक जीत से उत्साहित कांग्रेस मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के मुद्दों को चुनावी धार देने में सफल नहीं हो पाई है. कांग्रेस की आशा का सबसे बड़ा आधार सरकार के खिलाफ बदलाव को ही कहा जा सकता है. विपक्षी भूमिका की दृष्टि से कांग्रेस भी राजनीतिक एंटी इनकम्बेंसी का शिकार हो सकती है. यह पहला चुनाव है जब पांच साल के अंदर कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारों का परफॉर्मेंस जनता ने देखा है. अगर बीजेपी के खिलाफ साढ़े तीन साल की एंटीइनकम्बेंसी है तो फिर कांग्रेस के 15 महीने के कार्यकाल की एंटीइनकम्बेंसी भी जनभावनाओं में होनी ही चाहिए.
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बीजेपी को पराजित कर चुकी है लेकिन कांग्रेस अपने आंतरिक विद्रोह और बगावत के कारण सरकार नहीं चला सकी थी. जिस कांग्रेस को सरकार चलाने में महारत थी, वह कांग्रेस एमपी में अपनी सरकार क्यों नहीं चला सकी, इस पर भी जनमत के सवाल हैं. यह सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि इस चुनाव में कांग्रेस की ओर से उसी चेहरे को सीएम फेस बनाया गया है जिस चेहरे के नेतृत्व में 15 महीने सरकार थी और सरकार गिरी भी थी. यदि परस्पर राजनीतिक मान-सम्मान और तवज्जो के कारण सरकार का पतन हुआ था तो फंक्शनिंग स्टाइल में बदलाव तो उसके बाद भी महसूस नहीं किया गया है.
प्रचार अभियान बंद होने के बाद घर-घर संपर्क और बूथ मैनेजमेंट से ही चुनाव जीते जाते हैं. दोनों दलों के जाति और संप्रदाय के समीकरण तो कमोबेश पूर्ववत है, उनमें तो कोई फेरबदल होता दिखाई नहीं पड़ रहा है. मतदान का प्रतिशत और बूथ मैनेजमेंट ही जीतने वाले दल की दिशा तय करने वाला है.कांग्रेस में जहां नेता आधारित मैनेजमेंट होता है वही बीजेपी में संगठन आधारित बूथ मैनेजमेंट सफलता से काम करता रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन सामाजिक स्तर पर भाजपा को राजनीतिक समर्थन और सहयोग देता रहा है. संघ की भूमिका भी अगले दो दिनों में चुनाव को दिशा देगी.
जनमत कभी भी गलत निर्णय नहीं करता. जिन चेहरों और पार्टियों के बीच मध्यप्रदेश का चुनाव कड़ी टक्कर का इशारा कर रहा है, उनकी वास्तविकताओं और परफॉर्मेंस पर भी जनमत की बारीक नजर है. मध्यप्रदेश के भविष्य के इस चुनाव में सही और स्पष्ट चयन की चुनौती पब्लिक जरूर पूरा करेगी. राजनेता भले मुद्दों को भटका देते हों लेकिन जनहित अपने मुद्दे कभी भी भटकने नहीं देता.