देश के विभिन्न राज्यों में राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच बढ़ती टकराव मर्यादा की सीमाएं तोड़ने लगा है. केंद्र सरकार की विरोधी दलों की राज्य सरकारों में तो यह टकराहट बुरे दौर में पहुंच चुकी है. स्थिति यहां तक बन गई है की मुख्यमंत्री अपने राज्यपाल का ट्विटर तक ब्लॉक कर देते हैं. पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल के बीच लड़ाई सड़कों पर आम हो गई है..!
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ताजा फैसला राज्यपाल को विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के पद से हटाने का लिया है. अब वहां विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति मुख्यमंत्री रहेंगी. इस संबंध में कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी गई है. इसके पहले मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच अबोला जैसी स्थिति बनी हुई थी. मुख्यमंत्री राज्यपाल पर खुलेआम ट्वीट कर आरोप लगाती रही हैं.
तमिलनाडु में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच में टकराव सार्वजनिक रूप से सामने आया है. नीट परीक्षा को लेकर राज्य सरकार द्वारा तमिलनाडु के छात्रों को उससे अलग करने के लिए लाए गए विधेयक पर अनुमति नहीं देने के कारण राज्यपाल के खिलाफ राज्य में सड़कों पर जनाक्रोश की अभिव्यक्ति सरकारी दल द्वारा की गई. स्थिति यहां तक पहुंच गई थी एक सार्वजनिक समारोह में शामिल होने गए राज्यपाल को काले झंडे तक दिखाए गए.
राज्यपाल जो शासन का संवैधानिक प्रमुख होता है. जिसके नाम से ही सारे शासनादेश जारी किए जाते हैं. उसी संवैधानिक प्रमुख के विरुद्ध काले झंडे दिखाने का कृत्य राज्यपाल की मर्यादा को तार-तार कर देता है. सारी गलती मुख्यमंत्रियों की ही होगी ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. किसी भी विवाद में दो पक्ष होते हैं, कुछ ना कुछ दोनों पक्षों की ओर से ऐसा किया जाता है जो विवाद को हवा देता है.
इसके बाद भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में संवाद और संवैधानिक संस्थाओं और व्यक्तियों का सम्मान सबसे बुनियादी जरूरत है. हो सकता है कई फैसलों से असहमति हो लेकिन संवैधानिक मर्यादाओं को देखते हुए असहमति को स्वीकार करना पड़ता है. उसको सार्वजनिक करने से कोई लाभ नहीं है.
केंद्र में जब से भाजपा की सरकार आई है तब से भाजपा विरोधी दल भाजपा से राजनीतिक मुकाबले के लिए राज्यपालों को भी राजनीति का शिकार बनाने में पीछे नहीं है. राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक भूमिका का निर्वाह करता है जो मुख्यमंत्री उसके साथ खुले रूप से टकराव कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करते हैं उस मुख्यमंत्री का नियुक्ति पत्र राज्यपाल द्वारा ही जारी किया जाता है.
वैसे ना तो और राज्यपालों को राजनीति करना चाहिए और ना ही मुख्यमंत्रियों को राज्यपालों को राजनीति का शिकार बनाना चाहिए. राजनीतिक मामले के लिए लोकतांत्रिक तरीका है. केंद्र- राज्य के बीच कुछ मुद्दों पर असहमति स्वाभाविक है. यह कोई आज का विषय नहीं है. आजादी के बाद से ही राज्यों और केंद्रों के बीच संघवाद की भावना के साथ शासन संचालन के लिए प्रयास किए जाते रहे हैं.
इस बारे में कई बार विशेष आयोग भी बनाए गए हैं. चाहे वित्तीय राशि का वितरण हो या अन्य प्रशासनिक विषय हो. एक नीतिगत आधार पर प्रक्रिया चलती रहती है इस बीच जब भी केंद्र सरकार, राज्य सरकार के विरोधी दल की होती है तो राजनीति का एक नया स्वरूप शुरू हो जाता है. कई बार तो ऐसे विचार भी सामने आए हैं जब यह कहा गया कि भारत की सरकार तो राज्यों के संघ के रूप में है.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनीति में एक ध्रुवीय परिवर्तन आया है. इसके कारण उनके राजनीतिक विरोधी हर मुद्दे को राजनीतिक ढंग से पेश करने लगे हैं. जीएसटी के मामले में भी ऐसी परिस्थितियां सामने आती रहती हैं. अभी हाल ही में पेट्रोल-डीजल पर केंद्र द्वारा एक्साइज ड्यूटी कम करने के बाद राज्यों द्वारा जनता को राहत पहुंचाने के लिए राज्य के टैक्स में कमी की अपील पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, वह भी संघवाद की राजनीति की भावना के विपरीत हैं.
अखिल भारतीय सेवाओं के मामले में भी संघीय भावनाओं को कई बार नुकसान पहुंचाया जाता है. केंद्र में अफसरों की पदस्थापना को लेकर भी विवादास्पद स्थितियां निर्मित की गई हैं. जहाँ राजनीतिक जरूरत नहीं होनी चाहिए वहां भी विरोध राजनीतिक दलों का स्वभाव बन गया है. इस कारण भारतीय शासन व्यवस्था भी राजनीतिक दांवपेच से घिरी रहती है.
केंद्र और राज्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोप हमेशा चलते रहे हैं. केंद्र और राज्यों के संबंधों से संबंधित शक्ति संतुलन के लिए 1983 में सरकारिया आयोग गठित किया गया था. इस आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा था कि राज्यपालों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री की सलाह ली जाना चाहिए.
राज्यपालों के पक्षपाती आचरण पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने की भी सिफारिश सरकारिया आयोग ने की थी. राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी इंसान हैं. कोई भी इंसान गलती कर सकता है. इसलिए सारी प्रक्रिया संवैधानिक ढंग से स्पष्ट रूप से दिशा निर्देश के रूप में उपलब्ध हो तो काम करने में किसी गड़बड़ी की गुंजाइश कम हो सकती है.
राजनीति में टकराव क्यों? राजनीति सेवा के लिए है. जो भी मौका मिला है उसमें अगर सेवा ही लक्ष्य है तो फिर किसी को ज्यादा या किसी को कम के लिए लड़ाई की तो कोई जरूरत नहीं होना चाहिए. अगर राजनीति स्वयं के लाभ के लिए है तभी ऐसा संघर्ष संभव है. समाज में जो भी लोग सेवा में लगे हुए हैं उनका तो किसी से टकराव नहीं होता. वह तो चुपचाप अपने सेवा कार्य में लगे रहते हैं. कई सेवाभावी लोगों को तो लोग जानते तक नहीं हैं.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. संघवाद को कमजोर करना भारत को कमजोर करने जैसा होगा. इसलिए भले ही केंद्र और राज्य के संबंधों में शक्ति संतुलन के लिए फिर से कोई आयोग बनाया जाए लेकिन संघ और राज्यपालों को राजनीति का शिकार बनाना भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा है. इससे व्यक्ति को और राजनीतिक दलों को बचना चाहिए.