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धर्म की दुआ कैसे भरती राजनीति का बटुआ?

सार

धर्म की अनुभूति अभिव्यक्त नहीं हो सकती. अनुभूति निराकार में होती है और अभिव्यक्ति शब्दों में. जैसे ही अनुभूति को अभिव्यक्ति दी जाती है वैसे ही धर्म और अनुभूति असत्य हो जाती है. अभिव्यक्ति तो राजनीति का माध्यम होती है.  लोकतंत्र में राजनीति हर क्षेत्र में हावी हो गई है. धर्म भी इससे अछूता नहीं रहा है. धर्म में राजनीति के सकारात्मक और नकारात्मक उपयोग की बढ़ती घटनाओं ने धर्म-संस्कृति और शास्त्र पर सवालों का सैलाब खड़ा कर दिया है.

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विस्तार

मध्यप्रदेश में बागेश्वर धाम की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. गुढ़ हो और चींटें नहीं आए ऐसा तो हो नहीं सकता. बागेश्वर धाम पर राजनेताओं का मेला शुरू हो गया है. सबसे पहली दौड़ सेकुलर पार्टी के मध्यप्रदेश के सबसे बड़े नेता ने लगाई है. कांग्रेस राजनीति में धर्म के उपयोग पर आपत्ति करती है लेकिन उसके नेता सत्ता के भोग के लिए किसी भी उपयोग को छोड़ना नहीं चाहते.

बागेश्वर धाम के महंत पंडित धीरेंद्र शास्त्री हिंदू राष्ट्र बनाने की मुहिम चला रहे हैं, जो मुहिम राजनीति का विषय है उसे धार्मिक नेता क्यों चला रहे हैं? इस पर भी विचार जरूरी है. आजकल राजनीति हिंदुत्व, सॉफ्ट हिंदुत्व और सेकुलर विचारों पर केंद्रित हो गई है. हिंदुत्व की राजनीति को मिल रही सफलता को देखते हुए धर्मनिरपेक्ष राजनीति के समर्थक भी सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाने में जुट गए हैं. 

जब भी किसी भी चीज की नकल की जाती है तो उसे असल से ज्यादा सटीक और सुंदर दिखाने की कोशिश होती है. यही राजनीति में हो रहा है. हिंदुत्व की राजनीति करने वाले तो एक तरफ हैं ही लेकिन सेकुलर राजनीति करने वाले सेकुलर और सॉफ्ट हिंदुत्व के बीच में पिसते हुए दिखाई पड़ रहे हैं. क्या कोई सोच सकता है कि हिंदू राष्ट्र के लिए जो धार्मिक नेता अभियान चला रहा है उसके चरण वंदन के लिए कांग्रेस का कोई बड़ा नेता जा सकता है? जबकि कांग्रेस में ही सम्बंधित धार्मिक व्यक्ति का विरोध हो रहा है. 

जो कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम वोटों की कामना करती है, उस कांग्रेस पार्टी को हिंदू राष्ट्र की किसी भी आवाज के समर्थक के साथ खड़े होने की जरूरत क्यों है? कांग्रेस या तो स्पष्टता के साथ हिंदुत्व की राजनीति के मुकाबले में उतर जाए लेकिन धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हिंदुत्व और कट्टरता का राजनीतिक प्रहसन क्या कांग्रेस के भविष्य को मजबूत कर सकता है?

राजनीति की बेईमानी की खरोच राजनीतिक चेहरों पर देखना कोई कठिन नहीं होता. राजनीतिक चेहरों पर जरा ध्यान से नजर डाली जाये तो सच्चाई खुद-ब-खुद दिखाई पड़ने लगती है. हिंदू राष्ट्र के समर्थक महंत से एकांत में चर्चा और मीडिया के सामने देश संविधान से चलने की बात करना, ऐसे ही दोहरे चेहरों का उदाहरण कहा जा सकता है. निजी जीवन में कोई भी व्यक्ति अपनी धर्म आस्था और भक्ति को प्रदर्शित करने से बचता रहता है. 

इसके विपरीत राजनीति में सक्रिय लोग अपनी आस्था और भक्ति को भी भुनाने से संकोच नहीं करते. कोई कहता है कि मैं सबसे बड़ा हनुमान भक्त हूं, मैंने हनुमान की सबसे बड़ी मूर्ति बनाई है. अहंकार कोई पद प्रतिष्ठा धन और सत्ता का ही नहीं होता. अहंकार, भक्ति और तपस्या का भी होता है. दोनों तरह के अहंकार में कोई अंतर नहीं है. सबसे बड़ी हनुमान मूर्ति बनाने का अहंकार भक्ति की  प्रदक्षिणा कैसे कही जा सकती है?

बागेश्वर धाम आज लगातार प्रतिष्ठा पा रहा है. वहां पर भक्तों की भीड़ भी हो रही है. जहां भी भीड़ हो वहां राजनीति और राजनेता न हों, ऐसा तो हो ही नहीं सकता है. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि किसी धाम में भारी भीड़ हो रही हो. इस देश का इतिहास भरा पड़ा है, जहां भारी भीड़ भरे रहने वाले आश्रम और कथावाचकों के साथ कैसी-कैसी परिस्थितियां निर्मित हुई हैं?

जो भी उभरता है वह लुप्त होता है. इसमें कोई संशय नहीं है. हर फूल को मुरझाना ही होगा. वक्त के साथ सब चीजों का नष्ट होना जगत और प्रकृति का नियम है. साक्षी भाव की आत्म अनुभूति जीवन का वास्तविक धर्म है. राजनीति के सैलाब में यह अनुभूति प्रदर्शन और धार्मिक प्रतिद्वंदिता के राजनीतिक लाभ का जरिया बन गई है.

जो राजनेता धर्म का सकारात्मक लाभ लेने में सक्षम नहीं हो पाते हैं, वह नकारात्मक ढंग से धर्म-संस्कृति और शास्त्रों पर सवाल खड़े करते हैं. रामचरितमानस पर जिस तरह के सवाल राजनीतिक शख्सियतों द्वारा उठाए जा रहे हैं उससे हमारी संस्कृति और समाज में विभेद का खतरा पैदा होता है. धार्मिक कट्टरता ही सभी तरह की अशांति के लिए जिम्मेदार है. दूसरी तरफ यही कट्टरता राजनीति को लाभ का अवसर बनाने के लिए माध्यम बन रही है.

धार्मिक राजनीति अकेले कमलनाथ कर रहे हैं ऐसा भी नहीं है. कांग्रेस की ओर से तो हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने के लिए ही सॉफ्ट हिंदुत्व के पैंतरे चले जाते हैं. कांग्रेस के लोग यह समझ नहीं पाते कि जब जनता हिंदुत्व पर ही जाना चाहेगी तो फिर हिंदुत्व के मूल पैरोंकारों के बजाय नकल करने वालों के साथ क्यों जाएगी? 

धर्म और धार्मिक भावनाओं को निजी आस्था का विषय बने रहने देने से सही मायनों में धर्म का विस्तार होगा. समाज में धर्म का आचरण सिखाने वाले के लिए भी यह जरूरी है कि वह धर्म को राजनीति के रोजमर्रा के व्यवहार से अलग रखने का प्रयास करें.

धर्म के स्वरूप को निजी आस्था तक ही सीमित रखना आत्म कल्याण और समाज कल्याण के लिए जरूरी है. आकांक्षा की पूर्ति के लिए धार्मिक भावनाओं के शोषण की राजनीतिक स्थिति को मिटाने की जरूरत है. असलियत और आकांक्षा का फासला कभी पूरा नहीं होता जैसे ही एक आकांक्षा पूरी होती है वैसे ही नई आकांक्षा जन्म ले लेती है. राजनीति व्यवस्था की होना चाहिए, विकास की होना चाहिए, सुशासन की होना चाहिए. राजनीति तो साधन मात्र है. यह मनुष्य का ध्येय नहीं है अगर इसे ध्येय बना लिया जाएगा तो जीवन हेय हो जाएगा.