विधानसभा सत्र छोड़कर कांग्रेस विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू जाकर सरकार के एक मंत्री के विरुद्ध बेनामी संपत्तियों का दस्तावेज सौंपता है. जांच की मांग करता है. सारे विधायक नहीं जाते केवल कुछ ही जाते हैं. इसे चलते सत्र में गुटबाजी भी कहा जा रहा है. मंत्री पर आरोप सही है गलत है, यह तो जांच के बाद साबित होगा..!!
कांग्रेस और बीजेपी के दो नेताओं के बीच विवाद इतना बढ़ गया है, कि 20 करोड़ के मानहानि नोटिस और सुपारी पॉलिटिक्स तक पहुंच गया है. नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार और खाद्य नागरिक आपूर्ति मंत्री गोविंद सिंह राजपूत एक दूसरे पर करप्शन के आरोप लगा रहे हैं. राजपूत तो यहां तक कह रहे हैं, कि नेता प्रतिपक्ष ने उनके खिलाफ आरोप लगाने का टेंडर लिया है, सुपारी ली है, अगर शिकायत नहीं करेंगे तो टेंडर वापस हो जाएगा.
विवाद की पृष्ठभूमि परिवहन घोटाले और सागर जिले की बीजेपी की राजनीति से जुड़ी लगती है. कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होने वाले विधायकों और मूल भाजपा नेताओं के बीच घोषित अघोषित राजनीतिक द्वंद आम हो गया है. सागर में इसका सबसे विकराल रूप दिखाई पड़ रहा है. लोकायुक्त और दूसरी जांच एजेंसियों के छापे में सौरभ शर्मा से सोना और नगदी की जब्ती के बाद उसकी नियुक्ति और उसको संरक्षण देने के आरोपी की शुरुआत हुई. भूपेंद्र सिंह और गोविंद सिंह राजपूत दोनों परिवहन मंत्री रह चुके हैं. सौरभ शर्मा किसके संरक्षण में काम कर रहा था, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है. नीचे से लेकर ऊपर तक पूरा सिस्टम उसके प्रोटेक्शन में काम नहीं करेगा, तब तक वसूली का इतना बड़ा माफिया किसी भी विभाग में चल ही नहीं सकता है.
विपक्ष के रूप में कांग्रेस का यह दायित्व है, कि सरकार से जुड़े भ्रष्टाचार को पूरी क्षमता के साथ उजागर करे. जांच एजेंसी में शिकायत करे और सरकार को कटघरे में खड़ा करे. पहले भी नेता प्रतिपक्ष ऐसी भूमिकाएं बखूबी निभाया करते थे. जमुना देवी शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट तक गईं. लोकायुक्त में शपथ पत्र देकर शिकायत की. कैलाश जोशी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ शिकायत की. उन्होंने तो चुरहट लॉटरी मामले में हाईकोर्ट जाकर लड़ाई लड़ी. दिग्विजय सिंह ने भी लोकायुक्त में कई मामलों की कानूनी ढंग से शिकायत दर्ज कराई. इतनी बड़ी-बड़ी सियासी लड़ाईयों के बाद भी कभी भी नेता प्रतिपक्ष जैसे संवैधानिक पद के विरुद्ध सुपारी लेकर शिकायत करने के आरोप नहीं लगे.
मीडिया रिपोर्ट्स पर अगर भरोसा किया जाए तो नेता प्रतिपक्ष के नेतृत्व में लोकायुक्त से मिलने गए कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल ने दस्तावेज और तथ्य भले ही सौपे हों. लेकिन किसी ने भी शपथ पत्र पर शिकायत नहीं की. बिना शपथ पत्र पर शिकायत के लोकायुक्त प्राथमिक जांच स्थापित नहीं कर सकते. जहां तक सवाल सौरभ शर्मा के यहां छापे में जब्त दस्तावेजों और परिवहन घोटाले की लोकायुक्त में चल रही जांच प्रक्रिया का सवाल है, तो सार्वजनिक रूप से पब्लिसिटी स्टंट के साथ दस्तावेज तभी सौंपे जाते हैं, जब कोई शिकायतकर्ता शपथ पत्र प्रस्तुत करे. वैसे तो जांच प्रक्रिया में कोई सहयोग करना चाहता है. तो उसके लिए स्टंट करने की आवश्यकता नहीं होती चुपचाप दस्तावेज और जरूरी तथ्य सौंपे जा सकते हैं.
लोकायुक्त संवैधानिक जांच एजेंसी है. जो जांच एजेंसी करप्शन के मामलों में इतनी सजग और सतर्क है, कि उसके छापे के बाद ही सौरभ शर्मा का काला सच उजागर हुआ है, उस जांच एजेंसी के पास वह तथ्य नहीं होंगे जो सार्वजनिक रूप से सागर में चर्चा का विषय हैं. परिवहन विभाग में घोटाले का पूरा मामला जांच की प्रक्रिया में है. कानून के दायरे में उस पर कार्रवाही निश्चित रूप से की जाएगी.
जिस पार्टी के विधायक दस्तावेज और तथ्य देते समय शपथ पत्र देने का साहस नहीं दिखा सकते, उनकी सोच और करप्शन की जांच के मामले में उनका नजरिया समझा जा सकता है. यह बात भी आश्चर्यजनक है, कि कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल ने लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू दो जांच एजेंसियों को दस्तावेज सौंपे. सामान्य ज्ञान की बात है, कि एक ही मामले में दो एजेंसियां जांच नहीं करतीं. लोकायुक्त के छापे की जांच प्रक्रिया पहले से ही चल रही है. जांच प्रक्रिया के राजनीतिकरण से बचना चाहिए.
गोविंद सिंह राजपूत उन पर लगे आरोपों के संबंध में जो भी सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है. उनका कहना है यह षड़यंत्र है. नेता प्रतिपक्ष ने उनके विरुद्ध सुपारी ली है, टेंडर लिया है और वह ऐसा नहीं करेंगे तो टेंडर वापस हो जाएगा. गोविंद राजपूत ने नेता प्रतिपक्ष पर 2 करोड़ की गाड़ी में चलने का आरोप लगाया है. उन्होंने सवाल किया है, कि सारा पैसा कहां से आता है.
कभी दोनों नेता कांग्रेस की एक ही टीम के प्लेयर हुआ करते थे. वर्तमान में भले ही दोनों पॉलिटिकल प्लेयर अपना-अपना आईपीएल अलग-अलग टीमों से खेल रहे हों, लेकिन खेल भावना तो दोनों से खेल में ईमानदारी की मांग करती है. शिकवा-शिकायत के इस गंभीर मामले में भी कांग्रेस संगठन और विधायक दल अलग-अलग दिखाई पड़ रहा है.
सियासत में सुपारी लेना और सुपारी देना अब आम बात हो गई है. कमलनाथ सरकार के समय भी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ बहुत गंभीर आरोप लगाए गए थे. कनिष्ठता, वरिष्ठता और पार्टी अनुशासन को भी नजर अंदाज किया गया. पॉलिटिक्स में एक नया ट्रेंड चल पड़ा है, कि नौसिखिए नेता स्थापित छत्रपों पर सवाल खड़े करते हैं और मीडिया में इसको जगह मिलती है. मीडिया में प्रचार गंभीरता नहीं अहंकार को ही बढ़ाता है. यही अहंकार बढ़ते बढ़ते मान-सम्मान को लील जाता है. मानहानि करने और उन पर मानहानि के मुकदमे भी सियासत के नए ट्रेंड बन गए हैं. मध्य प्रदेश में तो उमा भारती, दिग्विजय सिंह, शिवराज सिंह सब नेताओं ने एक-दूसरे के खिलाफ मानहानि के मुकदमे लड़े हैं.
सियासत में आ रही गिरावट का एक बड़ा कारण सुपारी पॉलिटिक्स भी है. इसको नकारात्मक नजरिए से ही नहीं देखना चाहिए. इसका सकारात्मक दृष्टिकोण भी है. राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व, राज्यों में नए नेतृत्व को विकसित करते समय भी एकाधिकार और नियंत्रण को वरीयता देते हैं. यह भी एक तरीके की सुपारी पॉलिटिक्स का ही रूप है. स्थापित छत्रपों को नजर अंदाज किया जाता है और नए नेतृत्व को अवसर देकर सुपारी अनुसार राजनीति को अंजाम दिया जाता है.
सियासत के प्रति उनमें ही आज रुचि बची है जो सियासत में ही जीते हैं और सियासत ही जिनका जीवन आधार है सियासत में आचरण, व्यवहार, चाल-चरित्र और चेहरा परसेप्शन में स्पष्ट होने के बाद भी ना तो संगठन सवाल खड़े करता हैं और ना ही शीर्ष नेतृत्व ध्यान देता है.
सुपारी पॉलिटिक्स के गंभीर आरोपों पर चुपचाप देखना ही राजनीतिक सिस्टम का हिस्सा बन गया है. कई बार राजनेता ऐलान करते हैं, कि घोटाले पर खुलासा जल्दी ही करेंगे. लेकिन ना मालूम क्या समझौते हो जाते हैं, क्या सुपारी मिल जाती है, फिर कभी घोटाले का खुलासा हो ही नहीं पाता. घोटालों में घोटाला सुपारी पॉलिटिक्स घोटाले की भी जांच की जरूरत है.