मध्यप्रदेश विधानसभा का बजट सत्र निर्धारित अवधि 25 मार्च के 9 दिन पहले ही काल कवलित हो गया| सत्तापक्ष या विपक्ष कोई भी जनता को यह नहीं बता सका कि अकारण जनता के मुद्दों को विधानसभा में आने से रोकने का षड्यंत्र क्यों किया गया ?
संसदीय जनतंत्र में जनप्रतिनिधियों के जिद्दी और सिरफिरे अंदाज के कारण, जनतंत्र से लोगों का भरोसा टूट रहा है| जनप्रतिनिधियों के लोकतांत्रिक आचरण और व्यवहार तो जैसे गुजरे जमाने की बात हो गई है| संसदीय लोकतंत्र सेटिंग तंत्र के रूप में दिखाई पड़ रहा है| संसदीय लोकतंत्र संसदीय राजतंत्र का स्वरूप लेता दिखाई पड़ रहा है| सत्ता और विपक्ष के जनप्रतिनिधियों में एडजस्टमेंट और घालमेल अब कोई अंदर खाने की खबर नहीं रह गई है| इसका विकराल स्वरूप चीख-चीख कर जनता को चिढ़ा रहा है|पहले बजट सत्र कम से कम 1 माह तक चलता था, इस बार 18 दिन के लिए सत्र बुलाया गया था| बजट पर सामान्य चर्चा तक नहीं हुई| अनुदान मांगों पर बिना चर्चा के बजट पारित कर दिया गया| बिना चर्चा ऐसा करने से लोकतंत्र की आत्मा लहूलुहान हो रही है|
यह कोई पहला अवसर नहीं है पहले भी विधानसभा सत्रों के साथ ऐसा होता रहा है| साथ ही यह केवल मध्यप्रदेश में नहीं कमोबेश हर राज्य में विधानसभा सत्रों के यही हालात हैं| एक अध्ययन में यह पाया गया है कि अधिकांश राज्य विधानसभाएं साल में मुश्किल से 30 दिन बैठती हैं| हरियाणा और पंजाब जैसे कुछ राज्यों में तो यह औसत लगभग एक पखवाड़े का है| पिछले एक दशक में 1 साल में सबसे अधिक विधानसभा बैठक वाले राज्य उड़ीसा में 46 दिन, केरल में 43 दिन विधानसभा बैठकें हुई हैं|
मध्यप्रदेश में तो पिछले एक दशक में विधानसभाओं का 1 साल में सिटिंग का औसत 36 है| वर्ष 2021 में मध्यप्रदेश में विधानसभा की 33 बैठकें हुई हैं| वर्ष 22 का यह पहला बजट सत्र था और उसकी बैठक 1 सप्ताह ही हो सकी| तमाम गतिरोध के बावजूद विधानसभाओं से ज्यादा संसद का सत्र चलता है| विधानसभायें राजनीति का ज्यादा शिकार दिखाई पड़ती हैं| “विपक्ष” केवल एक “शब्द” के रूप में अपनी पहचान कायम रख सकेगा| विपक्ष की भूमिका तो सत्ता के हाथ गिरवी रखी दिखाई पड़ती है|
मध्य प्रदेश में वर्तमान विपक्ष की हालात तो वेंटिलेटर पर प्राण रक्षा की आखिरी कोशिश प्रतीत होते हैं| एक व्यक्ति एक पद की बात करने वाली कांग्रेस में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का पद 75 साल से अधिक आयु के कमलनाथ के हाथ में कैद है| कमलनाथ ने जैसे 15 महीने की सरकार एक तरफा चलाई, वैसे विपक्ष चलाते हुए भी दिख रहे हैं| लगता है कि विपक्ष के युवा विधायक अपनी भूमिका निभाने के लिए तड़प रहे हैं| लेकिन उनका “कॉर्पोरेटी” नेता संघर्ष से परहेज करता है|
विधानसभा पक्ष और विपक्ष के समन्वय से चलती है| सरकार जहां विधानसभा में अपने विधायी कार्यों को पूरा करती है| वहीं विपक्ष विधानसभा के हर फोरम का उपयोग कर सरकार की गलतियों को उजागर करने और जनहित के मुद्दों को आवाज देने का काम करता है| कार्य मंत्रणा समिति की बैठक के बिना कैसे पक्ष और विपक्ष के नेता सहमति से जनता के मुद्दों का सामने आने के अवसरों को रोक देते हैं ?
सरकार ने बजट पारित करा लिया, अपने अनिवार्य विधायी कार्य पूर्ण कर लिए, सत्र का समय से पहले अवसान होने का ज्यादा नुकसान विपक्ष का होता है| जो प्रश्न विधानसभा में लगाए गए हैं उन पर लिखित उत्तर मिल जाएगा, लेकिन प्रश्नोत्तर नहीं हो सकेंगे, प्रश्न-उत्तर से जनहित के जो समाधान निकलते वह अवसर तो खत्म हो गया है| वैसे पिछले दिनों ही अखबारों में प्रकाशित हुआ था कि सदन में चर्चा में आए प्रश्नों से संबंधित कई विधायक प्रश्न पूछने के लिए सदन में उपस्थित ही नहीं हुए| इस देश में पैसे लेकर प्रश्न पूछने की स्थितियां भी प्रकाश में आई थी|
ऐसे लोकतंत्र और विधायी सदनों की क्या उपयोगिता है जो जन समस्याओं के समाधान पर चर्चा से कतराती हैं ? पायलट के लाइसेंस के लिए न्यूनतम घंटों तक फ्लाइंग एक्सपीरियंस आवश्यक है| लेकिन राज्य संचालन के पायलट के लिए किसी अनुभव की शायद आवश्यकता नहीं है| अगर इसका अध्ययन किया जाए तो पता लगेगा कि नए विधायक को 5 साल में 5 घंटे का भी मौका अपनी बात रखने का नहीं मिल पाता|
राजनीतिक दलों के नायकों और विकल्प हीनता के कारण चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों में लोकशाही की आत्मा का अभाव दिखता है| मनुष्य को अपनी आत्मा को पहचानने के लिए योग ध्यान और अध्यात्म का सहारा लेना पड़ता है| लोकतांत्रिक जनप्रतिनिधियों को लोकतंत्र की आत्मा को पहचानने के लिए सदन में ज्यादा से ज्यादा डेमोक्रेटिक अनुष्ठान करने की जरूरत है| लेकिन दुर्भाग्य है विधायी सदनों को चलने ही नहीं दिया जाता| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईमानदारी से शासन प्रशासन में व्याप्त लूपोल्स(loopholes) को बंद कर रहे हैं| चाहे भ्रष्टाचार रोकने की बात है या सुशासन की, मोदी बदलाव करते दिखाई पड़ते हैं|
ऐसा लगता है मोदी को ही संसदीय अनुशासन के लिए भी सख्त कदम उठाना पड़ेगा| उन्हें ऐसा कानून बनाना पड़ेगा कि महीने में 10 दिन के औसत से साल में कम से कम 120 दिन विधायी सदनों की बैठकें आहूत हों| संसदीय अनुशासन को दलीय प्रबंधन से भी जोड़ना होगा| निश्चित दिनों तक विधायी सदनों में जन प्रतिनिधि की भूमिका निभाने में विफल रहने वाले जनप्रतिनिधि को आगे चुनाव में भागीदारी से रोका जाना चाहिए| सरकारों पर भी सदन को चलाने की जिम्मेदारी डालना चाहिए| जो सरकार हर साल निश्चित समय तक विधानसभा सत्र नहीं संचालित करे, ऐसी सरकार के आचरण को डेमोक्रेटिक नहीं माना जाएगा|
उन प्रश्नों का क्या दोष है ? उन मुद्दों का क्या अपराध है ? जिनको सदन में आने से रोक दिया गया, ऐसी स्थिति ना तो सत्ता पक्ष के लिए अच्छी है, ना विपक्ष के लिए| टिकट पाने, चुनाव जीतने के लिए गला काट मारामारी और सदन में हिस्सेदारी शून्य! यह कैसा लोकतंत्र है ? कभी मध्यप्रदेश विधानसभा में डिबेट होती थी| अब तथ्यात्मक डिबेट तो सुनने को नहीं मिलती| कहा जाता है कि अब तो जनप्रतिनिधि एडजेस्टमेंट सेटिंग और सिस्टम में भागीदारी के प्रयास में ही लगा रहता है| जनप्रतिनिधियों का वेतन और विधायक निधि बढ़ती जाए यह सब उसी सोच का परिणाम लगता है| मध्यप्रदेश विधानसभा के सत्र का अवसान 9 दिन पहले क्यों किया गया ? इसका जवाब किसी ना किसी को तो देना चाहिए ? कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि सदन में एकत्रित विधायकों में नेतृत्व के प्रति विद्रोह की स्थिति तो बन रही थी ? इसीलिए अचानक सदन के सत्र अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया ?
लोकशाही विचार विमर्श और चर्चा से समाधान की व्यवस्था है| जब सदन में चर्चा ही नहीं हो नहीं पा रही है तो इसे क्या लोकशाही माना जाएगा ? संसदीय जनतंत्र क्या संसदीय राजतंत्र में तब्दील हो रहा है ? संसदीय राजतंत्र में दोनों पक्षों के मुखिया राजतंत्र के दो राजाओं के बीच संधि करके अपना-अपना सरोकार पूरा करते हैं| इन सबके बीच जनता को भी मुफ्तखोरी की योजनाओं के माध्यम से राजा द्वारा प्रजा को उपहार दे दिया जाता है| लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि, नौकरशाही और जनता के बीच संबंध होते हैं| तीनों जब इस व्यवस्था का मान रखेंगे तभी संसदीय लोकतंत्र बचेगा, नहीं तो उपकार तंत्र, राजतंत्र कुछ भी चलता रहे, ऐसी व्यवस्था को सच्चा लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता|