देश के अर्थशास्त्री रुपए की इस अधोगामी यात्रा से दुखी है, सिर्फ़ दुखी होने से किसी समस्या का निराकरण या निवारण नहीं होता..!
भारतीय रुपया रोज़ लुढ़क रहा है। देश के अर्थशास्त्री रुपए की इस अधोगामी यात्रा से दुखी है, सिर्फ़ दुखी होने से किसी समस्या का निराकरण या निवारण नहीं होता। सबको कुछ करना होता है। भारत जिसके बारे में आज तक यह तय नहीं हो सका है कि हमारे अर्थशास्त्र की दिशा क्या है? पिछले दिनों देश में हुए किसान आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया कि हमारा भारत कुछ भी हो सकता है कृषि प्रधान नहीं है। सरकार और उत्पादन नीति रुपया गिरने-उठने के लिए ज़िम्मेदार मानी जाती है, पर इन दिनों सरकार की प्राथमिकता कुछ और नज़र आ रही है।
एक जमाना था, जब भारत का रुपया डॉलर को ज़बरदस्त टक्कर दिया करता था। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो डॉलर और रुपये का दम बराबरी का था, अर्थात् एक डॉलर बराबर एक रुपया. तब भारत पर कोई कर्ज़ भी नहीं था। जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो भारत सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया और फिर रुपये की साख भी लगातार कम होने लगी।
1975 तक आते-आते तो एक डॉलर की कीमत 8 रुपये हो गई 1985 में डॉलर का भाव हो गया 12 रुपए प्रति डालर हो गया। 1991 में नरसिम्हा राव के शासनकाल में भारत ने उदारीकरण की राह पकड़ी और रुपया भी धड़ाम-धड़ाम गिरने लगा, और अगले 10 साल में ही इसके भाव 47-48 रुपए में एक डालर के बराबर हो गए।
रुपये और डॉलर के इस अधोगामी खेल को कुछ इस तरह समझा जा सकता है। जैसे हम अमेरिका के साथ कुछ कारोबार कर रहे हैं। अमेरिका के पास 77,000 रुपए हैं और हमारे पास 1000 डॉलर. डॉलर का भाव 77 रुपये है तो दोनों के पास फिलहाल बराबर रकम है।ऐसे में अगर हमें अमेरिका से भारत में कोई ऐसी चीज मंगानी है, जिसका भाव हमारी करेंसी के हिसाब से 7700 रुपये है तो हमें इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे।
इस तरह अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में बचे 900 डॉलर और अमेरिका के पास हो गए। इस हिसाब से अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भारत के जो रुपए थे, वो अमेरिकी ख़ज़ाने में चले गए, अर्थात् भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में जो 100डॉलर थे वो भी उसके पास पहुंच गए।
विचार का विषय यह है की इस विषय पर भारत की स्थिति कैसे मज़बूत हो?इस मामले में भारत की स्थिति तभी ठीक हो सकती है अगर भारत अमेरीका को 100 डॉलर का सामान बेचे। ऐसा अभी नहीं हो रहा है। कारण सर्व विदित है भारत इंपोर्ट ज़्यादा करता हैं और एक्सपोर्ट उसके मुक़ाबले बहुत कमकर पाता है। इसमें गुणवत्ता, समय पर उत्पादन, लागत जैसे मुद्दे आते हैं। इस तरह की स्थितियों में भारतीय रिज़र्व बैंक अपने भंडार और विदेश से डॉलर खरीदकर बाजार में इसकी पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करता है।
हाल ही में वाणिज्य मंत्रालय द्वारा प्रकाशित विदेशी व्यापार के आंकड़ों के अनुसार, पिछले वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान देश का व्यापार घाटा चिंताजनक रूप से बढ़कर अब तक का सर्वाधिक 192 अरब डॉलर रहा है। जहां पिछले वित्त वर्ष में भारत का उत्पाद निर्यात पहली बार 40 प्रतिशत की वृद्धि के साथ करीब 418 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया, वहीं भारत का उत्पाद आयात पिछले वित्त वर्ष में 610 अरब डॉलर की रिकार्ड ऊंचाई पर रहा जो पूर्ववर्ती वित्त वर्ष 2021-22 के 394.44 अरब डॉलर की तुलना में लगभग 55 प्रतिशत बढ़ा है। ऐसे बढ़े हुए व्यापार घाटे के कारण देश में आर्थिक-वित्तीय मुश्किलें बढ़ गई हैं।
11 मई को वाणिज्य विभाग द्वारा आयात में हो रही लगातार वृद्धि के मद्देनजर आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत उत्पादों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के तरीकों के संबंध में विभिन्न उद्योगों के प्रतिनिधियों के साथ विशेष बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में ऐसे प्राथमिकता वाले उत्पादों की पहचान की गई है, जिनके आयात में पिछले कुछ महीनों में तेज इजाफा हुआ है।
इन उत्पादों में प्रमुखतया विद्युत उपकरण, धातुएं, रसायन, पेट्रोलियम उत्पाद, कीमती और अर्ध-कीमती रत्न, बैटरी, प्लास्टिक और वस्त्र शामिल हैं। ये ऐसे उत्पाद हैं, जिनके उत्पादन को बढ़ावा देकर आयात में कमी की जा सकती है और निर्यात में वृद्धि की जा सकती है। देश को उत्पादन की ओर ले जाने वाली नीति पर सरकार विचार तो करती दिखती है पर धरातल पर कुछ ठोस नहीं दिख रहा है। बस एक ही चीज़ रोज़ दिखती है, रुपया लुढ़क रहा है।