भारतीय जनता पार्टी ने आगामी चुनावों को मद्देनज़र रख का फिर से उस राग को अलापना शुरू कर दिया है, जो देश में रोज़गार, उध्योग और विकास के सपने दिखाता है। आज सवाल है क्या देश आत्मनिर्भर हो पाएगा?
प्रतिदिन- राकेश दुबे
भारतीय जनता पार्टी ने आगामी चुनावों को मद्देनज़र रख का फिर से उस राग को अलापना शुरू कर दिया है, जो देश में रोज़गार, उध्योग और विकास के सपने दिखाता है। आज सवाल है क्या देश आत्मनिर्भर हो पाएगा? इस सवाल के उत्तर से पहले जो अब तक इस मुद्दे पर देश में हुआ पर विचार करना ज़रूरी है।
२०१४ में केंद्र में सरकार का गठन के साथ मेक इन इंडिया कार्यक्रम की घोषणा हुई थी। खूब वाहवाही मिली थी लोगों से बड़े-बड़े वायदे किए थे जिनमें से कुछ ही अगले पांच साल बाद जमीन पर उतर पाए। दरअसल, यह यूपीए सरकार की २०११ की नई निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) नीति को ही मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया गया था । वस्तुतः कोई नई योजना तैयार नहीं थी। इसलिए आकर्षक नारा गढ़कर काम शुरू किया गया था। देश की इस स्थिति को समझने के लिए पिछले इतिहास की विवेचना ज़रूरी है।
देश की पहली उद्योग नीति १९९१ में तैयार की गई थी। उस वक्त की सरकार ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी। १९९१ में पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व वाली सरकार ने बिल्कुल नए किस्म की आर्थिक नीति की शुरुआत की थी जिसने बदनाम लाइसेंस राज की समाप्ति और सभी सेक्टरों को खोलने की परिकल्पना की थी। उद्योग नीति ने इसकी ही विस्तृत संरचना रखी थी। बाद में बनी सरकारों ने, कुल मिलाकर, उन्हीं आर्थिक सुधारों की संरचना को आगे बढ़ाया और विभिन्न सेक्टरों को खोला। चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार हो या डॉक्टर मनमोहन सिंह की दोनों यूपीए सरकारें हों, १९९१ की उद्योग नीति ने अर्थव्यवस्था के सुधार की संरचना को ही आगे बढ़ाया।
याद कीजिए लीमैन ब्रदर्स के धाराशायी होने और सबप्राइम मोर्टगेज संकट के कारण वैश्विक वित्तीय मंदी से जूझते हुए यूपीए सरकार ने २०११ में उद्योग और निर्माण के रास्ते खोजने शुरू किए जिसने आर्थिक सुधारों के बाद सेवाओं को दूसरा हथियार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तभी योजनाकारों ने महसूस किया कि भारत की निर्माण कमजोरियों को दूर किए जाने की जरूरत है। निर्माण बढ़ाना रोजगार के लिए भी फायदेमंद होगा।
नई निर्माण नीति बनी जिसमें २०२२ तक भारत के जीडीपी में २५ प्रतिशत निर्माण हिस्सेदारी जोड़ने की बड़ी दृष्टि थी। निर्माण का हिस्सा लगभग १६ प्रतिशत था। इस नई नीति ने परिकल्पना की कि भारत निर्माण अर्थव्यवस्थाओं को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए बड़े राष्ट्रीय निवेश और निर्माण जोन बनाएगा। इसने २०२२ तक दस करोड़ रोजगार तैयार करने की बात भी की।
मेक इन इंडिया वस्तुतः नए बोतल में पुरानी शराब थी। उसमें भी उसी किस्म के महत्वाकांक्षी लक्ष्य थे- २०२२ तक निर्माण क्षेत्र से जीडीपी की २५ प्रतिशत हिस्सेदारी और इनके जरिये दस करोड़ नई नौकरियां। भाजपा ने इसे लेकर भले ही ढोल पीटे हो , इसने भारत की निर्माण क्षमताओं में किसी किस्म का अंतर पैदा नहीं किया। योजना में काफी बदलाव, सुधार, संशोधन और स्पष्टीकरण भी कई बार हुए लेकिन यह समझने का वास्तविक प्रयास कभी नहीं हुआ कि निर्माण की हिस्सेदारी अब भी भारत की जीडीपी में १७ प्रतिशत है तो क्यों? और नए रोजगार अब भी क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं?
इसके विपरीत चीन के कारखानों पर भारत की निर्भरता बढ़ गई, क्योंकि भारत के निर्माता आज भी वहीं से सामान मंगाने को वरीयता देते हैं और देश में सिर्फ इसे असेंबल करने से अधिक कुछ नहीं करते। मोबाइल हैंडसेट्स और उपभोक्ता सामान को असेंबल करने और एफएमसीजी में भी। कई विशेषज्ञों ने कई बार ध्यान दिलाया है कि कई सामानों के निर्माण में वियतनाम और बांग्लादेश भारत से अधिक प्रतिद्वंद्वी बन गए हैं।
सवाल यह है दुनिया के निर्माण नक्शे में अपना वजूद बढ़ाने से भारत को किन बातों ने रोक रखा है? उद्योगपतियों के साथ-साथ कई अर्थशास्त्री भी कहते हैं कि एक कारण तो यह है कि भारत ने विशिष्ट उद्योगों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया है और इसलिए उसे उचित अंदाजा ही नहीं है कि किन्हीं खास उद्योगों में किस तरह ग्लोबल हब बना जाए। इसका परिणाम यह है कि संसाधन विभिन्न उद्योगों में तितर-बितर हो रहे हैं और किसी सेक्टर पर खास ध्यान नहीं जा रहा या ऐसी योजनाएं नहीं बन रहीं जो उन्हें प्रतिस्पर्धी बना सके।
देश के लिए आज क्या महत्वपूर्ण है, इस पर लगातार वाद-विवाद होता रहता है। एक वक्त ऐसा था जब निर्माण का अपने आप मतलब होता था- बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर मिलना। लेकिन बाद में, टेक्नोलाजी क्रांति की वजह से बहुत कुछ बदला । वैश्विक बाजार को ध्यान में रखने वाले बड़े कारखाने अब रोबोटिक्स और ऑटोमेशन पर काफी निर्भर हैं और कम वेतन वाले मजदूरों पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश करते हैं। दूसरी तरफ, लघु और मध्यम स्तर के उद्योग काफी सारी नौकरियां देते हैं, हालांकि जरूरी नहीं है कि वे अच्छे पैसे दें ही।
आज तथ्य है कि राष्ट्रीय निवेश और निर्माण जोन न तो कभी बने और न एक्सपोर्ट प्रासेसिंग जोन-जैसी उससे संबंधित चीज बनी। बड़े टैक्स सुधार के तौर पर जीएसटी ने निर्माण निवेशों में निरुत्साहित करने वाली भमिूका ही निभाई। जीएसटी व्यवस्था से पहले राज्यों के पास निवेश को आकर्षित करने के लिए टैक्स में छूट देने-जैसे अधिकार थे जो अब संभव नहीं है। कई अन्य समस्याएं भी हैं। उदाहरण के लिए, अधिकांश उद्योगों में कम्पोनेंट निर्माताओं के हित अंतिम उत्पादकों के हितों से टकराते हैं। बड़े, संगठित और समन्वित उद्योगों के हित कई बार अपेक्षाकृत छोटे उत्पादकों से अलग होते हैं। एक की सुरक्षा के लिए आयात शुल्क का उपयोग करने की कोशिश कई बार उसी उद्योग के अन्य लोगों के लिए गैरप्रतिस्पर्धी हो जाते हैं।
कहने को सरकार ने समय-समय पर एक या दूसरी समस्या दूर करने की कोशिश की है। इसने ऊर्जा उत्पादन, सड़क और बंदरगाह-जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर में प्रगति की है लेकिन भमिू और श्रम के मामले में यह विफल रही है। क्योंकि ये दोनों राज्यों के दायरे में हैं। उनमें वास्तविक सुधार के लिए इसे उसी तरह राज्यों के साथ बातचीत करनी होगी जिस तरह उसने जीएसटी के मामले में किया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बड़े स्तर वाले बनाम एसएमई, पूर्ण, मूल्य-संकलित उत्पाद या निम्न मूल्य मध्यवर्ती संस्थाओ पर ध्यान दिया जाए, जिनकी अनदेखी हो रही है।