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चुनाव जीतने से ज्यादा सीएम चुनना बड़ी चुनौती

सार

कर्नाटक में बड़ी चुनावी जीत, जोश को सीएम के चुनाव में आलाकमान को होश में ला दिया है. दोनों दावेदार सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ताल ठोक रहे हैं. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपने गृह राज्य में सीएम चुनने की चुनौती से जूझ रहे हैं..!

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विस्तार

पार्टी की कमान भले मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ में हो लेकिन फैसला तो गांधी परिवार का ही होगा. कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री के ऐलान में बहुत समय लगाना कांग्रेस की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा. अगर कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों पर भरोसा किया जाए तो पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को ही मुख्यमंत्री का ताज मिल सकता है. राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार को डिप्टी सीएम और संगठन की कमान के फार्मूले से ही संतुष्ट होना पड़ सकता है.

मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस में लड़ाई अक्सर दिखाई व सुनाई पड़ती है. कोई भी राजनीतिक दल नए नेतृत्व को विकसित करने का प्रयास करता है लेकिन कांग्रेस युवाओं की बजाए बुजुर्ग नेताओं को मुख्यमंत्री पद के लिए अधिक वरीयता देती है. कर्नाटक में भी ऐसा ही होता हुआ दिखाई पड़ रहा है. 

सिद्धारमैया 75 साल से ऊपर की उम्र पार कर चुके हैं. बीजेपी में जहां इस उम्र के बाद नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में रखकर नए नेतृत्व को मौका दिया जाता है वहीं कांग्रेस युवा नेताओं के हक के खिलाफ फैसला करती नजर आती है. कर्नाटक में पार्टी की कमान संभालते हुए डीके शिवकुमार ने कांग्रेस की जीत में बड़ी भूमिका निभाई है. उनकी उम्र भी 62 वर्ष के करीब है. 

कांग्रेस ने कई राज्यों में सत्ता में आने के बाद सीएम चुनने में जो रणनीति अपनाई थी उसके कारण कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान झेलना पड़ा है. कर्नाटक में भी ऐसे ही हालात दिखाई पड़ रहे हैं. चुनाव में विपक्षी दल के प्रदेश अध्यक्ष को ही सामान्यतः पार्टी के चेहरे के रूप में देखा जाता है. जनादेश मिलने की स्थिति में इसी चेहरे को सरकार में सीएम का पद दिया जाता है. इस मामले में कांग्रेस ने अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग स्टैंड लिया है.

मध्यप्रदेश में 2018 में जब चुनाव हुए थे तब कमलनाथ पीसीसी के अध्यक्ष थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया स्टार प्रचारक के रूप में राज्य में सक्रिय थे. युवा चेहरे के रूप में कांग्रेस को मिले जनादेश में सिंधिया की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जा रही थी. कांग्रेस ने सीएम चुनते समय पीसीसी प्रेसिडेंट कमलनाथ को मौका दिया. यहीं से कमलनाथ और सिंधिया के बीच राजनीतिक विवाद की शुरुआत हो गई थी जो बाद में बगावत के साथ कांग्रेस की सरकार के पतन का कारण बना.

इसी तरह राजस्थान में भी कांग्रेस को सरकार चलाने का जनादेश मिला था. तब सचिन पायलट राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष थे लेकिन मध्यप्रदेश का फॉर्मूला राजस्थान में नहीं अपनाया गया. कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत को कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के पद से मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी. सचिन पायलट को डिप्टी सीएम बनाया गया. राजनीतिक विवाद वहीं से शुरु हो गए थे फिर बाद में तो पायलट समर्थकों के विद्रोह और राजस्थान कांग्रेस के भीतर मचे घमासान के दृश्य तो आज तक दिखाई पड़ रहे हैं. अब सचिन पायलट अपने मुख्यमंत्री और सरकार के खिलाफ चुनासे पहले जन संघर्ष यात्रा निकाल रहे हैं.

सोनिया गांधी और कांग्रेस आलाकमान के चाहते हुए भी नेता चुनने के लिए कांग्रेस विधायक दल की बैठक तक जयपुर में नहीं हो सकी. सीएम चुनने के बाद राजस्थान कांग्रेस में शुरू हुए विवाद के कांग्रेस सरकार के पतन के साथ समाप्त होने की संभावना लगती है. राजस्थान में हर पांच साल में सरकार में बदलाव की परंपरा और कांग्रेस की कलह को देखते हुए इस साल के अंत में होने वाले चुनाव में बीजेपी की सरकार बनने की संभावना देखी जा रही है.

छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस में पीसीसी प्रेसिडेंट भूपेश बघेल को राज्य में कांग्रेस की जीत का शिल्पकार मानते हुए मुख्यमंत्री के रूप में चुना था. टीएस सिंह देव को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी देकर संतुलन बनाने का फार्मूला अपनाया गया था लेकिन सीएम चुनने के साथ शुरू हुआ राजनीतिक असंतोष अभी भी उभरता दिखाई पड़ता है. पंजाब में मुख्यमंत्री पद के चयन में मची कलह ही राज्य में पार्टी के सफ़ाए का कारण बनी थी.

राजनीतिक दलों की कोशिश हमेशा नए नेतृत्व को उभारने की होनी चाहिए लेकिन कांग्रेस युवा नेताओं को मौका देने से बचती रही है. राहुल गांधी जब राजनीति में उभार पर थे तब तो राजनीतिक हलकों में ऐसा कहा जाता था कि पार्टी में युवा नेताओं को महत्वपूर्ण स्थानों पर इसलिए मौका नहीं दिया जाएगा क्योंकि युवा नेता पब्लिक के बीच पदों पर रहते हुए अपनी इमेज को चार चांद लगाने में सफल हो गए तो फिर पार्टी के अंदर चमकते चेहरों के बीच में तुलना करने का अवसर उपलब्ध होगा. पार्टी आलाकमान के रूप में गांधी परिवार अपने वारिस को ही नेतृत्व की कमान सौंपना चाहता है इसलिए दूसरे युवा नेताओं को हमेशा पीछे धकेला जाता है.

कर्नाटक की जीत कांग्रेस के लिए संजीवनी के रूप में देखी जा रही है. यह जीत स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेताओं की भूमिका की ही कही जाएगी. क्रेडिट भले ही राहुल गांधी या गांधी परिवार को दिया जाए लेकिन पॉलिटिकल पार्टी में लोकल लीडरशिप को रिस्पॉन्स नहीं दिया जाता तो बड़ी-बड़ी राजनीतिक ताकतों को भी वास्तविकता का अंदाजा लग ही जाता है.

कांग्रेस के लिए जरूरी है कि सहमति के फार्मूले के साथ सीएम का चयन और प्रभावशाली नेताओं को संयोजित करे. कर्नाटक में सिद्धारमैया विधायकों के समर्थन पर अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं. डीके शिवकुमार संगठन में अपनी भूमिका और जीत के लिए पुरस्कार के रूप में आलाकमान से समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं. डीके शिवकुमार अपने बयानों के माध्यम से जो भी राजनीतिक संकेत दे रहे हैं उसमें वे बार-बार कह रहे हैं कि उनकी तपस्या पूरी हुई. सभी विधायक एक साथ पार्टी के साथ हैं. वे ब्लैकमेल नहीं करते हैं.उनके सारे शब्द राजनीतिक निहितार्थ को समझने के लिए पर्याप्त हैं. 

सीएम की कुर्सी एक है. सरकार में आजकल ऐसे हालात बन गए हैं कि कैबिनेट की पहचान गुम हो गई है. राज्य सरकार का चेहरा केवल सीएम दिखाई पड़ता है. इसीलिए शायद सीएम के पद के लिए संघर्ष ज्यादा होता है. लोकतंत्र में कैबिनेट के मुखिया भले ही सीएम होते हैं लेकिन कैबिनेट के सदस्य भी महत्व रखते हैं. राज्य सरकार में मुख्यमंत्री का चेहरा इतना बड़ा हो गया है कि अब किसी भी राज्य में कैबिनेट के सदस्यों के चेहरे की पहचान गुम सी हो गई है जबकि कैबिनेट की पहचान लोकतंत्र की पहचान है.