21वीं सदी का एक और साल पूरा हो रहा है। नया साल नई शुरुआत और नए संकल्पों का अवसर माना जाता है। कई लोग बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अमल में लाने का संकल्प लेते हैं। भविष्य कामना से पैदा होता है, इच्छा से पैदा होता है। जीना हमेशा वर्तमान में होता है। मानव जाति का संकट ही यह है कि वर्तमान में जीना छोड़कर भविष्य की इच्छाओं और कामनाओं के लिए पूरी दौड़ ताउम्र चलती रहती है..!
इंसान के जीवन की दौड़ में राजनीति का अहम योगदान है। राजनीति की हमेशा कोशिश होती है कि कामना को नए पंख दिए जाएं। भविष्य के सपने के भ्रमजाल को वर्तमान पर ताकत के साथ बनाए रखा जाए। इच्छापूर्ति के लिए लाभ और लोभ के राजनीतिक मॉडल को राजनीति की सफलता का पैमाना माना जा रहा है। लोकतंत्र की शासन प्रणाली में शासन के लिए जनता स्वयं अपना घुड़सवार चुनती है। लोकतंत्र के घुड़सवार कामना और संभावना पर सवार होकर ना तो स्वयं वर्तमान में जीना चाहते हैं और ना ही लोक को जीने देते हैं।
पल-पल वर्तमान में जीना ही जीवन का वास्तविक आनंद है। राजनीति सपने और लोभ के ऐसे-ऐसे तरीके इजाद करती है कि दिखावे में मिलने वाला राजनीति का सुख भी दीर्घकालीन दुख में बदल जाता है। वैसे तो नया साल, ना पुराना साल, ना भूत ना भविष्य सब कुछ वर्तमान पर ही निर्भर है। राजनीति के लिए भविष्य का संकल्प यही कहा जा सकता है कि वह वर्तमान में जीना शुरू करे। राजनीति की यह अप्रोच और सोच लोकतंत्र को निश्चित ही मजबूत करेगी।
लोकतंत्र पर अध्ययन करने वाली एक संस्था की रिपोर्ट ने इस प्रणाली के वर्तमान हालातों पर चिंता पैदा कर दी है। अमेरिका सहित दुनिया के 104 देशों में लोकतंत्र की हालत ठीक नहीं है। लोकतांत्रिक देशों में रहने वाले अधिकाँश लोग शक्तिशाली नेता चाहते हैं। दुनिया में तेजी से हो रहे ध्रुवीकरण को इस रिपोर्ट में चिंताजनक बताते हुए कहा गया है कि लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। दुनिया में असमानता तेजी से बढ़ रही है। चुनाव में भरोसा घट रहा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार लोकतांत्रिक देशों में रहने वाले लोगों के मूल्यों, उनके सोचने समझने के तरीके में बदलाव आया है। लोकतंत्र के हिमायती अब ताकतवर नेता चाहते हैं। तरक्की और राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए ताकतवर नेता लोकतंत्र की बेसिक जरूरत बन गया है।
इस रिपोर्ट का भारत के संदर्भ में विश्लेषण किया जाए तो यही पता चलता है कि भारत ने भी एक ताकतवर नेता के हाथ में अपने लोकतंत्र को सौंपने का काम किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र के इतिहास में सामान्य परिस्थितियों में जनविश्वास का नया इतिहास निर्मित किया है। जोड़-तोड़ की सरकारों के बीच स्पष्ट बहुमत के साथ विचारधारा के द्वन्द में अपनी विचारधारा को स्थापित करने में मोदी की लीडरशिप में बीजेपी ने सफलता प्राप्त की है। किसी भी राजनीतिक दल की राजनीतिक सफलता अपनी जगह है लेकिन देश की सफलता सबसे जरूरी है।
राजनीति आज धर्म-जाति, संप्रदाय का पर्याय बनी हुई है। विकास के मुद्दे राजनीति में पिछड़ते जाते हैं। सिस्टम में उपलब्ध पद, साधन और संसाधनों को जातियों और वर्गों में बांटने की रणनीति क्या लोकतंत्र को दीर्घकाल में मजबूत करेगी? राजनीति, गुलामी और परतंत्रता की मानसिकता को क्या बढ़ावा नहीं दे रही है? हर राजनीतिक विचारधारा और दल ऐसा सोचते और प्रयास करते हैं कि आम लोग उनके चिंतन पर आगे बढ़ें।
कहीं धर्म और जाति के नाम पर लोगों को अपने साथ जोड़े रखने का प्रयास किया जाता है तो कहीं अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर सत्ता की राजनीति का लाभ उठाया जाता है। आजादी के अमृत काल के दौर में भी विकास के पैमाने पर अगर राजनीति को आंका जाए तो स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है कि जो समस्याएं और कठिनाइयां आजादी के समय थीं, कमोबेश वही परिस्थितियां वर्तमान में भी विद्यमान हैं। ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं आया लेकिन जो बुनियादी प्रॉब्लम हैं वे वहीं की वहीं बनी हुई हैं।
गरीबी को ही अगर देखा जाए तो क्या गरीबी खत्म हो गई है? गरीबी से निपटने के लिए कभी ‘गरीबी हटाओ’ सरकार का नारा हुआ करता था। इन नारों पर कई चुनाव जीते गए हैं। क्या वर्तमान में गरीबी खत्म हो गई है? गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद कमोबेश अनुपात में वही बनी हुई है। पहले राजनीति का एजेंडा ‘रोटी कपड़ा और मकान’ के लिए अलग-अलग नामों से क्रियान्वित होता था। आज भी यही एजेंडा क्रियान्वित हो रहा है। योजनाओं के नाम अलग हो सकते हैं लेकिन योजना की बुनियाद वहीं के वहीं बनी हुई है।
पद-प्रतिष्ठा, लाभ अगर सुख देते हुए दिखाई पड़ते हैं तो इसे सुख मानना बड़ी भूल साबित होती है। सिद्धांतः जो बात सुख दे सकती है तो उसमें दुख शामिल होगा, क्योंकि कोई भी चीज शास्वत नहीं है। कभी न कभी वह समाप्त होगी, नष्ट होगी, खत्म होगी। जब सुख देने वाली चीज खत्म होगी तो उसी से दुख मिलेगा। मुफ्तखोरी की योजनाओं के लोभ में सुख लेने की प्रवृत्ति अंततः दुख ही पहुंचाएगी।
लोकतंत्र में स्वतंत्रता के साथ चिंतन और कदम बुनियादी जरूरत है। राजनीति ऐसा प्रयास करती है कि येन-केन प्रकारेण लोग कोल्हू के बैल जैसे उनकी विचारधारा, उनकी योजनाओं और सिद्धांतों के पीछे चलते रहें। स्वतंत्र चिंतन राजनीति के लिए नुकसान देह माना जाता है।
देश में मुख्यता कांग्रेस और भाजपा विचारधारा के स्तर पर राजनीति की दो धाराएं मानी जा सकती हैं। राजनीति से सृजन गायब हो गया है। राजनीति में झूठ ने स्थितियों को बोझिल बना दिया है। धर्म में तो नास्तिक होने का अवसर होता है लेकिन राजनीति में वह भी अवसर नहीं मिलता। किसी न किसी दल के साथ आस्तिक होना पड़ेगा।
जोड़ने और तोड़ने के वैचारिक संघर्ष में किसी एक तरफ चलना आम लोगों की मजबूरी बन जाती है। राजनीति में और चुनाव प्रक्रिया में जो खामियां सबको पता हैं, उनको भी सुधारने की कोई पहल क्यों नहीं की जाती, यह समझ के परे है? विरोध और निंदा राजनीति की जीवन पद्धति बन गया है। वास्तविकता पर कोई बात नहीं करना चाहता। राजनीतिक डायलॉग डिलीवरी एक प्रोफेशनल एप्रोच बन गया है।
राजनीतिक पाप और पुण्य को समझने के लिए आम लोगों को राजनीतिक मूर्छा से बाहर निकलना होगा। होशपूर्वक राजनीतिक जीवन जीना होगा। स्वतंत्र चिंतन प्रोत्साहित करना होगा। गलत विचार, गलत बातों और दिखावटीपन के विरोध में क्रोध प्रदर्शित करना पड़ेगा। जनाक्रोश ही राजनीति की शुद्धता और शुचिता को नया स्वरूप प्रदान कर सकता है। अभी तो ऐसा लगता है कि राजनीति आंसू की कड़ाही में पकौड़े तल रही है।