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कुछ कीजिए इस “माँ” की मुक्ति के लिए 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 28 Mar

सार

दुर्भाग्य देश के लोग गंगा सहित कई नदियों के इतिहास और महत्व को भूलते जा रहे हैं...

janmat

विस्तार

दो दिन पहले “गंगा-दशहरा” था। गंगा अर्थात्  माँ के विशेषण से युक्त देश की जीवनदायनी नदी। वैदिक संस्कृति का उद्गम इस नदी के पवित्र जल की चर्चा से ही हुआ है। नदियों को मां की संज्ञा देना मनीषियों का जल के महत्त्व व नदियों के प्रति सकारात्मक सोच को दर्शाता है। सनातन कर्मकांड व धार्मिक समारोहों की रस्मों के मंत्रोच्चारण में पवित्र नदियों का प्रसंग जरूर आता है। गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू, सिंधू, नर्मदा, रावी, ब्यास व सतलुज जैसी नदियों की चर्चा किए बिना सनातन संस्कृति की कल्पना व भारत का गौरवमयी इतिहास अधूरा है । दुर्भाग्य देश के लोग गंगा सहित कई नदियों के इतिहास और महत्व को भूलते जा रहे हैं।

सनातन संस्कृति के धार्मिक ग्रंथों, वेदों व उपनिषदों में मानव संस्कृति की जननी नदियों की महिमा का उल्लेख ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कर दिया था। हमारे मनीषियों ने वैदिक साहित्य की रचना नदियों के सानिध्य में ही की थी। देश के कई राज्यों में बहने वाली पौराणिक महत्त्व वाली नदियां करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र हैं। सब नदियों में श्रेष्ठ ‘गंगा जी’ पवित्र नदियों की प्रतिनिधि है।

‘गंगे तव दर्शनात् मुक्ति’- धर्मग्रंथों के अनुसार इस प्रसंग का प्रादुर्भाव गंगा अवतरण के अवसर पर भगवान विष्णु के श्रीमुख से हुआ था। इसका उल्लेख ‘नृसिंह’ पुराण में हुआ है अर्थात् गंगा तेरे दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिलेगी। राजा दिलीप के पुत्र राजा भगीरथ के कठोर तप के बाद ‘गंगा जी’ अवतरित हुई। भगवान शिव ने अपनी जटाओं में समाहित करके गंगा का वेग नियंत्रित किया। तब जाकर वेगवान ‘जाह्नवी’ को पृथ्वी धारण करने में समर्थ हुई थी। भगवान शिव के स्पर्श से ‘भागीरथी’ पावन व आस्था का केन्द्र बनी। मान्यता है कि ज्येष्ठ शुक्ल की दशमी के दिन गंगा जी का धरती पर आगमन हुआ था। इस दिवस को गंगावतरण या ‘गंगा दशहरा’ के रूप में मनाया जाता है।

‘कपिल मुनि’ द्वारा शापित भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके गंगा सागर में जा मिली, तत्पश्चात् ‘अगस्त्य ऋषि’ द्वारा सोखे गए समंदर में पुन: जलभराव संभव हुआ था। गंगा मात्र पानी का दरिया नहीं है बल्कि युगों युगों से करोड़ों लोगों की गहरी आस्था व मान्यताओं में पूज्य नदी है। पवित्र गंगा की महिमा व कीर्ति का वर्णन वैदिक साहित्य में बखूबी हुआ है। धार्मिक अनुष्ठान गंगाजल के बिना पूर्ण व शुद्ध नहीं माने जाते। समस्त संस्कारों में अनिवार्य उपयोगी गंगाजल को वैज्ञानिक कसौटी पर भी गुणवत्तायुक्त माना गया है। अत: स्नान मात्र से नकारात्मक विचारों से मुक्त करके करोड़ों लोगों का उद्धार करने वाली गौमुखी गंगा जी साक्षात देवी स्वरूपा हैं। मगर अपने शुद्धिकरण के लिए विश्व में विख्यात रही सांस्कृतिक विरासत तीर्थमयी गंगा प्रदूषण की मार झेलकर अपनी पवित्रता पर अफसोस जाहिर कर रही है। 

राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा की स्वच्छता के लिए ‘नमामि गंगे’ व ‘स्वच्छ गंगा’ तथा ‘गंगा एक्शन प्लान’ जैसे अभियान चले, नतीजा नहीं निकला।सांस्कृतिक विरासत पवित्र गंगा के प्राकृतिक सौदर्य व निर्मलता को सहेजने के लिए सियासत के बड़े प्रयासों की जरूरत है। ‘गौतम ऋषि’ के तप का पुण्यफल दक्षिण की गंगा ‘गोदावरी’ का भी यही हाल है। भगवान शिव की नगरी उज्जैन में बहने वाली ‘शिप्रा’ नदी की महिमा का उल्लेख ‘स्कंद पुराण’ में हुआ है। ‘महर्षि संदीपनी’ का आश्रम इसी शिप्रा के तट पर स्थित था। श्रीकृष्ण, बलराम व सुदामा जैसे संदीपनी के शिष्यों ने यहीं विद्या अध्ययन किया था। राजा भृर्तहरि, गुरु गोरखनाथ तथा ‘अत्रि ऋषि’ की तपोभूमि भी शिप्रा का तट ही था, मगर मोक्षदायिनी शिप्रा भी भंयकर प्रदूषण के आगोश में आ चुकी है।

भारत ही नहीं विदेश के भी लोग अपने पूर्वजों के मोक्ष की कामना तथा पितरों के तर्पण के लिए बिहार राज्य के ‘गया’ में बहने वाली पावन ‘फाल्गु’ नदी के तट पर आते हैं। फाल्गु भी अपने अस्तित्व से जूझ कर खुद पानी तराश रही है। श्रीकृष्ण की ‘कालिंदी’ सूर्यपुत्री यमुना का जल प्रदूषण से जहर नुमा हो चुका है। दिल्ली में यमुना के पानी पर सफेद झाग सियासत के चुनावी वादों के झूठ को बेनकाब कर रहा है। वाराणासी की पहचान ‘वरुणा’ व ‘असि’ नदियां नाले में तब्दील हो चुकी हैं। पेयजल की जीवंत प्रणाली नदियों की साफ-सफाई के लिए सरकारी खजाने से हर वर्ष करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी नदियों के प्रदूषित होने पर चिंता व्यक्त करते हैं। 

वैसे नदियों को प्रदूषणमुक्त करने के लिए केन्द्र सरकार ने सन् 1995 से ‘राष्ट्रीय नदी संरक्षण’ योजना भी चला रखी है, मगर धरातल पर कोई सकारात्मक परिणाम नजर नहीं आता। धरती पर मानव जीवन सहित सभी जीवों तथा प्रकृति का वजूद नदियों व जलस्रोतों के अस्तित्व पर ही निर्भर है। शिक्षा में साक्षरता का स्तर जरूर बढ़ रहा है, मगर विश्व को अध्यात्म व ब्रह्मांड का ज्ञान देने वाले ‘जगत गुरू भारत’ में संस्कारों का स्तर उतना ही नीचे जा रहा है। पवित्र नदियों व जलस्रोतों के प्रति आस्था हमारी संस्कृति रही है। प्रकृति की रक्षा करना हमारा धर्म रहा है, मगर आधुनिक समाज उन परंपराओं को दरकिनार कर चुका है। कई सांस्कृतिक विविधताओं को समेटे हुए करोड़ों आबादी का पालन-पोषण करने वाली सब नदियों का सम्मान मातृ स्वरूपा गंगा के रूप में ही होना चाहिए। भारत का वैभव रहीं आस्था की नदियों में प्रदूषण देश की व्यवस्थाओं से प्रश्न पूछने को मजबूर करता है। अत: नदियों की निर्मलता के लिए अपने पुरखों द्वारा निर्धारित सरोकारों व संस्कारों को अपनाने की जरूरत है। 

आस्था की नदियां प्रदूषण के अजाब से उत्तर प्रदेश की ‘कर्मनाशा’ नदी की तरह श्रापित होकर अपवित्र हो जाएं, ऋषि वाल्मीकि की ‘तमसा’ की तरह मृतप्राय हो जाए, अमृतमयी ‘सरस्वती’ नदी की तरह लुप्त हो जाए या ‘गया’ की ‘फाल्गु’ व उज्जैन की ‘शिप्रा’ की तरह अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाए, सारी पवित्र नदियां प्रदूषण मुक्त होनी चाहिए।