मध्य प्रदेश के नवगठित मऊगंज जिले में पुलिस पर हमले की घटना में ASI रामचरण गौतम की दर्दनाक मौत हुई है और दूसरे लोग गंभीर घायल हुए हैं. पुलिस का कोई भी सिपाही एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है..!!
पुलिस पर हमले की घटनाएं चिंताजनक रूप से बढ़ती जा रही है. मध्य प्रदेश जैसे शांतिप्रिय प्रदेश में भी खाकी पर हमले की घटनाएं पुलिस परिवार का ही जीवन बर्बाद नहीं कर रही हैं बल्कि कानून- व्यवस्था भी बर्बाद हो रही है. पुलिस, विश्वास का प्रतीक मानी जाती है. विश्वास पर ही जब हमले होते हैं तब यह पूरे सिस्टम पर अविश्वास की ओर इशारा करता है.
मध्य प्रदेश सरकार की संवेदनशीलता ने ASI को शहीद का दर्जा दिया है. परिवार को एक करोड़ रुपए की राशि, आश्रित को सरकारी नौकरी और निश्चित ही विशेष परिवार पेंशन दी जाएगी. सरकार का यह सारा सपोर्ट परिवार को राहत पहुंचा सकता है लेकिन जो छोड़कर चला गया है, वह दर्द तो परिवार को मिल ही गया है.
यह कोई पहली घटना नहीं है. गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं होती रहती हैं. प्रदेश में तो मुरैना में खनिज माफिया द्वारा एक आईपीएस अधिकारी की हत्या तक की जा चुकी है. आए दिन ऐसी घटनाएं देखने-सुनने को मिल जाती हैं. माफिया से निपटने में ईमानदार पुलिस को हमेशा ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है.
पुलिस के साथ निर्ममता की जैसी घटनाएं बढ़ रही है, उसके कारण और निदान तलाशना बहुत जरूरी है. ऐसी घटनाओं के पीछे सामाजिक अराजकता कारण है या प्रशासनिक अक्षमता? कभी पुलिस अपने इलाके में भरोसे का प्रतीक मानी जाती थी. अन्याय, पीड़ा का शिकार पुलिस में अपने लिए न्याय खोजता था. अब हालात थोड़े बदल गए हैं. पुलिस के हर काम में संदेह दिया जाता है. पुलिस भी हमारे समाज का ही हिस्सा है, उससे देवदूत होने की अपेक्षा करना बेमानी है. पूरी व्यवस्था में जो खामियां हैं, पुलिस उससे अलग नहीं है. इस सब के बावजूद भी अनुशासित फोर्स के रूप में पुलिस अपनी भूमिका का बेहतर निर्वहन कर रही है.
राज्य में क्या सामाजिक अराजकता बढ़ गई है. लोगों में गुस्सा और तनाव इतना ज्यादा है कि, कोई अपने हित के अलावा दूसरा कुछ देखना, सुनना और समझना ही नहीं चाहता. जब भी कोई विवाद होता है, तब उसमें दो पक्ष होना स्वाभाविक है. निष्पक्षता पुलिस की ताकत होती है. इस ताकत का दुरुपयोग जब भी होता है, तो पुलिस कमजोर पड़ जाती है.
पूरा समाज राजनीति से चलने लगा है. जैसे राजनीति चलती है, वैसे चारों ओर तरफ हालात फलते-फूलते हैं. सर्वोच्च न्यायालय और अब तक के सभी प्रयासों के बावजूद पुलिस का नियंत्रण, राजनीति अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती. सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के जो निर्देश दिए थे उन पर भी अभी तक पूर्णतः अमल नहीं हो पाया है.
राजनीति ट्रांसफर, पोस्टिंग एवं प्रमोशन के अपने अधिकार के जरिए पुलिस को अपने नियन्त्रण में रखना चाहती हैं. यह बहुत स्वाभाविक होता हैकि, कोई भी अच्छी पोस्टिंग और प्रोटेक्शन चाहता है. जब कोई भी कुछ चाहेगा तो बदले में इसके लिए कुछ देना पड़ेगा और यही लेनदेन पुलिस व्यवस्था की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है. पुलिस पर डर तो शायद अब नहीं रह गया है. पहले वर्दी का सम्मान था और अब तो वर्दी राजनीति का मोहरा दिखाई पड़ती है.
कम्युनिटी की राजनीति कितनी ताकतवर हो गई है कि, उसके सामने पुलिस तो एक स्वार्थ सिद्धि का माध्यम भर रह गई है. घटनाएं होती हैं तो दुख होता है. तात्कालिक रूप से सहायता और सहयोग से संवेदना दिखाई जाती है. फिर सब भुला दिया जाता है. उसके बाद वैसे ही व्यवस्था पुराने ढर्रे पर चलने लगती है. जब फिर कोई दुर्घटना हो जाती है तो फिर ऐसी संवेदनाएं सामने आती हैं. यही सब चलता आ रहा है. अगर दृढ इच्छा शक्ति और ईमानदारी राजनीतिक व्यवस्था में नहीं आई तो फिर ऐसा ही चलने की भी संभावना है.
कानून व्यवस्था मजबूत रखना किसी भी शासन का मौलिक दायित्व है. लॉ एंड आर्डर पर कभी भी हमला हो जाता है. भारत क्रिकेट में जीतता है और महू जल उठता है. कोई भी त्यौहार आता है तो तनाव अपने चरम पर पहुँच जाता है. तमाम सारी कमियों के बाद भी व्यवस्था के जितने भी अंग काम कर रहे हैं, उनमें पुलिस की ड्यूटी सबसे चुनौतीपूर्ण और जमीनी है. उन्हें कागजों पर ही नहीं जमीन पर समुदायों के साथ काम करना पड़ता है. साधन-संसाधन के मामले में भी पुलिस से ज्यादा समाज प्रभावी हो गया है. पुलिस पर हमले यह भी साबित करते हैं कि हमारा समाज और व्यवस्था अभी भी सभ्यता, संस्कृति और जीवन का अनुशासन कायम नहीं कर पाया हैं.
ऐसी दर्दनाक घटनाओं को रोका जाना इतना आसान नहीं होगा, जब तक व्यवस्था की मानसिकता नहीं बदलेगी. व्यवस्था में निष्पक्षता का सूर्योदय नहीं होगा, जब तक व्यवस्था में स्वार्थ हावी रहेगा. जब तक पुलिस पर निष्पक्षता से ज्यादा राजनीतिक नियंत्रण का साया रहेगा, जब तक माफिया सक्रिय रहेगा, जब तक शासन, अनुशासन, सुशासन और कुशासन का अच्छा गठजोड़ रहेगा, जब तक पुलिस पावर प्रदर्शन का माध्यम रहेगी, तब तक सुधार की उम्मीद करना बेमानी होगी.
पुलिस को सशक्त, निष्पक्ष एवं राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा. पुलिस सुधार की सर्वोच्य न्यायालय की अपेक्षा भी पूरी नहीं हो पा रही है. जब राजनीति ही नहीं बदल सकती है तो पुलिस सुधार कैसे संभव है? आजादी के बाद यह मान लिया गया कि, प्रशासनिक मशीनरी अपने आप लोकोन्मुख हो जाएगी, लेकिन जब राजनीतिक चरित्र ही खास नहीं बदला तो नौकरशाही और पुलिस कैसे बदल सकेगी? पुलिस सुधार की सख्त जरूरत है.
एक मजबूत समाज अपनी पुलिस की इज्जत करता और उसे सहयोग देता है. वही एक कमजोर समाज पुलिस को अविश्वास से देखता है. पुलिस को सामाजिक कल्याण से जोड़कर ही सुधार के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है. पुलिस पर हमला पूरी व्यवस्था पर हमला है. पूरी व्यवस्था को ही सुधरने की तरफ आगे बढ़ना होगा.