मध्यप्रदेश में अब भी बुलडोज़र चला रहा है, तब भी मध्यप्रदेश में बुलडोज़र चला था. दोनों समय बुलडोज़र चलने के अर्थ अलग-अलग थे. तब बुलडोज़र चलवाने मंत्री का नाम बदल कर “बुलडोज़र लाल” हो गया था, अब मुख्यमंत्री के उपनाम के साथ जुड़ गया है. बात, तब और अब के अलग अर्थों की है. अर्थ के पहले, परिस्थिति पर बात..!
प्रदेश तो प्रदेश, देश के किसी भाग में सांप्रदायिक सौहार्द और कानून व्यवस्था भंग करने का अधिकार किसी को भी नहीं है, चाहे वह कोई भी हो। देश में वोट की राजनीति ने समाज को इस हद तक विभाजित कर दिया है कि एक-दूसरे वर्ग के पर्व-त्योहार का स्वागत करने के बजाय पत्थरबाजी की घटनाएं व फसाद होने लगे हैं।
इन घटनाओं की प्रतिक्रिया में कथित रूप से दंगाइयों के लिये बुलडोजर न्याय व्यवस्था उत्तर प्रदेश से शुरू हुई बुलडोजर से राजनीतिक संदेश देने की कवायद मध्यप्रदेश से होते हुए अब दिल्ली की जहांगीरपुरी तक जा पहुंची। जहांगीरपुरी में एक धार्मिक जुलूस पर हमले के दौरान हुई हिंसा के बाद जिस तरह बुलडोजर चला, उसने राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर दिया। जिस तरह से राजनीतिक दल अपने-अपने प्रतिनिधि मंडल भेजकर वहां राजनीति कर रहे हैं, उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता।
इस राजनीतिक खेल से असल मुद्दे पार्श्व में चले गए हैं। अब मध्यप्रदेश की बात, इस बार बुलडोजर किसी निर्माण के लिए नहीं चल रहा, ज़मींदोज़ करने के लिए चल रहा है, पहले यह निर्माण के लिए अतिक्रमण हटाने के लिए चला था और उस समय के मंत्री “बाबूलाल” से “बुलडोज़र लाल” की संज्ञा पाए थे। यह शब्द मध्यप्रदेश विधानसभा के रिकार्ड में मौजूद है। वैसे आज दिल्ली से लेकर देश के छोटे-बड़े शहर अवैध अतिक्रमणों से हांफ रहे हैं। झुग्गी बस्तियों से लेकर पॉश कालोनियों तक अवैध अतिक्रमण की भरमार है। पहुंच व पैसे वाले कानून व्यवस्था की सुरंग के रास्ते बच जाते हैं।
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बुलडोजर संस्कृति का आज की तर्ज़ पर कोई स्थान नहीं होना चाहिए, पत्थर उठाने से पहले यह सोचना चाहिए, सामने भी आप ही खड़े हैं। पत्थर उठाने का मतलब कानून व्यवस्था व सार्वजनिक व्यवस्था को नकारना और उस पर अतिक्रमण ही तो निकलता है। इसे धर्म-संप्रदाय का कवच देकर न्यायसंगत ठहराने की कोशिश भी होती है, जो कहीं से गले नहीं उतरती है।
राज्य सरकारों व स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों को जनहित में कार्रवाई करनी भी चाहिए, लेकिन कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर तो बिल्कुल भी नहीं।जहां भी कथित अवैध निर्माण हटाने का काम शुरू किया तो उन्हें स्थानीय नियमों के प्रावधानों का पालन करना ही चाहिए। नियमों में इस बात का साफ-साफ उल्लेख है कि किसी भी अवैध निर्माण को हटाने से पहले नोटिस दिया जाना चाहिए। किसी भी पक्के निर्माण से पहले नोटिस की यह अवधि कम से कम पांच से पंद्रह दिन की होती है। वहीं नोटिस न देने की छूट सिर्फ उस स्थिति में ही जब निर्माण अस्थायी हो।
विडंबना यह है कि मध्य प्रदेश से लेकर जहांगीरपुरी तक जो पक्के निर्माण गिराये गये हैं, न तो उनके मालिकों को नोटिस दिये गये और न ही उन्हें नोटिस के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज करने का मौका ही । यदि यह मामले देश के दूरदराज के इलाके में घटित होते तो इतनी जल्दी मीडिया की पकड़ में न आते और न्यायिक सक्रियता में भी विलंब होता।
न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद अब बुलडोजर संस्कृति के जरिये अल्पकालिक राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। दंगों में कुछ लोगों की भूमिका हो सकती है,परंतु यहाँ सवाल इस बात का भी पैदा होता है की वर्षों से सत्ता की आसंदी पर क़ाबिज़ लोग सम्पूर्ण समाज का क़ानून और व्यवस्था में आस्था और विश्वास स्थापित क्यों नहीं कर सके? साफ़ बात है, राजनीति अब एक दूसरे तबके का इस्तेमाल वोट बैंक की तरह करने जा रही है ।
भोपाल रेलवे स्टेशन से भारत टाकीज चौराहे पर पहुँचते ही दो बातें याद आती है, कभी यहाँ सड़क को एक बड़ा मकान और उसमें लगती दुकानें विभाजित करती थीं । आज वे नदारद हैं,भोपाल के लोग इस अतिक्रमण मुक्त सड़क के साथ बुलडोज़र लाल (स्व॰ बाबू लाल गौर) को भी याद रखें ।देश में भी इस भीमकाय मशीन का प्रयोग “विकास” के लिए हो विनाश के लिए न हो। विकास से ही विश्वास जीता जा सकता है।