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त्योहारों की पुण्याई तक कैसे पहुंची राजनीति की लड़ाई?

सार

देवदूत हनुमान की जयंती का त्योहार शांतिपूर्ण मनाने के लिए भारत सरकार द्वारा सभी राज्यों को एडवाइजरी जारी की गई है. सामान्यतः एडवाइजरी तभी जारी होती है जब सरकार को त्योहारों पर अशांति और असामान्य परिस्थितियों की सूचनाएं होती हैं.

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विस्तार

रामनवमी पर बिहार बंगाल और दूसरे राज्यों में घटी सांप्रदायिक घटनाओं का ज्वार अभी पूरी तरह से उतरा नहीं है और हनुमान जयंती पर जुलूस और शोभायात्रा की तैयारियों को लेकर अनुमति नहीं मिलने की शिकवा-शिकायतें शुरू हो गई हैं. सेकुलरवादी सरकारों द्वारा 144 के नाम पर जुलूस और शोभा यात्राओं की अनुमतियां नहीं दी जा रही हैं. हिंदू संगठन हनुमान जयंती मनाने पर अड़े हुए हैं. ऐसे माहौल में तनाव समाज से ज्यादा सरकारों की ओर से निर्मित होते दिखाई दे रहा है.

पर्व और त्योहार भारतीय संस्कृति के प्राण माने जाते हैं. उल्लास के इन अवसरों को एडवाइजरी और धारा 144 की सीमा में मनाने के सरकारी प्रयासों को भारतीय संस्कृति के साथ न्याय कैसे कहा जाएगा? यह दुर्भाग्यजनक है कि त्योहारों के आयोजन को सियासी हथियार के रूप में उपयोग किया जाने लगा है. राजनीति की लड़ाई त्योहारों तक कैसे पहुंच गई है यह सरकारों से ज्यादा समाज के लिए चिंता का विषय है.

मीडिया के किसी भी प्लेटफार्म पर रामनवमी की सांप्रदायिक घटनाओं को लेकर अभी तक लगातार आरोप-प्रत्यारोप का माहौल बना हुआ है. इन घटनाओं के लिए राजनीतिक दल एक दूसरे पर साजिश का आरोप लगा रहे हैं. बिहार और बंगाल दोनों राज्यों में बीजेपी और राज्य की सरकारों के बीच रामनवमी पर दंगों को लेकर तलवारें खिंची हुई हैं. बिहार में नीतीश कुमार इसके लिए इशारों में बीजेपी को जिम्मेदार बता रहे हैं. वहीं ममता बनर्जी तो सीधे केंद्र सरकार पर हमलावर हैं. उन्होंने तो यहां तक आरोप लगा दिया है कि केंद्रीय बलों द्वारा साजिश कर दंगे कराए गए हैं. संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तियों द्वारा राजनीति में इस तरह के असंवैधानिक वक्तव्य समाज को तोड़ने के ही कारक बनते हुए दिखाई पड़ते हैं.

ममता बनर्जी तो अपने विरोधियों को एक साथ दिखाने के लिए भगवान राम को जोड़कर राम और वाम पर मिलकर राज्य में गड़बड़ी कराने का आरोप लगा रही हैं. उनका इशारा वामपंथी और राम समर्थक बीजेपी पर मालूम पड़ता है. भारतीय संस्कृति त्योहारों में जाति समुदाय और संप्रदाय को महत्व नहीं देती. हर संप्रदाय हर्ष और उल्लास के साथ मिलकर भारत में त्योहार मनाते हैं. राजनीतिक समीकरण ही देश के त्योहारों को हिंदू मुस्लिम में विभाजित कर रहे हैं जो दुर्भाग्यपूर्ण है. इस देश में मुस्लिम समाज के रमजान के त्यौहार पर रोजा इफ्तार तक हिंदू समाज की ओर से आयोजित किए जाते रहे हैं. त्योहारों को सियासी हथियार के रूप में उपयोग करने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ऐसी सद्भावना के मिसालें भले ही कम होती जा रही हैं लेकिन भाव अभी भी जीवित है.

राजनीति हर प्रतीक का उपयोग करने में सिद्धहस्त होती है. आज की राजनीति का स्तर कितना निराशाजनक हो गया है कि किसी दूसरे राजनीतिक दल को कमतर बताने के लिए धार्मिक प्रतीकों का उपयोग किया जाता है. सनातन शाश्वत हिंदू आस्था के प्रतीक भगवान राम को किसी एक खास राजनीतिक दल से जोड़ने में जितना उस दल का योगदान नहीं है उससे ज्यादा उसके विरोधियों का योगदान है. ऐसी ही परिस्थितियां हिंदू त्योहारों को लेकर भी बनी हुई हैं.

अगर त्योहार शांति से मनाए जाते रहेंगे तो त्योहारों का राजनीतिक नफा-नुकसान कैसे उठाया जा सकेगा? राजनीति का हर खिलाड़ी अपने एक्शन को सेकुलर और दूसरे के प्रयास को सांप्रदायिक स्थापित करने में कोई कमी नहीं छोड़ता. यहीं से राजनीतिक विभाजन शुरू होता है. यहीं से तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की शुरुआत होती है. पहले तो ऐसी परिस्थितियां चुनाव के समय पैदा करने की कोशिश की जाती थी लेकिन अब तो हर त्यौहार जैसे भावी चुनाव की भूमिका तैयार करने के लिए उपयोग किया जाने लगा है.

बिहार में दो जिलों में रामनवमी पर सांप्रदायिक घटनाएं हुई और इसी दौरान इफ्तार के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जिस तरीके के दृश्य मीडिया में सामने आए हैं उससे क्या कोई ध्रुवीकरण को रोक सकता है? सियासी बयानों का जो हवन किया गया है उसने तुष्टीकरण और ध्रुवीकरण को गहरा करने का ही काम किया है. राजनीतिक दलों को विभाजन की विभीषिका समझ नहीं आती, ऐसा तो नहीं माना जा सकता बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि उन्हें इस आपदा में अवसर तलाशने की महारत हासिल होती है.

राजनीति में आज भगवान राम के नाम का जितनी बार उपयोग किया जाता है, चाहे वह नकारात्मक दृष्टि से हो या सकारात्मक दृष्टि से हो, वह सब तुष्टिकरण और ध्रुवीकरण की सोच का नतीजा होता है. राजनीतिक कारणों से पर्व और त्योहार के आयोजनों को जिस ढंग से प्रदूषित किया जा रहा है उसे रोका जाना संस्कृति की रक्षा के लिए बहुत जरूरी है.

राजनीतिज्ञों से हाथ जोड़कर यही प्रार्थना की जा सकती है कि त्योहारों को राजनीति से दूर रखें. राजनीति के मखमल में लपेटकर शब्दभेदी तलवारें भले ही आम इंसान समझ ना पाए लेकिन उसका दुष्परिणाम तो सब को भुगतना पड़ता है. त्योहारों को राजनीति का अड्डा बनने से रोकने की ईमानदार कोशिश इस लोक और परलोक में पुण्य का भागीदार बनाएगी.