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युवा भारत में बुजुर्ग-मुखौटा नेतृत्व होगी नासमझदारी

सार

गांधी परिवार देश की चुनावी राजनीति में कांग्रेस को सत्ता दिलाने में दिनों-दिन असफल होता जा रहा है, यह अलग बात है कि कांग्रेस को जो भी सफलता मिलती दिखाई पड़ रही है, वह गांधी परिवार की ही कोशिशों और कदमों के कारण है..!

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विस्तार

देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस में अध्यक्ष के निर्वाचन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। अध्यक्ष पद संभालने के लिए राहुल गांधी की मान मनौव्वल चल रही है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि गांधी परिवार पार्टी अध्यक्ष के रूप में परिवार से बाहर के किसी नेता को मौका देकर निष्पक्ष निर्वाचन का परसेप्शन बनाना चाहता है। 

पॉलिटिक्स में परसेप्शन बहुत महत्वपूर्ण होता है। भंवर में फंसी कांग्रेस के लिए गांधी परिवार ही एक सहारा है। विरोधियों की ओर से कांग्रेस पर परिवारवाद की राजनीति का सबसे बड़ा आरोप लगाया जाता है। गांधी परिवार देश की चुनावी राजनीति में कांग्रेस को सत्ता दिलाने में दिनों-दिन असफल होता जा रहा है। यह अलग बात है कि कांग्रेस को जो भी सफलता मिलती दिखाई पड़ रही है, वह गांधी परिवार की ही कोशिशों और कदमों के कारण है।

कांग्रेस में बिखराव तो अब गांधी परिवार भी नहीं रोक पा रहा है लेकिन गांधी परिवार को इतना श्रेय दिया जाना चाहिए कि पार्टी में बड़ी फूट रुकी हुई है। पार्टी में गांधी परिवार की भूमिका पितृपुरुष की है। यह परिवार पार्टी का नेतृत्व क्यों नहीं संभालना चाहता यह सोचने का विषय है? मां और बेटा-बेटी के बीच पार्टी की कमान परिवार से बाहर के व्यक्ति को सौंपने की कवायद पार्टी के लिए कितनी फायदेमंद होगी यह तो वक्त ही बताएगा?

कांग्रेस को आज चीयरलीडर्स की जरूरत है। ऐसा लीडर जो जनता में जोश पैदा कर सके। विचारधारा की राजनीति में मजबूती के साथ खड़ा हो सके। कांग्रेस के सामने लीडरशिप का संकट दिखाई पड़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर 10 नेताओं का नाम शॉर्ट लिस्ट करने की कोशिश की जाए तो भी राष्ट्रीय फलक के नेता मिलना मुश्किल होगा। 

गांधी परिवार ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उम्मीदवार बनाने का निश्चय किया है। उत्तर भारत में कांग्रेस की स्थिति बदतर हो चुकी है। राजस्थान में गहलोत के अलावा सचिन पायलट का ही नाम राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई पड़ता है। उत्तर प्रदेश में तो एकमात्र नेता प्रमोद तिवारी नजर आते हैं। पंजाब के कांग्रेसी चन्नी की चवन्नी भी नहीं चली। जम्मू-कश्मीर से गुलाम नबी आजाद पार्टी छोड़ चुके हैं।  

उत्तर भारत के बाकी राज्यों में मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दो बड़े नेता सक्रिय हैं। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद भूपेश बघेल के अलावा कांग्रेस में कोई लीडर बचा ही नहीं है। ऐसे ही हालात गुजरात में है। हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट है। महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल में भी गिने-चुने नेता ही हमारे सामने हैं। बंगाल में अधीर रंजन चौधरी हैं तो महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण हैं। दक्षिण भारत में भी कांग्रेस नेताओं के संकट से गुजर रही है। मल्लिकार्जुन खडगे ही एक राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के सक्रिय चेहरे के रूप में हमारे सामने हैं। 

कांग्रेस अध्यक्ष के निर्वाचन की फिल्मी प्रक्रिया को निष्पक्ष, पारदर्शी और वास्तविक निर्वाचन मानना भी सही नहीं होगा। जो गांधी परिवार अध्यक्ष का उम्मीदवार निर्धारित कर रही है, उसके द्वारा चुना गया व्यक्ति ही अध्यक्ष का नामांकन भरेगा। दूसरा उम्मीदवार गांधी परिवार की पसंद नहीं होगा तो उसका जीतना वैसे भी असंभव होगा। गांधी परिवार द्वारा अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार का चयन ही उसके विजयी होने की गारंटी है। इसके लिए किसी निर्वाचन और मतदान की आवश्यकता नहीं है लेकिन क्योंकि निष्पक्ष निर्वाचन दिखाना है इसलिए मत डाले जाएंगे और मतों की गिनती भी होगी।  

सांसद शशि थरूर ने अध्यक्ष पद के निर्वाचन में अपनी उम्मीदवारी की मंशा जाहिर की है। अशोक गहलोत और शशि थरूर के बीच अगर मेरिट के आधार पर अध्यक्ष के लिए चुनाव किया जाए तो निश्चित रूप से अशोक गहलोत पर शशि थरूर हर दृष्टि से भारी पड़ेंगे। चाहे उम्र की दृष्टि से हो, चाहे शिक्षा की दृष्टि से हो, चाहे हिंदी और अंग्रेजी के ज्ञान की दृष्टि से हो। शशि थरूर के मुकाबले अशोक गहलोत कमजोर ही दिखाई पड़ेंगे। जहां तक संगठन क्षमता का प्रश्न है तो अशोक गहलोत ने राजस्थान में दौड़ती कांग्रेस के पांव में ब्रेक जरुर लगा दिया है। अगले चुनाव में कांग्रेस को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।   

बुजुर्ग और युवा नेताओं के बीच द्वन्द का सबसे चर्चित स्टेट कांग्रेस के लिए राजस्थान ही है। अशोक गहलोत ने वहां राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिखाई बल्कि वे सत्ता के स्वार्थ में पार्टी की बलि चढ़ाने की रणनीति पर दिखाई पड़े। अभी भी अगर उनकी चली तो राज्य में मुख्यमंत्री के साथ ही अध्यक्ष पद संभालना चाहेंगे। 

उत्तर भारत का कोई नेता जो देश के आधे से ज्यादा राज्यों में प्रचलित अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा से अनभिज्ञ है तो वह कैसे वहां के कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझ सकता है? पार्टी का विस्तार कैसे कर सकता है? भारत आज युवा है। ऐसे दौर में भी अशोक गहलोत जैसे 70 साल के व्यक्ति को अध्यक्ष बनाकर पार्टी को नेतृत्व देने की कांग्रेस की सोच गांधी परिवार की आत्मतुष्टि और अहंकार के अलावा कुछ नहीं हो सकता। 

अगर बुजुर्ग नेताओं को ही कांग्रेस की कमान सौंपना था तो फिर उत्तर भारत में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह ऐसे नेता हैं जो अशोक गहलोत की तुलना में ज्यादा प्रभावी हो सकते हैं। दिग्विजय सिंह की तो संगठन क्षमता बेमिसाल है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में पार्टी उनकी क्षमता का उपयोग कर रही है। दिग्विजय सिंह हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं सिद्धहस्त हैं। उनमें राजनीतिक समझ है विचारधारा की दृष्टि से भी उनमें कांग्रेस के संस्कार और विचार हैं। गांधी परिवार के प्रति वफादारी भी कम नहीं है। फिर अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में उन्हें क्यों नहीं चुना जा सकता? जो नेता भाजपा में बेचैनी पैदा कर सकता है उसकी अनदेखी को क्या कहा जाए?

ग्रैंड ओल्ड पार्टी में अब गांधी परिवार के साथ परिवार के पुजारी का एक नया वर्ग सक्रिय हो जाएगा। एक तरफ भगवाधारी होंगे तो दूसरी तरफ गांधी परिवार के ध्वजाधारी होंगे। ग्रैंड ओल्ड पार्टी में एक तरफ गांधी परिवार (जीपी) तो दूसरी तरफ गांधी परिवार पुजारी (जीपीपी) का संघर्ष चालू हो जाएगा। गांधी परिवार जिस परिवारवाद की बीमारी से बचने के लिए अध्यक्ष पद से दूर भाग रहा है, क्या मुखौटा धारी अध्यक्ष बनाने से गांधी परिवार उस बीमारी से मुक्त हो सकेगा?

70 साल के नेता को नया नेतृत्व कहना क्या भारतीय राजनीतिक बोध को चुनौती देना नहीं है? ऐसे नेता जो सत्ता के स्वाद के आदी बन गए हैं, जिन्होंने पदों पर रह कर दलों से ऊपर सत्ता के बीच समन्वय और सांठगांठ के तार बिछा रखे हैं, उनकी लीडरशिप में पार्टी का क्या कोई भला हो सकेगा? जब जनता के सामने कांग्रेस को कुछ भी मिलेगा, वह गांधी परिवार के सहारे ही मिलेगा तो फिर मुखौटा नेतृत्व किस काम के लिए रहेगा? 

गांधी परिवार को बुराई और अच्छाई दोनों का भार अपने कंधों पर लेना चाहिए। डूबती नाव में अगर माझी ही नाव से कूदने की कोशिश करे तो फिर नाव कैसे बच सकेगी? कांग्रेस के लिए राहुल ही तिनके का सहारा हैं। यह भी अगर नहीं मिला तो फिर पार्टी को कौन और कैसे बचाएगा? पार्टी का मजबूत होना भारतीय लोकतंत्र के लिए जरूरी है।