चुनावों के एक डेढ़ साल पहले राजनीतिक बयानबाज़ी, राजनीतिक दलों द्वारा जारी किए जाने वाले आरोप-पत्रों की बाढ़ आ जाती है| उस समय तो ऐसी कसमें खाई जाती हैं कि सरकार में आने के बाद आरोप पत्र में शामिल सभी मुद्दों की जांच कराई जाएगी और दोषियों को दंडित किया जाएगा..!
सरकार में आते ही आरोप पत्र कचरे में डाल दिए जाते हैं| शायद इसी कारण देश में ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि राजनीतिक लोग सच नहीं बोलते| यह अवधारणा इतनी प्रबल होती जा रही है कि कई बार सच होने के बाद भी लोग राजनेताओं के वक्तव्य को झूठ मान लेते हैं|
देश में आज कई जगह सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं| रामनवमी और हनुमान जयंती पर कई राज्यों में सांप्रदायिक घटनाएं हुई| कुछ जगह तो कर्फ्यू भी लगाने पड़े| तब से लेकर अभी तक कई राज्यों में माहौल संप्रदायिक बना हुआ है| राजस्थान में जोधपुर में सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं| जहां जहां भी ऐसी घटनाएं होती हैं वहां के सत्ताधारी राजनेता विपक्षी दल पर दंगा फैलाने का आरोप लगाते हैं| यह एक तरीके से राजनीतिक कर्मकांड जैसा बन गया है|
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जोधपुर की घटनाओं के लिए भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं संघ को आरोपित कर रहे हैं| एक मुख्यमंत्री यह कह रहा है कि एजेंडे के तहत भाजपा और संघ द्वारा राजस्थान में दंगे फैलाए जा रहे हैं| यह कितनी गंभीर बात है कि एक मुख्यमंत्री को यह बात पता है कि दंगा कौन फैला रहा है उसके बाद भी कोई कार्यवाई नहीं कर पा रहा है| या तो मुख्यमंत्री राजनीतिक फायदे के लिए बयानबाजी कर रहे हैं, या जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। यदि कोई प्रामाणिक तथ्य हैं तो अभी तक दंगे फैलाने वाले जेल से बाहर क्यों है?
कमोबेश जहां भी सांप्रदायिक घटना होती है, वहां सत्तापक्ष विपक्ष पर आरोप लगा देता है और जैसे ही परिस्थितियां सामान्य हुई सब अपनी अपनी राजनीतिक रोटी सेंककर आगे बढ़ जाते हैं| यह देश और समाज के लिए कितना निराशाजनक है कि जिनको संविधान की सर्वोच्च कुर्सी पर शासन के लिए बिठाया गया है वह लोग ही दो समुदायों के विवाद के मामले में भी राजनीतिक दृष्टि से बयानबाजी करते हैं|
अशोक गहलोत सहित हर राज्य के मुख्यमंत्री को जवाब देना चाहिए, जब उन्हें यह पता है कि दंगे किसने फैलाए हैं, तो उनको अभी तक पकड़ा क्यों नहीं गया? मध्य प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री तो यहां तक कहते हैं कि भाजपा गरीब मुसलमानों को प्रभावित कर पत्थर फिकवाती है|
राजनेता बिना प्रमाण के क्यों बोलते हैं? अगर चुनाव में साल डेढ़ साल बचे हो तब तो राजनीतिक आरोप और तेजी से लगाए जाते हैं, ताकि अपने समर्थकों को एक्टिवेट किया जा सके| जिनपर संभालने का दायित्व है वही बिगाड़ने का काम कर रहे हैं|
चुनाव के पहले विपक्षी राजनीतिक दल सरकारों पर आरोप लगाने के लिए अक्सर आरोप पत्र जारी करते हैं| इनके लिए वरिष्ठ नेताओं की समितियां बनती हैं| आरोपों की खोजबीन की जाती है, उसके बाद मीडिया के सामने आरोप पत्र जारी किए जाते हैं| मध्यप्रदेश में 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा द्वारा “अपराधों का सैकड़ा पार - 10 साल में बंटाधार” शीर्षक से आरोप पत्र जारी किया था| इस आरोप पत्र में कई तरह के आरोप लगाए गए थे|
आरोपपत्र में भ्रष्टाचार के तांडव का मुद्दा उठाते हुए तत्कालीन सरकार पर हजारों करोड़ के घोटाले करने का आरोप लगाया गया| भाजपा की सरकार बनी उमा भारती मुख्यमंत्री बनी उसके बाद मुख्यमंत्री भले ही बदलते रहे, लेकिन 2018 तक तो लगातार बीजेपी की सरकार चलती रही| 15 महीने के अंतराल के बाद फिर से भाजपा की सरकार सत्ता में आई| लेकिन 2003 में जारी किए गए आरोप पत्र पर क्या कार्यवाही की गई, अभी तक किसी को पता नहीं है?
यह आरोप क्या केवल चुनावी नारे के रूप में जारी किए जाते हैं या इनमें कुछ सच्चाई होती है? अगर सच्चाई होती है तो जारी करने वाले जब सत्ता में आ जाते हैं तो क्या उनका यह दायित्व नहीं है, कि वह उन आरोपों की सच्चाई जांच पड़ताल के बाद जनता के सामने रखें| लेकिन कोई सरकार ऐसा नहीं करती| ऐसा लगता है सभी विपक्षी दल येन-केन-प्रकारेण, झूठ-सही हर चीज का उपयोग कर सत्ता पर पहुंचना चाहते हैं| सत्ता पर बैठने के बाद सब पुरानी बातें भुलाकर अपना अध्याय रचने में लग जाते हैं|
इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी ने 2008, 2013 और 2018 में भाजपा सरकार के खिलाफ चुनाव के दौरान आरोप पत्र जारी किये| हर आरोप पत्र में सरकार पर गंभीर आरोप लगाए गए| 2018 में कांग्रेस की सरकार राज्य में स्थापित हुई, भले ही सरकार 15 महीने चली, लेकिन आरोपों पर कोई कार्यवाई नहीं की गई, इससे यह सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक दल, चुनाव जीतने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं? ऐसे आरोप लगाते हैं जो सरकार में आने पर सच साबित नहीं कर सकते?
कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि राजनीतिक आरोप और आरोप पत्र को परमाणु हथियार के जैसे एक दूसरे को डराने के लिए उपयोग किया जाता है| दोनों दल यह जानते हैं कि अगर इनका उपयोग किया जाएगा तो अंततः दोनों दलों को नुकसान होगा| इसलिए इनको केवल दिखाया जाता है| बाद में ना इनकी जांच की जाती है ना इन पर कोई करवाई की जाती है, इन को भुला दिया जाता है| इसमें दोनों दलों की मिलीभगत होती है|
राजनीति में तो आजकल ऐसा हो रहा है कि कोई नेता या दल, किसी दूसरे नेता पर या दल पर उतने ही राजनीतिक आरोप के हथियार से हमला करते हैं जितना वह बर्दाश्त करता है| "म्युचुअली एश्योर्ड डिस्कशंस" ही जनता के सामने लाए जाते हैं| दोनों दलों के राजनेता यह जानते हैं कि अगर संतुलन बिगड़ा तो दोनों नुकसान में रहेंगे|
नुकसान के डर के कारण राजनीतिक दलों में शांति बनी रहती है| लगता है राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगाने की औपचारिकता करते हैं| जनता के सामने लड़ते हुए दिखाई पड़ना चाहते हैं और फ्रेंडली पॉलिटिकल मैच खेलने में व्यस्त होते हैं|
हमारे देश और संस्कृति में जुबान और कही हुई बात के लिए प्राण देने तक से भी लोग नहीं चूकते| “रघुकुल रीत सदा चली आई - प्राण जाए पर वचन न जाई” वाले इस देश में राजनीति ने ऐसा माहौल बना दिया है कि सत्ता मिलना चाहिए, भले ही "जुबान और बात" हजार बार चली जाए|
यह राजनीतिक संस्कृति देश की संस्कृति को बर्बाद कर रही है| ऐसा राजनीतिक माहौल पिछले दो-तीन दशकों से ही बदला है| पहले ऐसा नहीं होता था| राजनेताओं की बात पर लोग यकीन करते थे, केवल बात रखने के लिए ही अपना सब कुछ दांव पर लगा देते थे| आज तो लिखित आरोपों का भी कोई मतलब नहीं बचा है|