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लापरवाही-अगंभीरता बनती राजनीति की शैली

सार

राजस्थान में आज मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ऐसा अजूबा कर गए हैं जो भारतीय राजनीति में पहले कभी नहीं हुआ है. राजस्थान विधानसभा में अगले साल का बजट पढ़ते हुए गहलोत पिछले साल का बजट पढ़ते रहे. राज्य के मुख्यमंत्री को यह भी एहसास नहीं हुआ कि वह पुराना बजट पढ़ रहे हैं. जब उन्हें एक मंत्री द्वारा याद दिलाया गया तब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ. इसे गलती कहना शायद सही नहीं होगा. या तो अस्थिर मनस्थिति के कारण या सत्ता के नशे के कारण इस तरह की महा भूल की गई है.

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विस्तार

अशोक गहलोत ही केवल इससे हंसी का पात्र नहीं बने हैं बल्कि संसदीय शासन प्रणाली की अगुवाई करने वाले राजनेताओं की लापरवाही और अगंभीरता प्रमाणित हुई है. क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि एक मुख्यमंत्री राज्य सरकार का सबसे पवित्र और प्रमाणित दस्तावेज को ही पढ़ने में इतनी बड़ी चूक कर सकता है. इसको देखकर ऐसा माना जा सकता है कि शासन संचालन में किस-किस तरह की चूकें नहीं की जा रही होंगी? लिखने-पढ़ने में गलती हो जाना सामान्य माना जा सकता है लेकिन यह घटना सामान्य नहीं बल्कि लोकतंत्र को कलंकित करने की अजूबी घटना है.

आजकल लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में स्थापित राजनेताओं की लापरवाही और अगंभीरता के किस्से अक्सर सुनाई पड़ते हैं. राजनेताओं से लोकतांत्रिक व्यवहार की अपेक्षा हर दिन धूल धूसरित होती जा रही है. राजनेता राजनीति में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पार्टी और सरकार के कामकाज के लिए शायद समय ही नहीं मिलता. अशोक गहलोत का ही उदाहरण देखा जाए तो चालू साल कांग्रेस में गहलोत के नाम ही रहा. उनकी महारत और योग्यता को देखते हुए ही कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष का प्रत्याशी बनाने का सोचा था. कांग्रेस और देश को न मालूम किस ताकत ने ऐसी महान विभूति के नेतृत्व से बचाया. उसके बाद तो गहलोत के सारे रंग बिखरते हुए दिखे.

राजस्थान में कांग्रेस के बीच जिस तरह का खुला राजनीतिक संघर्ष गहलोत की लीडरशिप में हुआ, वह भी अभूतपूर्व था. सचिन पायलट को लेकर उन्होंने किस-किस तरह के बयान दिए. वह भी इतने वरिष्ठ नेता के नजरिए से अभूतपूर्व ही रहा है. राजस्थान विधानसभा में पिछले साल का बजट पढ़कर तो गहलोत ने पूरे देश को चौंका दिया है.

अगर डेमोक्रेसी की इसे खूबी कहा जाए कि चुनाव प्रक्रिया के जरिए बिना किसी शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता के कोई भी व्यक्ति किसी भी पद पर पहुंच सकता है तो गहलोत का आज का कारनामा डेमोक्रेसी के इस पवित्र लक्ष्य को ही दूषित करने वाला लगने लगा है. क्या ऐसा सोचा जा सकता है कि एक राज्य का मुख्यमंत्री जो वित्त विभाग भी संभालता है वह विधानसभा में बजट भाषण पढ़ने के लिए जा रहा है और उसके पास पिछले साल के भाषण की प्रति हो? इसे तो राजनीतिक पागलपन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा. सीएम सचिवालय और वित्त विभाग में काम कर रहे अधिकारियों की सजगता और सक्रियता भी इस सारे घटनाक्रम से उजागर हो गई है.

राज्य की जनता के नजरिए से अगर विचार किया जाए तो राजस्थान आज निराशा की जिस अनुभूति को महसूस कर रहा होगा वह अकल्पनीय है. विपक्षी दल के रूप में बीजेपी ने भी इस मामले को उछालने में कोई चूक नहीं की.

कोई भी दुर्घटना सोच समझकर नहीं होती. आकस्मिक होती है लेकिन गहलोत ने जो किया है उसे तो किसी भी दृष्टि से सामान्य नहीं कहा जा सकता. उस बजट में क्या विचार किया गया होगा जिसको पढ़ने के पहले मुख्यमंत्री को आभास नहीं हुआ कि यह वही बजट है जिसे उन्हें विधानसभा में प्रस्तुत करना है.

इसका आशय है कि बजट किसी और स्तर पर तैयार किया गया है और मुख्यमंत्री उसे केवल पढ़ने की औपचारिकता कर रहे थे. अगर उन्हें बजट की पूरी जानकारी होती तो जैसे ही उन्होंने एक लाइन पढ़ी थी वैसे ही समझ आ जाता है कि यह तो वह बजट नहीं है जिसे विधानसभा में पेश किया जाना है. बजट तैयार करना मुख्यमंत्री की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है जो गहलोत ने नहीं निभाकर राजस्थान के साथ अक्षम्य अपराध किया है. 

कांग्रेस पार्टी गहलोत को राजस्थान में बदलना चाहती थी. विधानसभा में गहलोत ने जिस तरह का नजारा पेश किया था उसके बाद गहलोत को मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखना कांग्रेस के दिवालियापन के अलावा कुछ नहीं कहा जाएगा. राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत की लीडरशिप में चुनाव में नहीं जाने के लिए कांग्रेस को तुरंत निर्णय लेने की जरूरत है.

कांग्रेस संगठन आज कमजोर स्थिति में है. आलाकमान की हालत खराब है. कांग्रेस गहलोत को बदलने का निर्णय लेने के लिए सक्षम नहीं दिखाई पड़ रही है. राजस्थान में कांग्रेस ने अपना नेता नहीं बदला तो राजस्थान की जनता सरकार बदलने का जरूर चुनाव में निर्णय कर सकती है.

राजनीति में लापरवाही और  अगंभीरता की बढ़ती घटनाएं चिंता पैदा कर रही हैं. जो भी स्थापित और सफल नेता हैं उनके द्वारा पब्लिक के साथ सामान्य व्यवहार नहीं किए जाने की घटनाओं की कोई कमी नहीं है. नेताओं को सुधरने का समय है. अगर इस दिशा में अभी सटीक कदम नहीं उठाए गए तो देश के राजनीतिक क्षेत्र में सुधार के लिए पब्लिक की ओर से कड़ी पहल की संभावना को नकारा नहीं जा सकेगा.