स्कूली पाठ्यक्रमों से मुगलों के इतिहास के चैप्टर हटाए जाने पर बवाल मचा हुआ है. सोशल मीडिया पर इसके पक्ष और विरोध में कॉमेंट्स भरे पड़े हैं. एनसीईआरटी की ओर से सफाई में यह कहा गया है कि विद्यार्थी आधुनिक और प्रगतिशील नए पाठ्यक्रम पढ़ सकें इसलिए पाठ्यक्रमों में बदलाव किया गया है.
मुगलों के इतिहास की बात हो और लोकतांत्रिक मुगल राजनीति के अनुयाई और समर्थक अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए आवाज ना उठाएं यह तो संभव हो ही नहीं सकता. सिलेबस से चैप्टर हटाने के मेरिट या डीमेरिट पर बहस हो यह तो समझा जा सकता है लेकिन लड़ाई इस पर शुरू हो जाए कि इसे तो हटाया ही नहीं जा सकता. यह बात समझ से परे है. राजनीतिक पेट की पूर्ति मुगल इतिहास के प्रदर्शन के बिना शायद नहीं हो सकती है.
इतिहास पर विवाद कोई नई बात नहीं है. मुगलों का इतिहास भी सिलेबस में कभी ना कभी जोड़ा गया होगा. जब जोड़ा गया था तब भी सिलेबस में उसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता मेरिट के आधार पर तय की गई होगी. इसमें संशय लगता है. अगर इन पाठ्यक्रमों को जोड़ने का आधार मेरिट रहा होता तो फिर कोई भी सरकार ऐसे बुनियादी फैक्ट को जो नई पीढ़ी के शिक्षा और विकास के लिए जरूरी हो कैसे हटा सकती है?
इतिहास का विवाद केवल भारत में नहीं है दुनिया के कई देशों में भी इतिहास पर विवाद हैं. इन विवादों को राजनीति हवा देने से पीछे नहीं रहती. इसका कारण यह लगता है कि भावनाओं पर खड़ा इंसान इतिहास से अपने को जोड़े हुये महसूस करता है. जब भी इतिहास की कुछ बातों को नकारात्मक या सकारात्मक ढंग से सामने लाया जाता है तब राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावना बढ़ जाती है. पाठ्यक्रम में बदलाव हमेशा विशेषज्ञों के सुझाव और अनुशंसा पर ही किए जाते हैं लेकिन हमेशा बदलाव को राजनीतिक नजरिए से करने का आरोप लगता रहा है. यह डिस्कशन का विषय हो सकता है कि पाठ्य पुस्तकों से इतिहास को हटाकर शिक्षा की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाया जा रहा है या इससे नई संभावनाएं विकसित हो रही हैं. वक्त के साथ लोगों को सशक्त करने के लिए पाठ्यक्रमों में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया महत्वपूर्ण होती है.
वैसे तो इतिहास वह है जो नष्ट हो चुका है. जिनकी आज कोई प्रासंगिकता नहीं है. इतिहास के आधार पर न जीवन चलता है ना चल सकता है. शिक्षा के पाठ्यक्रम देश के विकास के साथ ही मनुष्य को ऐसा बनाने का प्रयास है कि वह अपने जीवन को आधुनिकता के साथ चलाने में आत्मनिर्भर और योग्य बन सके. शिक्षा के पाठ्यक्रमों को बनाए रखने का यही एक आधार हो सकता है. बाकी सारे चिंतन-मनन केवल भावनात्मक शोषण के अलावा कुछ नहीं कहे जा सकते हैं.
मुगलों से जुड़ा कोई विषय हो और उस पर राजनीतिक विवाद चरम पर ना हो जाए ऐसा अक्सर कम ही होता है. आजकल इंटरनेट का जमाना है. कोई भी फेक्ट छुपाया नहीं जा सकता. यहां तक कि जो मनुष्यता के लिए खतरनाक विषय हैं उनको भी रोकना इंटरनेट के जमाने में संभव नहीं है. फिर मुगलों का इतिहास जो भी जानना चाहता है उसको उपलब्ध नहीं होगा ऐसा तो नहीं कहा जा सकता. शिक्षा पाठ्यक्रमों में उनका होना क्यों जरूरी है?
लोकतंत्र में सरकारें तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरत के मुताबिक नीतियों का निर्धारण करती हैं. ऐसी निर्धारित नीतियों पर अविश्वास करना या सवाल खड़े करना लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर सवाल करना है. लोकतांत्रिक ढंग से ही पाठ्यक्रमों को समय-समय पर जोड़ा जाता है, उसी आधार पर समय-समय पर हटाया जाता है. जब इतिहास बनाने वाला ही नष्ट हो जाता है और उसका ही अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो उसके कारनामों पर कब तक गीत गाना तर्कसंगत और न्याय संगत कहा जाएगा?
नयापन ही अस्तित्व है. इतिहास के साथ चिपके रहकर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता. समय-समय पर बदलाव परमात्मा का नियम है. सिलेबस में बदलाव के पीछे भी यही सोच और दर्शन होगा, कभी किसी चीज से भागना हल नहीं है. आधे अधूरे ज्ञान के साथ कभी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. स्कूली पाठ्यक्रमों से मुगलों का इतिहास हटाने की प्रक्रिया तो अभी शुरू की गई है लेकिन जिन पीढ़ियों ने इस इतिहास को पढ़ लिया है उन्हें भी अपने जीवनयापन में इसके योगदान पर हंसी आती होगी. इतिहास पर लड़ने के लिए नहीं बल्कि जीवन में इतिहास रचने के लिए कुछ करने और आगे बढ़ने की जरूरत है. इतिहास हमेशा नयेपन, नई सोच, नई पहल और नूतन प्रयास से ही संभव होता है.