यह विचारणीय तथ्य है कि समाज में ऐसी प्रतिगामी सोच क्यों पनपती है कि लोग परंपराओं को कानून से ऊपर समझने लगते हैं, हमें यह भी सोचना होगा कि कानून की कसौटी पर अस्वीकार्य होने के बावजूद बाल विवाह की परंपरा क्यों जारी है? यह हम सभी जानते हैं कि कम आयु के बच्चे अपने भविष्य के जीवन के बारे में परिपक्व फैसला लेने में सक्षम नहीं होते, साथ ही वे इस स्थिति में भी नहीं होते कि उनके जीवन पर थोपे जा रहे फैसले का मुखर विरोध कर सकें..!!
भारत के बहुत से समाजों के लिये बेहद नकारात्मक टिप्पणी है कि सदियों के प्रयास के बावजूद वहां बाल विवाह की कुप्रथा विद्यमान हैऔर उसमें समाज के वे तथाकथित बड़े लोग भाग भी लेते हैं,जिनके ज़िम्मे समाज सुधार भी है ।
यहां यह विचारणीय तथ्य है कि समाज में ऐसी प्रतिगामी सोच क्यों पनपती है कि लोग परंपराओं को कानून से ऊपर समझने लगते हैं। हमें यह भी सोचना होगा कि कानून की कसौटी पर अस्वीकार्य होने के बावजूद बाल विवाह की परंपरा क्यों जारी है? यह हम सभी जानते हैं कि कम आयु के बच्चे अपने भविष्य के जीवन के बारे में परिपक्व फैसला लेने में सक्षम नहीं होते। साथ ही वे इस स्थिति में भी नहीं होते कि उनके जीवन पर थोपे जा रहे फैसले का मुखर विरोध कर सकें।
उनके सामने आर्थिक स्वावलंबन का भी प्रश्न होता है। लेकिन अभिभावक क्यों इस मामले में दूरदृष्टि नहीं रखते? सही मायने में बाल विवाह बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ ही है। भले ही मजबूरी में वे इस थोपे हुए विवाह के लिये राजी हो जाएं, लेकिन उसकी कसक जीवन पर्यंत बनी रहती है। जो उनके स्वाभाविक विकास में एक बड़ी बाधा बन जाता है। इसको लेकर समाज में जागरूकता के प्रसार की जरूरत है ताकि बच्चे भी ऐसे किसी प्रयास का विरोध कर सकें। जिसमें बाल विवाह पर नियंत्रण करने वाले विभागों की जिम्मेदारी व सजगता बढ़ाने की भी जरूरत है। जिससे बाल विवाह का विरोध करने वाले किशोरों को भी संबल मिल सके।
यही वजह है कि इस संबंध में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट को कड़ा रुख दिखाते हुए कहना पड़ा कि कानून परंपराओं से ऊपर है। कोर्ट का कथन तार्किक है कि जिन बच्चों की कम उम्र में शादी करा दी जाती है क्या वे इस मामले में तार्किक व परिपक्व सोच रखते हैं? एक संबंधित याचिका पर सुनवायी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह समय की मांग है कि इस कानून को लागू करने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर किया जाए। इस बाबत उन समुदायों व धर्मों के लोगों को बताया जाना चाहिए कि बाल विवाह कराया जाना एक आत्मघाती कदम है। यह समझना कठिन नहीं है कि कम उम्र में विवाह कालांतर जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य के लिये भी घातक साबित होता है। उनकी पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती और वे अपनी आकांक्षाओं का कैरियर भी नहीं बना सकते।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का कथन इस सामाजिक बुराई के उन्मूलन में मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। कोर्ट को कहना पड़ा कि बाल विवाह रोकथाम अधिनियम को व्यक्तिगत कानूनों के जरिये बाधित नहीं किया जा सकता। यद्यपि कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि यह कानून संपूर्ण नहीं है और इससे जुड़ी कुछ कमियों को दूर करने की जरूरत है। जिसके निराकरण के लिये समन्वय का ध्यान रखने की जरूरत है।
अदालत ने एक महत्वपूर्ण बात भी कही कि बच्चों पर बाल विवाह थोपना उनके अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का भी दमन है। निश्चय ही इस बाबत बदलाव लाने के लिये कानून में जरूरी बदलाव लाने के साथ ही समाज में जागरूकता लाने की भी जरूरत है।